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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
धेनुकासुर का उद्धार और
ग्वालबालों
को कालियनाग के विष से बचाना
श्रीशुक
उवाच
ततश्च
पौगण्डवयः श्रितौ व्रजे
बभूवतुस्तौ
पशुपालसम्मतौ
गाश्चारयन्तौ
सखिभिः समं पदैर्-
वृन्दावनं
पुण्यमतीव चक्रतुः ॥ १ ॥
तन्माधवो
वेणुमुदीरयन्वृतो
गोपैर्गृणद्भिः
स्वयशो बलान्वितः
पशून्पुरस्कृत्य
पशव्यमाविशद्-
विहर्तुकामः
कुसुमाकरं वनम् ॥ २ ॥
तन्मञ्जुघोषालिमृगद्विजाकुलं
महन्मनःप्रख्यपयःसरस्वता
वातेन
जुष्टं शतपत्रगन्धिना
निरीक्ष्य
रन्तुं भगवान्मनो दधे ॥ ३ ॥
स
तत्र तत्रारुणपल्लवश्रिया
फलप्रसूनोरुभरेण
पादयोः
स्पृशच्छिखान्वीक्ष्य
वनस्पतीन्मुदा
स्मयन्निवाहाग्रजमादिपूरुषः
॥ ४ ॥
श्रीभगवानुवाच
अहो
अमी देववरामरार्चितं
पादाम्बुजं
ते सुमनःफलार्हणम्
नमन्त्युपादाय
शिखाभिरात्मन-
स्तमोऽपहत्यै
तरुजन्म यत्कृतम् ॥ ५ ॥
एतेऽलिनस्तव
यशोऽखिललोकतीर्थं
गायन्त
आदिपुरुषानुपथं भजन्ते
प्रायो
अमी मुनिगणा भवदीयमुख्या
गूढं
वनेऽपि न जहत्यनघात्मदैवम् ॥ ६ ॥
नृत्यन्त्यमी
शिखिन ईड्य मुदा हरिण्यः
कुर्वन्ति
गोप्य इव ते प्रियमीक्षणेन
सूक्तैश्च
कोकिलगणा गृहमागताय
धन्या
वनौकस इयान्हि सतां निसर्गः ॥ ७ ॥
धन्येयमद्य
धरणी तृणवीरुधस्त्वत्
पादस्पृशो
द्रुमलताः करजाभिमृष्टाः
नद्योऽद्रयः
खगमृगाः सदयावलोकैर्
गोप्योऽन्तरेण
भुजयोरपि यत्स्पृहा श्रीः ॥ ८ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! अब बलराम और श्रीकृष्ण ने पौगण्ड-अवस्था में अर्थात् छठे
वर्षमें प्रवेश किया था । अब उन्हें गौएँ चरानेकी स्वीकृति मिल गयी । वे अपने सखा
ग्वालबालों के साथ गौएँ चराते हुए वृन्दावनमें जाते और अपने चरणों से वृन्दावन को
अत्यन्त पावन करते ॥ १ ॥ यह वन गौओं के लिये हरी-हरी घाससे युक्त एवं रंग-बिरंगे
पुष्पों की खान हो रहा था । आगे-आगे गौएँ, उनके पीछे-पीछे
बाँसुरी बजाते हुए श्यामसुन्दर, तदनन्तर बलराम और फिर
श्रीकृष्णके यशका गान करते हुए ग्वालबाल—इस प्रकार विहार
करनेके लिये उन्होंने उस वनमें प्रवेश किया ॥ २ ॥ उस वनमें कहीं तो भौंरे बड़ी
मधुर गुंजार कर रहे थे, कहीं झुंड-के-झुंड हरिन चौकड़ी भर
रहे थे और कहीं सुन्दर-सुन्दर पक्षी चहक रहे थे । बड़े ही सुन्दर-सुन्दर सरोवर थे,
जिनका जल महात्माओं के हृदय के समान स्वच्छ और निर्मल था । उनमें
खिले हुए कमलों के सौरभसे सुवासित होकर शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु उस वनकी सेवा कर रही
थी । इतना मनोहर था वह वन कि उसे देखकर भगवान् ने मन-ही-मन उसमें विहार करनेका
संकल्प किया ॥ ३ ॥ पुरुषोत्तम भगवान् ने देखा कि बड़े-बड़े वृक्ष फल और फूलोंके
भारसे झुककर अपनी डालियों और नूतन कोंपलों की लालिमा से उनके चरणोंका स्पर्श कर
रहे हैं, तब उन्होंने बड़े आनन्द से कुछ मुसकराते हुए-से
अपने बड़े भाई बलरामजी से कहा ॥ ४ ॥
भगवान्
श्रीकृष्णने कहा—देवशिरोमणे ! यों तो बड़े-बड़े देवता आपके चरणकमलोंकी पूजा करते हैं;
परंतु देखिये तो, ये वृक्ष भी अपनी डालियोंसे
सुन्दर पुष्प और फलोंकी सामग्री लेकर आपके चरणकमलोंमें झुक रहे हैं, नमस्कार कर रहे हैं । क्यों न हो, इन्होंने इसी
सौभाग्यके लिये तथा अपना दर्शन एवं श्रवण करनेवालोंके अज्ञानका नाश करनेके लिये ही
तो वृन्दावनधाममें वृक्ष-योनि ग्रहण की है । इनका जीवन धन्य है ॥ ५ ॥ आदिपुरुष !
यद्यपि आप इस वृन्दावनमें अपने ऐश्वर्यरूपको छिपाकर बालकोंकी-सी लीला कर रहे हैं,
फिर भी आपके श्रेष्ठ भक्त मुनिगण अपने इष्टदेवको पहचानकर यहाँ भी
प्राय: भौंरोंके रूपमें आपके भुवन-पावन यशका निरन्तर गान करते हुए आपके भजनमें लगे
रहते हैं । वे एक क्षणके लिये भी आपको नहीं छोडऩा चाहते ॥ ६ ॥ भाईजी ! वास्तवमें
आप ही स्तुति करने योग्य हैं । देखिये, आपको अपने घर आया देख
ये मोर आपके दर्शनोंसे आनन्दित होकर नाच रहे हैं । हरिनियाँ मृगनयनी गोपियोंके
समान अपनी प्रेमभरी तिरछी चितवनसे आपके प्रति प्रेम प्रकट कर रही हैं, आपको प्रसन्न कर रही हैं । ये कोयलें अपनी मधुर कुहू-कुहू ध्वनिसे आपका
कितना सुन्दर स्वागत कर रही हैं । ये वनवासी होनेपर भी धन्य हैं । क्योंकि
सत्पुरुषोंका स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे घर आये अतिथिको अपनी प्रिय-से-प्रिय
वस्तु भेंट कर देते हैं ॥ ७ ॥ आज यहाँकी भूमि अपनी हरी-हरी घासके साथ आपके चरणोंका
स्पर्श प्राप्त करके धन्य हो रही हैं । यहाँके वृक्ष, लताएँ
और झाडिय़ाँ आपकी अँगुलियोंका स्पर्श पाकर अपना अहोभाग्य मान रही हैं । आपकी दयाभरी
चितवन से नदी, पर्वत, पशु, पक्षी—सब कृतार्थ हो रहे हैं और व्रजकी गोपियाँ आपके
वक्ष:स्थल का स्पर्श प्राप्त करके, जिसके लिये स्वयं लक्ष्मी
भी लालायित रहती हैं, धन्य-धन्य हो रही हैं ॥ ८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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