॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
धेनुकासुर
का उद्धार और
ग्वालबालों
को कालियनाग के विष से बचाना
कृष्णः
कमलपत्राक्षः पुण्यश्रवणकीर्तनः
स्तूयमानोऽनुगैर्गोपैः
साग्रजो व्रजमाव्रजत् ॥ ४१ ॥
तं
गोरजश्छुरितकुन्तलबद्धबर्ह
वन्यप्रसूनरुचिरेक्षणचारुहासम्
वेणुम्क्वणन्तमनुगैरुपगीतकीर्तिं
गोप्यो
दिदृक्षितदृशोऽभ्यगमन्समेताः ॥ ४२ ॥
पीत्वा
मुकुन्दमुखसारघमक्षिभृङ्गैस्
तापं
जहुर्विरहजं व्रजयोषितोऽह्नि
तत्सत्कृतिं
समधिगम्य विवेश गोष्ठं
सव्रीडहासविनयं
यदपाङ्गमोक्षम् ॥ ४३ ॥
तयोर्यशोदारोहिण्यौ
पुत्रयोः पुत्रवत्सले
यथाकामं
यथाकालं व्यधत्तां परमाशिषः ॥ ४४ ॥
गताध्वानश्रमौ
तत्र मज्जनोन्मर्दनादिभिः
नीवीं
वसित्वा रुचिरां दिव्यस्रग्गन्धमण्डितौ ॥ ४५ ॥
जनन्युपहृतं
प्राश्य स्वाद्वन्नमुपलालितौ
संविश्य
वरशय्यायां सुखं सुषुपतुर्व्रजे ॥ ४६ ॥
एवं
स भगवान्कृष्णो वृन्दावनचरः क्वचित्
ययौ
राममृते राजन्कालिन्दीं सखिभिर्वृतः ॥ ४७ ॥
अथ
गावश्च गोपाश्च निदाघातपपीडिताः
दुष्टं
जलं पपुस्तस्यास्तृष्णार्ता विषदूषितम् ॥ ४८ ॥
विषाम्भस्तदुपस्पृश्य
दैवोपहतचेतसः
निपेतुर्व्यसवः
सर्वे सलिलान्ते कुरूद्वह ॥ ४९ ॥
वीक्ष्य
तान्वै तथाभूतान्कृष्णो योगेश्वरेश्वरः
ईक्षयामृतवर्षिण्या
स्वनाथान्समजीवयत् ॥ ५० ॥
ते
सम्प्रतीतस्मृतयः समुत्थाय जलान्तिकात्
आसन्सुविस्मिताः
सर्वे वीक्षमाणाः परस्परम् ॥ ५१ ॥
अन्वमंसत
तद्राजन्गोविन्दानुग्रहेक्षितम्
पीत्वा
विषं परेतस्य पुनरुत्थानमात्मनः ॥ ५२ ॥
इसके
बाद कमलदललोचन भगवान् श्रीकृष्ण बड़े भाई बलरामजीके साथ व्रजमें आये । उस समय
उनके साथी ग्वालबाल उनके पीछे-पीछे चलते हुए उनकी स्तुति करते जाते थे । क्यों न
हो;
भगवान् की लीलाओं का श्रवण-कीर्तन ही सबसे बढक़र पवित्र जो है ॥ ४१
॥ उस समय श्रीकृष्ण की घुँघराली अलकों पर गौओं के खुरों से उड़-उडक़र धूलि पड़ी हुई
थी, सिरपर मोरपंख का मुकुट था और बालोंमें सुन्दर-सुन्दर
जंगली पुष्प गुँथे हुए थे । उनके नेत्रों में मधुर चितवन और मुखपर मनोहर मुसकान थी
। वे मधुर-मधुर मुरली बजा रहे थे और साथी ग्वालबाल उनकी ललित कीर्ति का गान कर रहे
थे । वंशीकी ध्वनि सुनकर बहुत-सी गोपियाँ एक साथ ही व्रजसे बाहर निकल आयीं । उनकी
आँखें न जाने कबसे श्रीकृष्णके दर्शनके लिये तरस रही थीं ॥ ४२ ॥ गोपियोंने अपने
नेत्ररूप भ्रमरोंसे भगवान्के मुखारविन्दका मकरन्द-रस पान करके दिनभरके विरहकी जलन
शान्त की । और भगवान्ने भी उनकी लाजभरी हँसी तथा विनयसे युक्त प्रेमभरी तिरछी
चितवनका सत्कार स्वीकार करके व्रजमें प्रवेश किया ॥ ४३ ॥ उधर यशोदामैया और
रोहिणीजीका हृदय वात्सल्यस्नेहसे उमड़ रहा था । उन्होंने श्याम और रामके घर
पहुँचते ही उनकी इच्छाके अनुसार तथा समयके अनुरूप पहलेसे ही सोच-सँजोकर रखी हुई
वस्तुएँ उन्हें खिलायीं- पिलायीं और पहनायीं ॥ ४४ ॥ माताओंने तेल-उबटन आदि लगाकर
स्नान कराया । इससे उनकी दिनभर घूमने-फिरनेकी मार्गकी थकान दूर हो गयी । फिर
उन्होंने सुन्दर वस्त्र पहनाकर दिव्य पुष्पोंकी माला पहनायी तथा चन्दन लगाया ॥ ४५
॥ तत्पश्चात् दोनों भाइयोंने माताओंका परोसा हुआ स्वादिष्ट अन्न भोजन किया । इसके
बाद बड़े लाड़-प्यार से दुलार-दुलार कर यशोदा और रोहिणी ने उन्हें सुन्दर शय्यापर
सुलाया । श्याम और राम बड़े आरामसे सो गये ॥ ४६ ॥
भगवान्
श्रीकृष्ण इस प्रकार वृन्दावन में अनेकों लीलाएँ करते । एक दिन अपने सखा ग्वाल
बालों के साथ वे यमुनातटपर गये । राजन् ! उस दिन बलरामजी उनके साथ नहीं थे ॥ ४७ ॥
उस समय जेठ-आषाढक़े घामसे गौएँ और ग्वालबाल अत्यन्त पीडि़त हो रहे थे । प्यास से
उनका कण्ठ सूख रहा था । इसलिये उन्होंने यमुनाजीका विषैला जल पी लिया ॥ ४८ ॥
परीक्षित् ! होनहार के वश उन्हें इस बात का ध्यान ही नहीं रहा था । उस विषैले जल के
पीते ही सब गौएँ और ग्वालबाल प्राणहीन होकर यमुनाजीके तटपर गिर पड़े ॥ ४९ ॥ उन्हें
ऐसी अवस्थामें देखकर योगेश्वरों के भी ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णने अपनी अमृत बरसानेवाली
दृष्टिसे उन्हें जीवित कर दिया । उनके स्वामी और सर्वस्व तो एकमात्र श्रीकृष्ण ही
थे ॥ ५० ॥ परीक्षित् ! चेतना आने पर वे सब यमुनाजी के तटपर उठ खड़े हुए और
आश्चर्यचकित होकर एक-दूसरे की ओर देखने लगे ॥ ५१ ॥राजन् ! अन्त में उन्होंने यही
निश्चय किया कि हम लोग विषैला जल पी लेने के कारण मर चुके थे,परंतु हमारे श्रीकृष्ण ने अपनी अनुग्रहभरी दृष्टि से देखकर हमें फिर से
जिला दिया है॥५२॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे
धेनुकवधो
नाम पञ्चदशोऽध्यायः
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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