शनिवार, 9 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौथा अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौथा अध्याय..(पोस्ट०२)



कंस के हाथ से छूटकर योगमाया का

आकाश में जाकर भविष्यवाणी करना



श्रीशुक उवाच ।

उपगुह्य आत्मजां एवं रुदत्या दीन अदीनवत् ।

याचितस्तां विनिर्भर्त्स्य हस्ताद् आचिच्छिदे खलः ॥ ७ ॥

तां गृहीत्वा चरणयोः जातमात्रां स्वसुः सुताम् ।

अपोथयत् शिलापृष्ठे स्वार्थोन्मूलितसौहृदः ॥ ८ ॥

सा तद्‌हस्तात् समुत्पत्य सद्यो देव्यंबरं गता ।

अदृश्यतानुजा विष्णोः सायुधाष्टमहाभुजा ॥ ९ ॥

दिव्यस्रग् अंबरालेप रत्‍नाभरणभूषिता ।

धनुःशूलेषुचर्मासि शंखचक्रगदाधरा ॥ १० ॥

सिद्धचारणगन्धर्वैः अप्सरःकिन्नरोरगैः ।

उपाहृतोरुबलिभिः स्तूयमानेदमब्रवीत् ॥ ११ ॥

किं मया हतया मन्द जातः खलु तवान्तकृत् ।

यत्र क्वं वा पूर्वशत्रुः मा हिंसीः कृपणान्वृथा ॥ १२ ॥

इति प्रभाष्य तं देवी माया भगवती भुवि ।

बहुनामनिकेतेषु बहुनामा बभूव ह ॥ १३ ॥

तया अभिहितं आकर्ण्य कंसः परमविस्मितः ।

देवकीं वसुदेवं च विमुच्य प्रश्रितोऽब्रवीत् ॥ १४ ॥

अहो भगिन्यहो भाम मया वां बत पाप्मना ।

पुरुषाद इवापत्यं बहवो हिंसिताः सुताः ॥ १५ ॥

स त्वहं त्यक्तकारुण्यः त्यक्तज्ञातिसुहृत् खलः ।

कान् लोकान् वै गमिष्यामि ब्रह्महेव मृतः श्वसन् ॥ १६ ॥

दैवं अपि अनृतं वक्ति न मर्त्या एव केवलम् ।

यद् विश्रंभाद् अहं पापः स्वसुर्निहतवान् शिशून् ॥ १७ ॥

मा शोचतं महाभागौ आत्मजान् स्वकृतंभुजः ।

जन्तवो न सदैकत्र दैवाधीनास्तदाऽऽसते ॥ १८ ॥

भुवि भौमानि भूतानि यथा यान्ति अपयान्ति च ।

नायमात्मा तथैतेषु विपर्येति यथैव भूः ॥ १९ ॥

यथानेवंविदो भेदो यत आत्मविपर्ययः ।

देहयोगवियोगौ च संसृतिर्न निवर्तते ॥ २० ॥

तस्माद्‍भद्रे स्वतनयान् मया व्यापादितानपि ।

मानुशोच यतः सर्वः स्वकृतं विन्दतेऽवशः ॥ २१ ॥

यावद्धतोऽस्मि हन्तास्मीति आत्मानं मन्यतेऽस्वदृक् ।

तावत् तद् अभिमान्यज्ञो बाध्यबाधकतामियात् ॥ २२ ॥

क्षमध्वं मम दौरात्म्यं साधवो दीनवत्सलाः ।

इत्युक्त्वाश्रुमुखः पादौ श्यालः स्वस्रोः अथाग्रहीत् ॥ २३ ॥

मोचयामास निगडात् विश्रब्धः कन्यकागिरा ।

देवकीं वसुदेवं च दर्शयन् आत्मसौहृदम् ॥ २४ ॥

भ्रातुः समनुतप्तस्य क्षान्त्वा रोषं च देवकी ।

व्यसृजत् वसुदेवश्च प्रहस्य तमुवाच ह ॥ २५ ॥

एवमेतन्महाभाग यथा वदसि देहिनाम् ।

अज्ञानप्रभवाहंधीः स्वपरेति भिदा यतः ॥ २६ ॥

शोकहर्षभयद्वेष लोभमोहमदान्विताः ।

मिथो घ्नन्तं न पश्यन्ति भावैर्भावं पृथग्दृशः ॥ २७ ॥



श्रीशुकदेव जी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! कन्या को अपनी गोद में छिपाकर देवकीजी ने अत्यन्त दीनता के साथ रोते-रोते याचना की । परंतु कंस बड़ा दुष्ट था । उसने देवकीजी को झिडक़कर उनके हाथसे वह कन्या छीन ली ॥ ७ ॥ अपनी उस नन्ही-सी नवजात भानजी के पैर पकडक़र कंसने उसे बड़े जोरसे एक चट्टानपर दे मारा । स्वार्थने उसके हृदयसे सौहार्दको समूल उखाड़ फेंका था ॥ ८ ॥ परंतु श्रीकृष्णकी वह छोटी बहिन साधारण कन्या तो थी नहीं, देवी थी; उसके हाथसे छूटकर तुरंत आकाशमें चली गयी और अपने बड़े-बड़े आठ हाथोंमें आयुध लिये हुए दीख पड़ी ॥ ९ ॥ वह दिव्य माला, वस्त्र, चन्दन और मणिमय आभूषणोंसे विभूषित थी । उसके हाथोंमें धनुष, त्रिशूल, बाण, ढाल, तलवार, शङ्ख, चक्र और गदाये आठ आयुध थे ॥ १० ॥ सिद्ध, चारण, गन्धर्व, अप्सरा, किन्नर और नागगण बहुत-सी भेंटकी सामग्री समर्पित करके उसकी स्तुति कर रहे थे । उस समय देवीने कंससे यह कहा॥ ११ ॥ रे मूर्ख ! मुझे मारनेसे तुझे क्या मिलेगा ? तेरे पूर्वजन्मका शत्रु तुझे मारनेके लिये किसी स्थानपर पैदा हो चुका है । अब तू व्यर्थ निर्दोष बालकोंकी हत्या न किया कर॥ १२ ॥ कंससे इस प्रकार कहकर भगवती योगमाया वहाँसे अन्तर्धान हो गयीं और पृथ्वीके अनेक स्थानोंमें विभिन्न नामोंसे प्रसिद्ध हुर्ईं ॥ १३ ॥

देवीकी यह बात सुनकर कंसको असीम आश्चर्य हुआ । उसने उसी समय देवकी और वसुदेवको कैदसे छोड़ दिया और बड़ी नम्रतासे उनसे कहा॥ १४ ॥ मेरी प्यारी बहिन और बहनोईजी ! हाय-हाय, मैं बड़ा पापी हूँ । राक्षस जैसे अपने ही बच्चोंको मार डालता है, वैसे ही मैंने तुम्हारे बहुत-से लडक़े मार डाले । इस बातका मुझे बड़ा खेद है [*] ॥ १५ ॥ मैं इतना दुष्ट हूँ कि करुणाका तो मुझमें लेश भी नहीं है । मैंने अपने भाई-बन्धु और हितैषियों तक का त्याग कर दिया। पता नहीं, अब मुझे किस नरक में जाना पड़ेगा । वास्तव में तो मैं ब्रह्मघाती के समान जीवित होनेपर भी मुर्दा ही हूँ ॥ १६ ॥ केवल मनुष्य ही झूठ नहीं बोलते, विधाता भी झूठ बोलते हैं । उसीपर विश्वास करके मैंने अपनी बहिनके बच्चे मार डाले। ओह ! मैं कितना पापी हूँ ॥ १७ ॥ तुम दोनों महात्मा हो । अपने पुत्रोंके लिये शोक मत करो । उन्हें तो अपने कर्मका ही फल मिला है । सभी प्राणी प्रारब्धके अधीन हैं । इसीसे वे सदा-सर्वदा एक साथ नहीं रह सकते ॥ १८ ॥ जैसे मिट्टीके बने हुए पदार्थ बनते और बिगड़ते रहते हैं, परंतु मिट्टीमें कोई अदल-बदल नहीं होतीवैसे ही शरीरका तो बनना-बिगडऩा होता ही रहता है; परंतु आत्मापर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता ॥ १९ ॥ जो लोग इस तत्त्वको नहीं जानते, वे इस अनात्मा शरीरको ही आत्मा मान बैठते हैं । यही उलटी बुद्धि अथवा अज्ञान है । इसीके कारण जन्म और मृत्यु होते हैं । और जबतक यह अज्ञान नहीं मिटता, तबतक सुख-दु:खरूप संसारसे छुटकारा नहीं मिलता ॥ २० ॥ मेरी प्यारी बहिन ! यद्यपि मैंने तुम्हारे पुत्रोंको मार डाला है, फिर भी तुम उनके लिये शोक न करो । क्योंकि सभी प्राणियोंको विवश होकर अपने कर्मोंका फल भोगना पड़ता है ॥ २१ ॥ अपने स्वरूपको न जाननेके कारण जीव जबतक यह मानता रहता है कि मैं मारनेवाला हूँ या मारा जाता हूँ’, तबतक शरीरके जन्म और मृत्युका अभिमान करनेवाला वह अज्ञानी बाध्य और बाधक-भावको प्राप्त होता है । अर्थात् वह दूसरोंको दु:ख देता है और स्वयं दु:ख भोगता है ॥२२॥ मेरी यह दुष्टता तुम दोनों क्षमा करो; क्योंकि तुम बड़े ही साधुस्वभाव और दीनोंके रक्षक हो ।ऐसा कहकर कंसने अपनी बहिन देवकी और वसुदेवजीके चरण पकड़ लिये । उसकी आँखोंसे आँसू बह-बहकर मुँहतक आ रहे थे ॥ २३ ॥ इसके बाद उसने योगमायाके वचनोंपर विश्वास करके देवकी और वसुदेवको कैदसे छोड़ दिया और वह तरह-तरहसे उनके प्रति अपना प्रेम प्रकट करने लगा ॥ २४ ॥ जब देवकीजीने देखा कि भाई कंसको पश्चात्ताप हो रहा है, तब उन्होंने उसे क्षमा कर दिया । वे उसके पहले अपराधोंको भूल गयीं और वसुदेवजीने हँसकर कंससे कहा॥ २५ ॥ मनस्वी कंस ! आप जो कहते हैं, वह ठीक वैसा ही है । जीव अज्ञानके कारण ही शरीर आदिको मैंमान बैठते हैं । इसीसे अपने परायेका भेद हो जाता है ॥ २६ ॥ और यह भेददृष्टि हो जानेपर तो वे शोक, हर्ष, भय, द्वेष, लोभ, मोह और मदसे अन्धे हो जाते हैं । फिर तो उन्हें इस बातका पता ही नहीं रहता कि सबके प्रेरक भगवान्‌ ही एक भावसे दूसरे भावका, एक वस्तुसे दूसरी वस्तुका नाश करा रहे हैं॥ २७ ॥

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[*] जिनके गर्भ में भगवान्‌ ने निवास किया, जिन्हें भगवान्‌ के दर्शन हुए, उन देवकी-वसुदेव के दर्शनका ही यह फल है कि कंसके हृदयमें विनय, विचार, उदारता आदि सद्गुणोंका उदय हो गया । परंतु जबतक वह उनके सामने रहा तभीतक ये सद्गुण रहे । दुष्ट मन्त्रियोंके बीचमें जाते ही वह फिर ज्यों-का-त्यों हो गया ।



शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


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