शुक्रवार, 19 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

धेनुकासुर का उद्धार और

ग्वालबालों को कालियनाग के विष से बचाना

 

श्रीशुक उवाच

ततश्च पौगण्डवयः श्रितौ व्रजे

बभूवतुस्तौ पशुपालसम्मतौ

गाश्चारयन्तौ सखिभिः समं पदैर्-

वृन्दावनं पुण्यमतीव चक्रतुः ॥ १ ॥

तन्माधवो वेणुमुदीरयन्वृतो

गोपैर्गृणद्भिः स्वयशो बलान्वितः

पशून्पुरस्कृत्य पशव्यमाविशद्-

विहर्तुकामः कुसुमाकरं वनम् ॥ २ ॥

तन्मञ्जुघोषालिमृगद्विजाकुलं

महन्मनःप्रख्यपयःसरस्वता

वातेन जुष्टं शतपत्रगन्धिना

निरीक्ष्य रन्तुं भगवान्मनो दधे ॥ ३ ॥

स तत्र तत्रारुणपल्लवश्रिया

फलप्रसूनोरुभरेण पादयोः

स्पृशच्छिखान्वीक्ष्य वनस्पतीन्मुदा

स्मयन्निवाहाग्रजमादिपूरुषः ॥ ४ ॥

 

श्रीभगवानुवाच

अहो अमी देववरामरार्चितं

पादाम्बुजं ते सुमनःफलार्हणम्

नमन्त्युपादाय शिखाभिरात्मन-

स्तमोऽपहत्यै तरुजन्म यत्कृतम् ॥ ५ ॥

एतेऽलिनस्तव यशोऽखिललोकतीर्थं

गायन्त आदिपुरुषानुपथं भजन्ते

प्रायो अमी मुनिगणा भवदीयमुख्या

गूढं वनेऽपि न जहत्यनघात्मदैवम् ॥ ६ ॥

नृत्यन्त्यमी शिखिन ईड्य मुदा हरिण्यः

कुर्वन्ति गोप्य इव ते प्रियमीक्षणेन

सूक्तैश्च कोकिलगणा गृहमागताय

धन्या वनौकस इयान्हि सतां निसर्गः ॥ ७ ॥

धन्येयमद्य धरणी तृणवीरुधस्त्वत्

पादस्पृशो द्रुमलताः करजाभिमृष्टाः

नद्योऽद्रयः खगमृगाः सदयावलोकैर्

गोप्योऽन्तरेण भुजयोरपि यत्स्पृहा श्रीः ॥ ८ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अब बलराम और श्रीकृष्ण ने पौगण्ड-अवस्था में अर्थात् छठे वर्षमें प्रवेश किया था । अब उन्हें गौएँ चरानेकी स्वीकृति मिल गयी । वे अपने सखा ग्वालबालों के साथ गौएँ चराते हुए वृन्दावनमें जाते और अपने चरणों से वृन्दावन को अत्यन्त पावन करते ॥ १ ॥ यह वन गौओं के लिये हरी-हरी घाससे युक्त एवं रंग-बिरंगे पुष्पों की खान हो रहा था । आगे-आगे गौएँ, उनके पीछे-पीछे बाँसुरी बजाते हुए श्यामसुन्दर, तदनन्तर बलराम और फिर श्रीकृष्णके यशका गान करते हुए ग्वालबालइस प्रकार विहार करनेके लिये उन्होंने उस वनमें प्रवेश किया ॥ २ ॥ उस वनमें कहीं तो भौंरे बड़ी मधुर गुंजार कर रहे थे, कहीं झुंड-के-झुंड हरिन चौकड़ी भर रहे थे और कहीं सुन्दर-सुन्दर पक्षी चहक रहे थे । बड़े ही सुन्दर-सुन्दर सरोवर थे, जिनका जल महात्माओं के हृदय के समान स्वच्छ और निर्मल था । उनमें खिले हुए कमलों के सौरभसे सुवासित होकर शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु उस वनकी सेवा कर रही थी । इतना मनोहर था वह वन कि उसे देखकर भगवान्‌ ने मन-ही-मन उसमें विहार करनेका संकल्प किया ॥ ३ ॥ पुरुषोत्तम भगवान्‌ ने देखा कि बड़े-बड़े वृक्ष फल और फूलोंके भारसे झुककर अपनी डालियों और नूतन कोंपलों की लालिमा से उनके चरणोंका स्पर्श कर रहे हैं, तब उन्होंने बड़े आनन्द से कुछ मुसकराते हुए-से अपने बड़े भाई बलरामजी से कहा ॥ ४ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहादेवशिरोमणे ! यों तो बड़े-बड़े देवता आपके चरणकमलोंकी पूजा करते हैं; परंतु देखिये तो, ये वृक्ष भी अपनी डालियोंसे सुन्दर पुष्प और फलोंकी सामग्री लेकर आपके चरणकमलोंमें झुक रहे हैं, नमस्कार कर रहे हैं । क्यों न हो, इन्होंने इसी सौभाग्यके लिये तथा अपना दर्शन एवं श्रवण करनेवालोंके अज्ञानका नाश करनेके लिये ही तो वृन्दावनधाममें वृक्ष-योनि ग्रहण की है । इनका जीवन धन्य है ॥ ५ ॥ आदिपुरुष ! यद्यपि आप इस वृन्दावनमें अपने ऐश्वर्यरूपको छिपाकर बालकोंकी-सी लीला कर रहे हैं, फिर भी आपके श्रेष्ठ भक्त मुनिगण अपने इष्टदेवको पहचानकर यहाँ भी प्राय: भौंरोंके रूपमें आपके भुवन-पावन यशका निरन्तर गान करते हुए आपके भजनमें लगे रहते हैं । वे एक क्षणके लिये भी आपको नहीं छोडऩा चाहते ॥ ६ ॥ भाईजी ! वास्तवमें आप ही स्तुति करने योग्य हैं । देखिये, आपको अपने घर आया देख ये मोर आपके दर्शनोंसे आनन्दित होकर नाच रहे हैं । हरिनियाँ मृगनयनी गोपियोंके समान अपनी प्रेमभरी तिरछी चितवनसे आपके प्रति प्रेम प्रकट कर रही हैं, आपको प्रसन्न कर रही हैं । ये कोयलें अपनी मधुर कुहू-कुहू ध्वनिसे आपका कितना सुन्दर स्वागत कर रही हैं । ये वनवासी होनेपर भी धन्य हैं । क्योंकि सत्पुरुषोंका स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे घर आये अतिथिको अपनी प्रिय-से-प्रिय वस्तु भेंट कर देते हैं ॥ ७ ॥ आज यहाँकी भूमि अपनी हरी-हरी घासके साथ आपके चरणोंका स्पर्श प्राप्त करके धन्य हो रही हैं । यहाँके वृक्ष, लताएँ और झाडिय़ाँ आपकी अँगुलियोंका स्पर्श पाकर अपना अहोभाग्य मान रही हैं । आपकी दयाभरी चितवन से नदी, पर्वत, पशु, पक्षीसब कृतार्थ हो रहे हैं और व्रजकी गोपियाँ आपके वक्ष:स्थल का स्पर्श प्राप्त करके, जिसके लिये स्वयं लक्ष्मी भी लालायित रहती हैं, धन्य-धन्य हो रही हैं ॥ ८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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