॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
कालिय
पर कृपा
श्रीशुक
उवाच ।
विलोक्य
दूषितां कृष्णां कृष्णः कृष्णाहिना विभुः ।
तस्या
विशुद्धिमन्विच्छन्सर्पं तमुदवासयत् ॥ १ ॥
श्रीराजोवाच
।
कथमन्तर्जलेऽगाधे
न्यगृह्णाद् भगवानहिम् ।
स
वै बहुयुगावासं यथाऽऽसीद् विप्र कथ्यताम् ॥ २ ॥
ब्रह्मन्भगवतस्तस्य
भूम्नः स्वच्छन्दवर्तिनः ।
गोपालोदारचरितं
कस्तृप्येतामृतं जुषन् ॥ ३ ॥
श्रीशुक
उवाच ।
कालिन्द्यां
कालियस्यासीद् ह्रदः कश्चिद् विषाग्निना ।
श्रप्यमाणपया
यस्मिन् पतन्त्युपरिगाः खगाः ॥ ४ ॥
विप्रुष्मता
विषदोर्मि मारुतेनाभिमर्शिताः ।
म्रियन्ते
तीरगा यस्य प्राणिनः स्थिरजङ्गमाः ॥ ५ ॥
तं
चण्डवेगविषवीर्यमवेक्ष्य तेन
दुष्टां
नदीं च खलसंयमनावतारः ।
कृष्णः
कदम्बमधिरुह्य ततोऽतितुङ्गम्
आस्फोट्य
गाढरशनो न्यपतद् विषोदे ॥ ६ ॥
सर्पह्रदः
पुरुषसारनिपातवेग
संक्षोभितोरगविषोच्छ्वसिताम्बुराशिः
।
पर्यक्प्लुतो
विषकषायबिभीषणोर्मिः
धावन्
धनुःशतमनन्तबलस्य किं तत् ॥ ७ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि महाविषधर कालिय नाग ने यमुनाजी
का जल विषैला कर दिया है । तब यमुनाजीको शुद्ध करनेके विचारसे उन्होंने वहाँ से उस
सर्प को निकाल दिया ॥ १ ॥
राजा
परीक्षित् ने पूछा—ब्रह्मन् ! भगवान् श्रीकृष्णने यमुनाजीके अगाध जलमें किस प्रकार उस
सर्पका दमन किया ? फिर कालिय नाग तो जलचर जीव नहीं था,
ऐसी दशामें वह अनेक युगोंतक जलमें क्यों और कैसे रहा ? सो बतलाइये ॥ २ ॥ ब्रह्मस्वरूप महात्मन् ! भगवान् अनन्त हैं । वे अपनी
लीला प्रकट करके स्वच्छन्द विहार करते हैं । गोपालरूप से उन्होंने जो उदार लीला की
है, वह तो अमृतस्वरूप है । भला, उसके
सेवनसे कौन तृप्त हो सकता है ? ॥ ३ ॥
श्रीशुकदेवजी
ने कहा—परीक्षित् ! यमुनाजी में कालिय नाग का एक कुण्ड था। उसका जल विष की गर्मी
से खौलता रहता था। यहाँतक कि उसके ऊपर उडऩेवाले पक्षी भी झुलसकर उसमें गिर जाया
करते थे ॥ ४ ॥ उसके विषैले जलकी उत्ताल तरङ्गों का स्पर्श करके तथा उसकी छोटी-छोटी
बूँदें लेकर जब वायु बाहर आती और तटके घास-पात, वृक्ष,
पशु-पक्षी आदिका स्पर्श करती, तब वे उसी समय
मर जाते थे ॥ ५ ॥ परीक्षित् ! भगवान् का अवतार तो दुष्टों का दमन करनेके लिये
होता ही है। जब उन्होंने देखा कि उस साँपके विष का वेग बड़ा प्रचण्ड (भयंकर) है और
वह भयानक विष ही उसका महान् बल है तथा उसके कारण मेरे विहारका स्थान यमुनाजी भी
दूषित हो गयी हैं, तब भगवान् श्रीकृष्ण अपनी कमरका फेंटा
कसकर एक बहुत ऊँचे कदम्बके वृक्षपर चढ़ गये और वहाँसे ताल ठोंककर उस विषैले जलमें
कूद पड़े ॥ ६ ॥ यमुनाजीका जल साँपके विषके कारण पहले से ही खौल रहा था। उसकी
तरङ्गें लाल-पीली और अत्यन्त भयङ्कर उठ रही थीं। पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णके
कूद पडऩेसे उसका जल और भी उछलने लगा। उस समय तो कालियदह का जल इधर-उधर उछलकर चार
सौ हाथतक फैल गया। अचिन्त्य अनन्त बलशाली भगवान् श्रीकृष्णके लिये इसमें कोई
आश्चर्यकी बात नहीं है ॥ ७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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