शनिवार, 20 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

धेनुकासुर का उद्धार और

ग्वालबालों को कालियनाग के विष से बचाना

 

श्रीदामा नाम गोपालो रामकेशवयोः सखा

सुबलस्तोककृष्णाद्या गोपाः प्रेम्णेदमब्रुवन् ॥ २० ॥

राम राम महाबाहो कृष्ण दुष्टनिबर्हण

इतोऽविदूरे सुमहद्वनं तालालिसङ्कुलम् ॥ २१ ॥

फलानि तत्र भूरीणि पतन्ति पतितानि च

सन्ति किन्त्ववरुद्धानि धेनुकेन दुरात्मना ॥ २२ ॥

सोऽतिवीर्योऽसुरो राम हे कृष्ण खररूपधृक्

आत्मतुल्यबलैरन्यैर्ज्ञातिभिर्बहुभिर्वृतः ॥ २३ ॥

तस्मात्कृतनराहाराद्भीतैर्नृभिरमित्रहन्

न सेव्यते पशुगणैः पक्षिसङ्घैर्विवर्जितम् ॥ २४ ॥

विद्यन्तेऽभुक्तपूर्वाणि फलानि सुरभीणि च

एष वै सुरभिर्गन्धो विषूचीनोऽवगृह्यते ॥ २५ ॥

प्रयच्छ तानि नः कृष्ण गन्धलोभितचेतसाम्

वाञ्छास्ति महती राम गम्यतां यदि रोचते ॥ २६ ॥

एवं सुहृद्वचः श्रुत्वा सुहृत्प्रियचिकीर्षया

प्रहस्य जग्मतुर्गोपैर्वृतौ तालवनं प्रभू ॥ २७ ॥

बलः प्रविश्य बाहुभ्यां तालान्सम्परिकम्पयन्

फलानि पातयामास मतङ्गज इवौजसा ॥ २८ ॥

फलानां पततां शब्दं निशम्यासुररासभः

अभ्यधावत्क्षितितलं सनगं परिकम्पयन् ॥ २९ ॥

समेत्य तरसा प्रत्यग्द्वाभ्यां पद्भ्यां बलं बली

निहत्योरसि काशब्दं मुञ्चन्पर्यसरत्खलः ॥ ३० ॥

पुनरासाद्य संरब्ध उपक्रोष्टा पराक्स्थितः

चरणावपरौ राजन्बलाय प्राक्षिपद्रुषा ॥ ३१ ॥

स तं गृहीत्वा प्रपदोर्भ्रामयित्वैकपाणिना

चिक्षेप तृणराजाग्रे भ्रामणत्यक्तजीवितम् ॥ ३२ ॥

तेनाहतो महातालो वेपमानो बृहच्छिराः

पार्श्वस्थं कम्पयन्भग्नः स चान्यं सोऽपि चापरम् ॥ ३३ ॥

बलस्य लीलयोत्सृष्ट खरदेहहताहताः

तालाश्चकम्पिरे सर्वे महावातेरिता इव ॥ ३४ ॥

नैतच्चित्रं भगवति ह्यनन्ते जगदीश्वरे

ओतप्रोतमिदं यस्मिंस्तन्तुष्वङ्ग यथा पटः ॥ ३५ ॥

ततः कृष्णं च रामं च ज्ञातयो धेनुकस्य ये

क्रोष्टारोऽभ्यद्रवन्सर्वे संरब्धा हतबान्धवाः ॥ ३६ ॥

तांस्तानापततः कृष्णो रामश्च नृपलीलया

गृहीतपश्चाच्चरणान्प्राहिणोत्तृणराजसु ॥ ३७ ॥

फलप्रकरसङ्कीर्णं दैत्यदेहैर्गतासुभिः

रराज भूः सतालाग्रैर्घनैरिव नभस्तलम् ॥ ३८ ॥

तयोस्तत्सुमहत्कर्म निशम्य विबुधादयः

मुमुचुः पुष्पवर्षाणि चक्रुर्वाद्यानि तुष्टुवुः ॥ ३९ ॥

अथ तालफलान्यादन्मनुष्या गतसाध्वसाः

तृणं च पशवश्चेरुर्हतधेनुककानने ॥ ४० ॥

 

बलरामजी और श्रीकृष्णके सखाओंमें एक प्रधान गोप बालक थे श्रीदामा । एक दिन उन्होंने तथा सुबल और स्तोककृष्ण (छोटे कृष्ण) आदि ग्वालबालोंने श्याम और रामसे बड़े प्रेमके साथ कहा॥ २० ॥ हमलोगोंको सर्वदा सुख पहुँचानेवाले बलरामजी ! आपके बाहु-बलकी तो कोई थाह ही नहीं है । हमारे मनमोहन श्रीकृष्ण ! दुष्टोंको नष्ट कर डालना तो तुम्हारा स्वभाव ही है । यहाँसे थोड़ी ही दूरपर एक बड़ा भारी वन है । बस, उसमें पाँत-के-पाँत ताडक़े वृक्ष भरे पड़े हैं ॥ २१ ॥ वहाँ बहुत-से ताडक़े फल पक-पककर गिरते रहते हैं और बहुत-से पहलेके गिरे हुए भी हैं । परंतु वहाँ धेनुक नामका एक दुष्ट दैत्य रहता है । उसने उन फलोंपर रोक लगा रखी है ॥ २२ ॥ बलरामजी और भैया श्रीकृष्ण ! वह दैत्य गधेके रूपमें रहता है । वह स्वयं तो बड़ा बलवान है ही, उसके साथी और भी बहुत-से उसीके समान बलवान् दैत्य उसी रूपमें रहते हैं ॥ २३ ॥ मेरे शत्रुघाती भैया ! उस दैत्यने अबतक न जाने कितने मनुष्य खा डाले हैं । यही कारण है कि उसके डरके मारे मनुष्य उसका सेवन नहीं करते और पशु-पक्षी भी उस जंगलमें नहीं जाते ॥ २४ ॥ उसके फल हैं तो बड़े सुगन्धित, परंतु हमने कभी नहीं खाये । देखो न, चारों ओर उन्हींकी मन्द-मन्द सुगन्ध फैल रही है । तनिक-सा ध्यान देनेसे उसका रस मिलने लगता है ॥ २५ ॥ श्रीकृष्ण ! उनकी सुगन्धसे हमारा मन मोहित हो गया है और उन्हें पानेके लिये मचल रहा है । तुम हमें वे फल अवश्य खिलाओ । दाऊ दादा ! हमें उन फलोंकी बड़ी उत्कट अभिलाषा है । आपको रुचे तो वहाँ अवश्य चलिये ॥ २६ ॥

 

अपने सखा ग्वालबालोंकी यह बात सुनकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी दोनों हँसे और फिर उन्हें प्रसन्न करनेके लिये उनके साथ तालवनके लिये चल पड़े ॥ २७ ॥ उस वनमें पहुँचकर बलरामजीने अपनी बाँहोंसे उन ताडक़े पेड़ोंको पकड़ लिया और मतवाले हाथीके बच्चेके समान उन्हें बड़े जोरसे हिलाकर बहुत-से फल नीचे गिरा दिये ॥ २८ ॥ जब गधे के रूपमें रहनेवाले दैत्यने फलोंके गिरनेका शब्द सुना, तब वह पर्वतोंके साथ सारी पृथ्वीको कँपाता हुआ उनकी ओर दौड़ा ॥ २९ ॥ वह बड़ा बलवान् था । उसने बड़े वेगसे बलरामजीके सामने आकर अपने पिछले पैरोंसे उनकी छातीमें दुलत्ती मारी और इसके बाद वह दुष्ट बड़े जोरसे रेंकता हुआ वहाँसे हट गया ॥ ३० ॥ राजन् ! वह गधा क्रोधमें भरकर फिर रेंकता हुआ दूसरी बार बलरामजीके पास पहुँचा और उनकी ओर पीठ करके फिर बड़े क्रोधसे अपने पिछले पैरोंकी दुलत्ती चलायी ॥ ३१ ॥ बलरामजीने अपने एक ही हाथसे उसके दोनों पैर पकड़ लिये और उसे आकाशमें घुमाकर एक ताडक़े पेड़पर दे मारा । घुमाते समय ही उस गधेके प्राणपखेरू उड़ गये थे ॥ ३२ ॥ उसके गिरनेकी चोटसे वह महान् ताडक़ा वृक्षजिसका ऊपरी भाग बहुत विशाल थास्वयं तो तड़तड़ाकर गिर ही पड़ा, सटे हुए दूसरे वृक्षको भी उसने तोड़ डाला । उसने तीसरेको, तीसरेने चौथेकोइस प्रकार एक-दूसरेको गिराते हुए बहुत-से तालवृक्ष गिर पड़े ॥ ३३ ॥ बलरामजीके लिये तो यह एक खेल था । परंतु उनके द्वारा फेंके हुए गधेके शरीरसे चोट खा-खाकर वहाँ सब-के-सब ताड़ हिल गये । ऐसा जान पड़ा, मानो सबको झंझावातने झकझोर दिया हो ॥ ३४ ॥ भगवान्‌ बलराम स्वयं जगदीश्वर हैं । उनमें यह सारा संसार ठीक वैसे ही ओतप्रोत है, जैसे सूतोंमें वस्त्र । तब भला, उनके लिये यह कौन आश्चर्यकी बात है ॥ ३५ ॥ उस समय धेनुकासुरके भाई-बन्धु अपने भाईके मारे जानेसे क्रोधके मारे आगबबूला हो गये । सब-के-सब गधे बलरामजी और श्रीकृष्णपर बड़े वेगसे टूट पड़े ॥ ३६ ॥ राजन् ! उनमेंसे जो-जो पास आया, उसी-उसीको बलरामजी और श्रीकृष्णने खेल-खेलमें ही पिछले पैर पकडक़र तालवृक्षों पर दे मारा ॥ ३७ ॥ उस समय वह भूमि ताडक़े फलों से पट गयी और टूटे हुए वृक्ष तथा दैत्यों के प्राणहीन शरीरोंसे भर गयी । जैसे बादलों से आकाश ढक गया हो, उस भूमिकी वैसी ही शोभा होने लगी ॥ ३८ ॥ बलरामजी और श्रीकृष्णकी यह मङ्गलमयी लीला देखकर देवतागण उनपर फूल बरसाने लगे और बाजे बजा-बजाकर स्तुति करने लगे ॥ ३९ ॥ जिस दिन धेनुकासुर मरा, उसी दिन से लोग निडर होकर उस वन के तालफल खाने लगे तथा पशु भी स्वच्छन्दता के साथ घास चरने लगे॥४० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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