॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट१७)
ब्रह्माजी
के द्वारा भगवान् की स्तुति
श्रीशुक
उवाच ।
सर्वेषामपि
भूतानां नृप स्वात्मैव वल्लभः ।
इतरेऽपत्यवित्ताद्याः
तद्वल्लभतयैव हि ॥ ५० ॥
तद्
राजेन्द्र यथा स्नेहः स्वस्वकात्मनि देहिनाम् ।
न
तथा ममतालम्बि पुत्रवित्तगृहादिषु ॥ ५१ ॥
देहात्मवादिनां
पुंसां अपि राजन्यसत्तम ।
यथा
देहः प्रियतमः तथा न ह्यनु ये च तम् ॥ ५२ ॥
देहोऽपि
ममताभाक् चेत् तर्ह्यसौ नात्मवत् प्रियः ।
यज्जीर्यत्यपि
देहेऽस्मिन् जीविताशा बलीयसी ॥ ५३ ॥
तस्मात्
प्रियतमः स्वात्मा सर्वेषामपि देहिनाम् ।
तदर्थमेव
सकलं जगद् एतत् चराचरम् ॥ ५४ ॥
कृष्णमेनमवेहि
त्वं आत्मानं अखिलात्मनाम् ।
जगद्धिताय
सोऽप्यत्र देहीवाभाति मायया ॥ ५५ ॥
वस्तुतो
जानतामत्र कृष्णं स्थास्नु चरिष्णु च ।
भगवद्
रूपमखिलं नान्यद् वस्त्विह किञ्चन ॥ ५६ ॥
सर्वेषामपि
वस्तूनां भावार्थो भवति स्थितः ।
तस्यापि
भगवान्कृष्णः किं अतद्वस्तु रूप्यताम् ॥ ५७ ॥
समाश्रिता
ये पदपल्लवप्लवं
महत्पदं
पुण्ययशो मुरारेः ।
भवाम्बुधिर्वत्सपदं
परं पदं
पदं
पदं यद् विपदां न तेषाम् ॥ ५८ ॥
एतत्ते
सर्वमाख्यातं यत् पृष्टोऽहमिह त्वया ।
यत्
कौमारे हरिकृतं पौगण्डे परिकीर्तितम् ॥ ५९ ॥
एतत्सुहृद्भिश्चरितं
मुरारेः
अघार्दनं
शाद्वलजेमनं च ।
व्यक्तेतरद्
रूपमजोर्वभिष्टवं
शृण्वन्
गृणन्नेति नरोऽखिलार्थान् ॥ ६० ॥
एवं
विहारैः कौमारैः कौमारं जहतुर्व्रजे ।
निलायनैः
सेतुबन्धैः मर्कटोत्प्लवनादिभिः ॥ ६१ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—राजन् ! संसार के सभी प्राणी अपने आत्मा से ही सबसे बढक़र प्रेम करते हैं।
पुत्रसे, धनसे या और किसीसे जो प्रेम होता है—वह तो इसलिये कि वे वस्तुएँ अपने आत्मा को प्रिय लगती हैं ॥ ५० ॥
राजेन्द्र ! यही कारण है कि सभी प्राणियोंका अपने आत्माके प्रति जैसा प्रेम होता
है, वैसा अपने कहलानेवाले पुत्र, धन और
गृह आदिमें नहीं होता ॥ ५१ ॥ नृपश्रेष्ठ ! जो लोग देहको ही आत्मा मानते हैं,
वे भी अपने शरीरसे जितना प्रेम करते हैं, उतना
प्रेम शरीरके सम्बन्धी पुत्र-मित्र आदिसे नहीं करते ॥ ५२ ॥ जब विचारके द्वारा यह
मालूम हो जाता है कि ‘यह शरीर मैं नहीं हूँ, यह शरीर मेरा है’ तब इस शरीरसे भी आत्माके समान
प्रेम नहीं रहता। यही कारण है कि इस देहके जीर्ण-शीर्ण हो जानेपर भी जीनेकी आशा
प्रबल रूपसे बनी रहती है ॥ ५३ ॥ इससे यह बात सिद्ध होती है कि सभी प्राणी अपने
आत्मासे ही सबसे बढक़र प्रेम करते हैं और उसीके लिये इस सारे चराचर जगत्से भी प्रेम
करते हैं ॥ ५४ ॥ इन श्रीकृष्णको ही तुम सब आत्माओंका आत्मा समझो । संसारके
कल्याणके लिये ही योगमायाका आश्रय लेकर वे यहाँ देहधारीके समान जान पड़ते हैं ॥ ५५
॥ जो लोग भगवान् श्रीकृष्णके वास्तविक स्वरूपको जानते हैं, उनके
लिये तो इस जगत्में जो कुछ भी चराचर पदार्थ हैं, अथवा इससे
परे परमात्मा, ब्रह्म, नारायण आदि जो
भगवत्स्वरूप हैं, सभी श्रीकृष्णस्वरूप ही हैं । श्रीकृष्णके
अतिरिक्त और कोई प्राकृत-अप्राकृत वस्तु है ही नहीं ॥ ५६ ॥ सभी वस्तुओंका अन्तमि
रूप अपने कारणमें स्थित होता है। उस कारणके भी परम कारण हैं भगवान् श्रीकृष्ण । तब
भला बताओ, किस वस्तुको श्रीकृष्णसे भिन्न बतलायें ॥ ५७ ॥
जिन्होंने पुण्यकीर्ति मुकुन्द मुरारीके पदपल्लव की नौका का आश्रय लिया है,जो कि सत्पुरुषों का सर्वस्व है,उनके लिये यह
भव-सागर बछड़े के खुर के गढ़े के समान है । उन्हें परमपदकी प्राप्ति हो जाती है और
उनके लिये विपत्तियों का निवासस्थान—यह संसार नहीं रहता ॥ ५८
॥
परीक्षित्
! तुमने मुझसे पूछा था कि भगवान् के पाँचवें वर्षकी लीला ग्वालबालों ने छठे वर्ष में
कैसे कही,
उसका सारा रहस्य मैंने तुम्हें बतला दिया ॥ ५९ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण की
ग्वालबालों के साथ वनक्रीड़ा, अघासुर को मारना, हरी-हरी घास से युक्त भूमिपर बैठकर भोजन करना, अप्राकृत-
रूपधारी बछड़ों और ग्वालबालों का प्रकट होना और ब्रह्माजी के द्वारा की हुई इस
महान् स्तुति को जो मनुष्य सुनता और कहता है—उस-उसको धर्म,
अर्थ, काम और मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है ॥
६० ॥ परीक्षित् ! इस प्रकार श्रीकृष्ण और बलराम ने कुमार-अवस्था के अनुरूप
आँखमिचौनी, सेतुबन्धन, बंदरों की भाँति
उछलना-कूदना आदि अनेकों लीलाएँ करके अपनी कुमार-अवस्था व्रजमें ही त्याग दी ॥ ६१ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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