मंगलवार, 2 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

गोकुलसे वृन्दावन जाना तथा वत्सासुर और बकासुर का उद्धार

कदाचिद् यमुनातीरे वत्सान् चारयतोः स्वकैः ।
वयस्यैः कृष्णबलयोः जिघांसुर्दैत्य आगमत् ॥ ४१ ॥
तं वत्सरूपिणं वीक्ष्य वत्सयूथगतं हरिः ।
दर्शयन् बलदेवाय शनैर्मुग्ध इवासदत् ॥ ४२ ॥
गृहीत्वा अपरपादाभ्यां सहलाङ्‌गूलमच्युतः ।
भ्रामयित्वा कपित्थाग्रे प्राहिणोद् गतजीवितम् ।
स कपित्थैर्महाकायः पात्यमानैः पपात ह ॥ ४३ ॥
तं वीक्ष्य विस्मिता बालाः शशंसुः साधु साध्विति ।
देवाश्च परिसन्तुष्टा बभूवुः पुष्पवर्षिणः ॥ ४४ ॥
तौ वत्सपालकौ भूत्वा सर्वलोकैकपालकौ ।
सप्रातराशौ गोवत्सान् चारयन्तौ विचेरतुः ॥ ४५ ॥
स्वं स्वं वत्सकुलं सर्वे पाययिष्यन्त एकदा ।
गत्वा जलाशयाभ्याशं पाययित्वा पपुर्जलम् ॥ ४६ ॥
ते तत्र ददृशुर्बाला महासत्त्वमवस्थितम् ।
तत्रसुर्वज्रनिर्भिन्नं गिरेः शृङ्‌गमिव च्युतम् ॥ ४७ ॥
स वै बको नाम महानसुरो बकरूपधृक् ।
आगत्य सहसा कृष्णं तीक्ष्णतुण्डोऽग्रसद्‍बली ॥ ४८ ॥
कृष्णं महाबकग्रस्तं दृष्ट्वा रामादयोऽर्भकाः ।
बभूवुरिन्द्रियाणीव विना प्राणं विचेतसः ॥ ४९ ॥
तं तालुमूलं प्रदहन्तमग्निवद्
गोपालसूनुं पितरं जगद्‍गुरोः ।
चच्छर्द सद्योऽतिरुषाक्षतं बकः
तुण्डेन हन्तुं पुनरभ्यपद्यत ॥ ५० ॥
तं आपतन्तं स निगृह्य तुण्डयोः
दोर्भ्यां बकं कंससखं सतां पतिः ।
पश्यत्सु बालेषु ददार लीलया
मुदावहो वीरणवद् दिवौकसाम् ॥ ५१ ॥
तदा बकारिं सुरलोकवासिनः
समाकिरन् नन्दनमल्लिकादिभिः ।
समीडिरे चानकशङ्‌खसंस्तवैः
तद्वीक्ष्य गोपालसुता विसिस्मिरे ॥ ५२ ॥
मुक्तं बकास्याद् उपलभ्य बालका
रामादयः प्राणमिवेन्द्रियो गणः ।
स्थानागतं तं परिरभ्य निर्वृताः
प्रणीय वत्सान् व्रजमेत्य तज्जगुः ॥ ५३ ॥

एक दिनकी बात है, श्याम और बलराम अपने प्रेमी सखा ग्वालबालोंके साथ यमुनातटपर बछड़े चरा रहे थे । उसी समय उन्हें मारनेकी नीयतसे एक दैत्य आया ॥ ४१ ॥ भगवान्‌ने देखा कि वह बनावटी बछड़ेका रूप धारणकर बछड़ोंके झुंडमें मिल गया है । वे आँखोंके इशारेसे बलरामजीको दिखाते हुए धीरे-धीरे उसके पास पहुँच गये । उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो वे दैत्यको तो पहचानते नहीं और उस हट्टे-कट्टे सुन्दर बछड़ेपर मुग्ध हो गये हैं ॥ ४२ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने पूँछके साथ उसके दोनों पिछले पैर पकडक़र आकाशमें घुमाया और मर जानेपर कैथके वृक्षपर पटक दिया । उसका लंबा-तगड़ा दैत्यशरीर बहुत-से कैथके वृक्षोंको गिराकर स्वयं भी गिर पड़ा ॥ ४३ ॥ यह देखकर ग्वालबालोंके आश्चर्यकी सीमा न रही । वे वाह-वाहकरके प्यारे कन्हैयाकी प्रशंसा करने लगे । देवता भी बड़े आनन्दसे फूलोंकी वर्षा करने लगे ॥ ४४ ॥
परीक्षित्‌ ! जो सारे लोकोंके एकमात्र रक्षक हैं, वे ही श्याम और बलराम अब वत्सपाल (बछड़ोंके चरवाहे) बने हुए हैं । वे तडक़े ही उठकर कलेवेकी सामग्री ले लेते और बछड़ोंको चराते हुए एक वनसे दूसरे वनमें घूमा करते ॥ ४५ ॥ एक दिनकी बात है, सब ग्वालबाल अपने झुंड-के- झुंड बछड़ोंको पानी पिलानेके लिये जलाशयके तटपर ले गये । उन्होंने पहले बछड़ोंको जल पिलाया और फिर स्वयं भी पिया ॥ ४६ ॥ ग्वालबालोंने देखा कि वहाँ एक बहुत बड़ा जीव बैठा हुआ है । वह ऐसा मालूम पड़ता था, मानो इन्द्रके वज्रसे कटकर कोई पहाडक़ा टुकड़ा गिरा हुआ है ॥ ४७ ॥ ग्वालबाल उसे देखकर डर गये । वह बकनामका एक बड़ा भारी असुर था, जो बगुलेका रूप धरके वहाँ आया था । उसकी चोंच बड़ी तीखी थी और वह स्वयं बड़ा बलवान् था । उसने झपटकर श्रीकृष्णको निगल लिया ॥ ४८ ॥ जब बलराम आदि बालकोंने देखा कि वह बड़ा भारी बगुला श्रीकृष्णको निगल गया, तब उनकी वही गति हुई जो प्राण निकल जानेपर इन्द्रियोंकी होती है । वे अचेत हो गये ॥ ४९ ॥ परीक्षित्‌ ! श्रीकृष्ण लोकपितामह ब्रह्माके भी पिता हैं । वे लीलासे ही गोपाल-बालक बने हुए हैं । जब वे बगुलेके तालुके नीचे पहुँचे, तब वे आगके समान उसका तालु जलाने लगे । अत: उस दैत्यने श्रीकृष्णके शरीरपर बिना किसी प्रकारका घाव किये ही झटपट उन्हें उगल दिया और फिर बड़े क्रोधसे अपनी कठोर चोंचसे उनपर चोट करनेके लिये टूट पड़ा ॥ ५० ॥ कंसका सखा बकासुर अभी भक्तवत्सल भगवान्‌ श्रीकृष्णपर झपट ही रहा था कि उन्होंने अपने दोनों हाथोंसे उसके दोनों ठोर पकड़ लिये और ग्वालबालोंके देखते-देखते खेल-ही-खेलमें उसे वैसे ही चीर डाला, जैसे कोई वीरण (गाँडऱ, जिसकी जडक़ा खस होता है) को चीर डाले । इससे देवताओंको बड़ा आनन्द हुआ ॥ ५१ ॥ सभी देवता भगवान्‌ श्रीकृष्णपर नन्दनवनके बेला, चमेली आदिके फूल बरसाने लगे तथा नगारे, शङ्ख आदि बजाकर एवं स्तोत्रोंके द्वारा उनको प्रसन्न करने लगे । यह सब देखकर सब-के-सब ग्वालबाल आश्चर्यचकित हो गये ॥ ५२ ॥ जब बलराम आदि बालकोंने देखा कि श्रीकृष्ण बगुलेके मुँह से निकलकर हमारे पास आ गये हैं, तब उन्हें ऐसा आनन्द हुआ मानो प्राणोंके सञ्चारसे इन्द्रियाँ सचेत और आनन्दित हो गयी हों । सबने भगवान्‌ को अलग-अलग गले लगाया। इसके बाद अपने-अपने बछड़े हाँककर सब व्रज में आये और वहाँ उन्होंने घरके लोगोंसे सारी घटना कह सुनायी ॥ ५३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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