श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
धेनुकासुर
का उद्धार और
ग्वालबालों
को कालियनाग के विष से बचाना
श्रीशुक
उवाच
एवं
वृन्दावनं श्रीमत्कृष्णः प्रीतमनाः पशून्
रेमे
सञ्चारयन्नद्रेः सरिद्रोधःसु सानुगः ॥ ९ ॥
क्वचिद्गायति
गायत्सु मदान्धालिष्वनुव्रतैः
उपगीयमानचरितः
पथि सङ्कर्षणान्वितः ॥ १० ॥
अनुजल्पति
जल्पन्तं कलवाक्यैः शुकं क्वचित्
क्वचित्सवल्गु
कूजन्तमनुकूजति कोकिलम्
क्वचिच्च
कालहंसानामनुकूजति कूजितम्
अभिनृत्यति
नृत्यन्तं बर्हिणं हासयन्क्वचित् ॥ ११ ॥
मेघगम्भीरया
वाचा नामभिर्दूरगान्पशून्
क्वचिदाह्वयति
प्रीत्या गोगोपालमनोज्ञया ॥ १२ ॥
चकोरक्रौञ्चचक्राह्व
भारद्वाजांश्च बर्हिणः
अनुरौति स्म सत्त्वानां
भीतवद्व्याघ्रसिंहयोः ॥ १३ ॥
क्वचित्क्रीडापरिश्रान्तं
गोपोत्सङ्गोपबर्हणम्
स्वयं
विश्रमयत्यार्यं पादसंवाहनादिभिः ॥ १४ ॥
नृत्यतो
गायतः क्वापि वल्गतो युध्यतो मिथः
गृहीतहस्तौ
गोपालान्हसन्तौ प्रशशंसतुः ॥ १५ ॥
क्वचित्पल्लवतल्पेषु
नियुद्धश्रमकर्शितः
वृक्षमूलाश्रयः
शेते गोपोत्सङ्गोपबर्हणः ॥ १६ ॥
पादसंवाहनं
चक्रुः केचित्तस्य महात्मनः
अपरे
हतपाप्मानो व्यजनैः समवीजयन् ॥ १७ ॥
अन्ये
तदनुरूपाणि मनोज्ञानि महात्मनः
गायन्ति
स्म महाराज स्नेहक्लिन्नधियः शनैः ॥ १८ ॥
एवं
निगूढात्मगतिः स्वमायया
गोपात्मजत्वं
चरितैर्विडम्बयन्
रेमे
रमालालितपादपल्लवो
ग्राम्यैः
समं ग्राम्यवदीशचेष्टितः ॥ १९ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! इस प्रकार परम सुन्दर वृन्दावनको देखकर भगवान् श्रीकृष्ण
बहुत ही आनन्दित हुए । वे अपने सखा ग्वालबालोंके साथ गोवर्धनकी तराईमें, यमुनातटपर गौओं को चराते हुए अनेकों प्रकार की लीलाएँ करने लगे ॥ ९ ॥ एक
ओर ग्वालबाल भगवान् श्रीकृष्ण के चरित्रों की मधुर तान छेड़े रहते हैं, तो दूसरी ओर बलरामजीके साथ वनमाला पहने हुए श्रीकृष्ण मतवाले भौंरोंकी
सुरीली गुनगुनाहट में अपना स्वर मिलाकर मधुर संगीत अलापने लगते हैं ॥ १० ॥ कभी-कभी
श्रीकृष्ण कूजते हुए राजहंसोंके साथ स्वयं भी कूजने लगते हैं और कभी नाचते हुए
मोरों के साथ स्वयं भी ठुमुक-ठुमुक नाचने लगते हैं और ऐसा नाचते हैं कि मयूर को
उपहासास्पद बना देते हैं ॥ ११ ॥ कभी मेघ के समान गम्भीर वाणी से दूर गये हुए पशुओं
को उनका नाम ले-लेकर बड़े प्रेम से पुकारते हैं । उनके कण्ठ की मधुर ध्वनि सुनकर
गायों और ग्वालबालोंका चित्त भी अपने वशमें नहीं रहता ॥ १२ ॥ कभी चकोर, क्रौंच (कराँकुल), चकवा, भरदूल
और मोर आदि पक्षियोंकी-सी बोली बोलते तो कभी बाघ, सिंह आदिकी
गर्जना से डरे हुए जीवोंके समान स्वयं भी भयभीतकी-सी लीला करते ॥ १३ ॥ जब बलरामजी
खेलते-खेलते थककर किसी ग्वालबालकी गोदके तकियेपर सिर रखकर लेट जाते, तब श्रीकृष्ण उनके पैर दबाने लगते, पंखा झलने लगते
और इस प्रकार अपने बड़े भाईकी थकावट दूर करते ॥ १४ ॥ जब ग्वालबाल नाचने-गाने लगते
अथवा ताल ठोंक-ठोंककर एक-दूसरेसे कुश्ती लडऩे लगते, तब श्याम
और राम दोनों भाई हाथमें हाथ डालकर खड़े हो जाते और हँस-हँसकर ‘वाह-वाह’ करते ॥ १५ ॥ कभी-कभी स्वयं श्रीकृष्ण भी
ग्वालबालोंके साथ कुश्ती लड़ते-लड़ते थक जाते तथा किसी सुन्दर वृक्षके नीचे कोमल
पल्लवोंकी सेजपर किसी ग्वालबाल की गोद में सिर रखकर लेट जाते ॥ १६ ॥ परीक्षित् !
उस समय कोई-कोई पुण्यके मूर्तिमान् स्वरूप ग्वालबाल महात्मा श्रीकृष्णके चरण दबाने
लगते और दूसरे निष्पाप बालक उन्हें बड़े-बड़े पत्तों या अँगोछियों से पंखा झलने
लगते ॥ १७ ॥ किसी-किसी के हृदयमें प्रेमकी धारा उमड़ आती तो वह धीरे-धीरे
उदारशिरोमणि परममनस्वी श्रीकृष्णकी लीलाओंके अनुरूप उनके मनको प्रिय लगनेवाले
मनोहर गीत गाने लगता ॥ १८ ॥ भगवान् ने इस प्रकार अपनी योगमायासे अपने ऐश्वर्यमय
स्वरूपको छिपा रखा था । वे ऐसी लीलाएँ करते, जो ठीक-ठीक गोपबालकोंकी-सी
ही मालूम पड़तीं । स्वयं भगवती लक्ष्मी जिनके चरणकमलोंकी सेवामें संलग्र रहती हैं,
वे ही भगवान् इन ग्रामीण बालकोंके साथ बड़े प्रेमसे ग्रामीण खेल
खेला करते थे । परीक्षित् ! ऐसा होनेपर भी कभी-कभी उनकी ऐश्वर्यमयी लीलाएँ भी
प्रकट हो जाया करतीं ॥ १९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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