॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट१६)
ब्रह्माजी
के द्वारा भगवान् की स्तुति
इत्यभिष्टूय
भूमानं त्रिः परिक्रम्य पादयोः ।
नत्वाभीष्टं
जगद्धाता स्वधाम प्रत्यपद्यत ॥ ४१ ॥
ततोऽनुज्ञाप्य
भगवान् स्वभुवं प्रागवस्थितान् ।
वत्सान्
पुलिनमानिन्ये यथापूर्वसखं स्वकम् ॥ ४२ ॥
एकस्मिन्नपि
यातेऽब्दे प्राणेशं चान्तराऽऽत्मनः ।
कृष्णमायाहता
राजन् क्षणार्धं मेनिरेऽर्भकाः ॥ ४३ ॥
किं
किं न विस्मरन्तीह मायामोहितचेतसः ।
यन्मोहितं
जगत्सर्वं अभीक्ष्णं विस्मृतात्मकम् ॥ ४४ ॥
ऊचुश्च
सुहृदः कृष्णं स्वागतं तेऽतिरंहसा ।
नैकोऽप्यभोजि
कवल एहीतः साधु भुज्यताम् ॥ ४५ ॥
ततो
हसन् हृषीकेशोऽभ्यवहृत्य सहार्भकैः ।
दर्शयंश्चर्माजगरं
न्यवर्तत वनाद् व्रजम् ॥ ४६ ॥
बर्हप्रसून
नवधातुविचित्रिताङ्गः
प्रोद्दामवेणुदलशृङ्गरवोत्सवाढ्यः
।
वत्सान्
गृणन्ननुगगीत पवित्रकीर्तिः
गोपीदृगुत्सवदृशिः
प्रविवेश गोष्ठम् ॥ ४७ ॥
अद्यानेन
महाव्यालो यशोदानन्दसूनुना ।
हतोऽविता
वयं चास्माद् इति बाला व्रजे जगुः ॥ ४८ ॥
श्रीराजोवाच
।
ब्रह्मन्
परोद्भवे कृष्णे इयान्प्रेमा कथं भवेत् ।
योऽभूतपूर्वस्तोकेषु
स्वोद्भवेष्वपि कथ्यताम् ॥ ४९ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! संसारके रचयिता ब्रह्माजीने इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णकी
स्तुति की। इसके बाद उन्होंने तीन बार परिक्रमा करके उनके चरणोंमें प्रणाम किया और
फिर अपने गन्तव्य स्थान सत्यलोकमें चले गये ॥ ४१ ॥ ब्रह्माजीने बछड़ों और
ग्वालबालोंको पहले ही यथास्थान पहुँचा दिया था। भगवान् श्रीकृष्णने ब्रह्माजीको
विदा कर दिया और बछड़ोंको लेकर यमुनाजीके पुलिनपर आये, जहाँ
वे अपने सखा ग्वालबालोंको पहले छोड़ गये थे ॥ ४२ ॥ परीक्षित् ! अपने जीवनसर्वस्व—प्राणवल्लभ श्रीकृष्णके वियोगमें यद्यपि एक वर्ष बीत गया था, तथापि उन ग्वालबालोंको वह समय आधे क्षणके समान जान पड़ा। क्यों न हो,
वे भगवान्की विश्वविमोहिनी योगमायासे मोहित जो हो गये थे ॥ ४३ ॥
जगत्के सभी जीव उसी मायासे मोहित होकर शास्त्र और आचार्योंके बार-बार समझानेपर भी
अपने आत्माको निरन्तर भूले हुए हैं। वास्तवमें उस मायाकी ऐसी ही शक्ति है। भला,
उससे मोहित होकर जीव यहाँ क्या-क्या नहीं भूल जाते हैं ? ॥ ४४ ॥
परीक्षित्
! भगवान् श्रीकृष्णको देखते ही ग्वालबालोंने बड़ी उतावलीसे कहा—‘भाई ! तुम भले आये। स्वागत है, स्वागत ! अभी तो हमने
तुम्हारे बिना एक कौर भी नहीं खाया है। आओ, इधर आओ; आनन्दसे भोजन करो’ ॥ ४५ ॥ तब हँसते हुए भगवान्ने
ग्वालबालों के साथ भोजन किया और उन्हें अघासुर के शरीर का ढाँचा दिखाते हुए वनसे
व्रज में लौट आये ॥ ४६ ॥ श्रीकृष्ण के सिरपर मोरपंखका मनोहर मुकुट और घुँघराले
बालोंमें सुन्दर-सुन्दर महँ-महँ महँकते हुए पुष्प गुँथ रहे थे। नयी-नयी रंगीन
धातुओंसे श्याम शरीरपर चित्रकारी की हुई थी। वे चलते समय रास्तेमें उच्च स्वरसे
कभी बाँसुरी, कभी पत्ते और कभी सिंगी बजाकर वाद्योत्सवमें
मग्र हो रहे हैं, पीछे-पीछे ग्वालबाल उनकी लोकपावन कीर्तिका
गान करते जा रहे हैं। कभी वे नाम ले-लेकर अपने बछड़ोंको पुकारते, तो कभी उनके साथ लाड़-लड़ाने लगते। मार्गके दोनों ओर गोपियाँ खड़ी हैं;
जब वे कभी तिरछे नेत्रोंसे उनकी नजरमें नजर मिला देते हैं, तब गोपियाँ आनन्द-मुग्ध हो जाती हैं। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण ने
गोष्ठ में प्रवेश किया ॥ ४७ ॥ परीक्षित् ! उसी दिन बालकों ने व्रज में जाकर कहा
कि ‘आज यशोदा मैया के लाड़ले नन्दनन्दन ने वन में एक बड़ा
भारी अजगर मार डाला है और उससे हमलोगों की रक्षा की है’ ॥ ४८
॥
राजा
परीक्षित् ने कहा—ब्रह्मन् ! व्रजवासियों के लिये श्रीकृष्ण अपने पुत्र नहीं थे, दूसरे के पुत्र थे। फिर उनका श्रीकृष्णके प्रति इतना प्रेम कैसे हुआ ?
ऐसा प्रेम तो उनका अपने बालकों पर भी पहले कभी नहीं हुआ था ! आप
कृपा करके बतलाइये, इसका क्या कारण है ? ॥ ४९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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