॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
गोकुलसे
वृन्दावन जाना तथा वत्सासुर और बकासुर का उद्धार
कदाचिद्
यमुनातीरे वत्सान् चारयतोः स्वकैः ।
वयस्यैः
कृष्णबलयोः जिघांसुर्दैत्य आगमत् ॥ ४१ ॥
तं
वत्सरूपिणं वीक्ष्य वत्सयूथगतं हरिः ।
दर्शयन्
बलदेवाय शनैर्मुग्ध इवासदत् ॥ ४२ ॥
गृहीत्वा
अपरपादाभ्यां सहलाङ्गूलमच्युतः ।
भ्रामयित्वा
कपित्थाग्रे प्राहिणोद् गतजीवितम् ।
स
कपित्थैर्महाकायः पात्यमानैः पपात ह ॥ ४३ ॥
तं
वीक्ष्य विस्मिता बालाः शशंसुः साधु साध्विति ।
देवाश्च
परिसन्तुष्टा बभूवुः पुष्पवर्षिणः ॥ ४४ ॥
तौ
वत्सपालकौ भूत्वा सर्वलोकैकपालकौ ।
सप्रातराशौ
गोवत्सान् चारयन्तौ विचेरतुः ॥ ४५ ॥
स्वं
स्वं वत्सकुलं सर्वे पाययिष्यन्त एकदा ।
गत्वा
जलाशयाभ्याशं पाययित्वा पपुर्जलम् ॥ ४६ ॥
ते
तत्र ददृशुर्बाला महासत्त्वमवस्थितम् ।
तत्रसुर्वज्रनिर्भिन्नं
गिरेः शृङ्गमिव च्युतम् ॥ ४७ ॥
स
वै बको नाम महानसुरो बकरूपधृक् ।
आगत्य
सहसा कृष्णं तीक्ष्णतुण्डोऽग्रसद्बली ॥ ४८ ॥
कृष्णं
महाबकग्रस्तं दृष्ट्वा रामादयोऽर्भकाः ।
बभूवुरिन्द्रियाणीव
विना प्राणं विचेतसः ॥ ४९ ॥
तं
तालुमूलं प्रदहन्तमग्निवद्
गोपालसूनुं
पितरं जगद्गुरोः ।
चच्छर्द
सद्योऽतिरुषाक्षतं बकः
तुण्डेन
हन्तुं पुनरभ्यपद्यत ॥ ५० ॥
तं
आपतन्तं स निगृह्य तुण्डयोः
दोर्भ्यां
बकं कंससखं सतां पतिः ।
पश्यत्सु
बालेषु ददार लीलया
मुदावहो
वीरणवद् दिवौकसाम् ॥ ५१ ॥
तदा
बकारिं सुरलोकवासिनः
समाकिरन्
नन्दनमल्लिकादिभिः ।
समीडिरे
चानकशङ्खसंस्तवैः
तद्वीक्ष्य
गोपालसुता विसिस्मिरे ॥ ५२ ॥
मुक्तं
बकास्याद् उपलभ्य बालका
रामादयः
प्राणमिवेन्द्रियो गणः ।
स्थानागतं
तं परिरभ्य निर्वृताः
प्रणीय
वत्सान् व्रजमेत्य तज्जगुः ॥ ५३ ॥
एक
दिनकी बात है,
श्याम और बलराम अपने प्रेमी सखा ग्वालबालोंके साथ यमुनातटपर बछड़े
चरा रहे थे । उसी समय उन्हें मारनेकी नीयतसे एक दैत्य आया ॥ ४१ ॥ भगवान्ने देखा
कि वह बनावटी बछड़ेका रूप धारणकर बछड़ोंके झुंडमें मिल गया है । वे आँखोंके
इशारेसे बलरामजीको दिखाते हुए धीरे-धीरे उसके पास पहुँच गये । उस समय ऐसा जान
पड़ता था मानो वे दैत्यको तो पहचानते नहीं और उस हट्टे-कट्टे सुन्दर बछड़ेपर मुग्ध
हो गये हैं ॥ ४२ ॥ भगवान् श्रीकृष्णने पूँछके साथ उसके दोनों पिछले पैर पकडक़र
आकाशमें घुमाया और मर जानेपर कैथके वृक्षपर पटक दिया । उसका लंबा-तगड़ा दैत्यशरीर
बहुत-से कैथके वृक्षोंको गिराकर स्वयं भी गिर पड़ा ॥ ४३ ॥ यह देखकर ग्वालबालोंके
आश्चर्यकी सीमा न रही । वे ‘वाह-वाह’ करके
प्यारे कन्हैयाकी प्रशंसा करने लगे । देवता भी बड़े आनन्दसे फूलोंकी वर्षा करने
लगे ॥ ४४ ॥
परीक्षित्
! जो सारे लोकोंके एकमात्र रक्षक हैं, वे ही श्याम और
बलराम अब वत्सपाल (बछड़ोंके चरवाहे) बने हुए हैं । वे तडक़े ही उठकर कलेवेकी
सामग्री ले लेते और बछड़ोंको चराते हुए एक वनसे दूसरे वनमें घूमा करते ॥ ४५ ॥ एक
दिनकी बात है, सब ग्वालबाल अपने झुंड-के- झुंड बछड़ोंको पानी
पिलानेके लिये जलाशयके तटपर ले गये । उन्होंने पहले बछड़ोंको जल पिलाया और फिर
स्वयं भी पिया ॥ ४६ ॥ ग्वालबालोंने देखा कि वहाँ एक बहुत बड़ा जीव बैठा हुआ है ।
वह ऐसा मालूम पड़ता था, मानो इन्द्रके वज्रसे कटकर कोई
पहाडक़ा टुकड़ा गिरा हुआ है ॥ ४७ ॥ ग्वालबाल उसे देखकर डर गये । वह ‘बक’ नामका एक बड़ा भारी असुर था, जो बगुलेका रूप धरके वहाँ आया था । उसकी चोंच बड़ी तीखी थी और वह स्वयं
बड़ा बलवान् था । उसने झपटकर श्रीकृष्णको निगल लिया ॥ ४८ ॥ जब बलराम आदि बालकोंने
देखा कि वह बड़ा भारी बगुला श्रीकृष्णको निगल गया, तब उनकी
वही गति हुई जो प्राण निकल जानेपर इन्द्रियोंकी होती है । वे अचेत हो गये ॥ ४९ ॥
परीक्षित् ! श्रीकृष्ण लोकपितामह ब्रह्माके भी पिता हैं । वे लीलासे ही
गोपाल-बालक बने हुए हैं । जब वे बगुलेके तालुके नीचे पहुँचे, तब वे आगके समान उसका तालु जलाने लगे । अत: उस दैत्यने श्रीकृष्णके शरीरपर
बिना किसी प्रकारका घाव किये ही झटपट उन्हें उगल दिया और फिर बड़े क्रोधसे अपनी
कठोर चोंचसे उनपर चोट करनेके लिये टूट पड़ा ॥ ५० ॥ कंसका सखा बकासुर अभी भक्तवत्सल
भगवान् श्रीकृष्णपर झपट ही रहा था कि उन्होंने अपने दोनों हाथोंसे उसके दोनों ठोर
पकड़ लिये और ग्वालबालोंके देखते-देखते खेल-ही-खेलमें उसे वैसे ही चीर डाला,
जैसे कोई वीरण (गाँडऱ, जिसकी जडक़ा खस होता है)
को चीर डाले । इससे देवताओंको बड़ा आनन्द हुआ ॥ ५१ ॥ सभी देवता भगवान्
श्रीकृष्णपर नन्दनवनके बेला, चमेली आदिके फूल बरसाने लगे तथा
नगारे, शङ्ख आदि बजाकर एवं स्तोत्रोंके द्वारा उनको प्रसन्न
करने लगे । यह सब देखकर सब-के-सब ग्वालबाल आश्चर्यचकित हो गये ॥ ५२ ॥ जब बलराम आदि
बालकोंने देखा कि श्रीकृष्ण बगुलेके मुँह से निकलकर हमारे पास आ गये हैं, तब उन्हें ऐसा आनन्द हुआ मानो प्राणोंके सञ्चारसे इन्द्रियाँ सचेत और
आनन्दित हो गयी हों । सबने भगवान् को अलग-अलग गले लगाया। इसके बाद अपने-अपने बछड़े
हाँककर सब व्रज में आये और वहाँ उन्होंने घरके लोगोंसे सारी घटना कह सुनायी ॥ ५३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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