॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
गोकुलसे
वृन्दावन जाना तथा वत्सासुर और बकासुर का उद्धार
तच्छ्रुत्वैकधियो
गोपाः साधु साध्विति वादिनः ।
व्रजान्
स्वान् स्वान् समायुज्य ययू रूढपरिच्छदाः ॥ ३० ॥
वृद्धान्
बालान् स्त्रियो राजन् सर्वोपकरणानि च ।
अनःस्वारोप्य
गोपाला यत्ता आत्त-शरासनाः ॥ ३१ ॥
गोधनानि
पुरस्कृत्य शृङ्गाण्यापूर्य सर्वतः ।
तूर्यघोषेण
महता ययुः सहपुरोहिताः ॥ ३२ ॥
गोप्यो
रूढरथा नूत्न कुचकुंकुम कान्तयः ।
कृष्णलीला
जगुः प्रीत्या निष्ककण्ठ्यः सुवाससः ॥ ३३ ॥
तथा
यशोदारोहिण्यौ एकं शकटमास्थिते ।
रेजतुः
कृष्णरामाभ्यां तत्कथाश्रवणोत्सुके ॥ ३४ ॥
वृन्दावनं
सम्प्रविश्य सर्वकालसुखावहम् ।
तत्र
चक्रुर्व्रजावासं शकटैः अर्धचन्द्रवत् ॥ ३५ ॥
वृन्दावनं
गोवर्धनं यमुनापुलिनानि च ।
वीक्ष्यासीत्
उत्तमा प्रीती राममाधवयोर्नृप ॥ ३६ ॥
एवं
व्रजौकसां प्रीतिं यच्छन्तौ बालचेष्टितैः ।
कलवाक्यैः
स्वकालेन वत्सपालौ बभूवतुः ॥ ३७ ॥
अविदूरे
व्रजभुवः सह गोपालदारकैः ।
चारयामासतुः
वत्सान् नानाक्रीडापरिच्छदौ ॥ ३८ ॥
क्वचिद्
वादयतो वेणुं क्षेपणैः क्षिपतः क्वचित् ।
क्वचित्
पादैः किङ्किणीभिः क्वचित् कृत्रिमगोवृषैः ॥ ३९ ॥
वृषायमाणौ
नर्दन्तौ युयुधाते परस्परम् ।
अनुकृत्य
रुतैर्जन्तून् चेरतुः प्राकृतौ यथा ॥ ४० ॥
उपनन्दकी
बात सुनकर सभी गोपोंने एक स्वरसे कहा—‘बहुत ठीक, बहुत ठीक ।’ इस विषयमें किसीका भी मतभेद न था । सब
लोगोंने अपनी झुंड-की-झुंड गायें इक_ी कीं और छकड़ोंपर घरकी
सब सामग्री लादकर वृन्दावनकी यात्रा की ॥ ३० ॥ परीक्षित् ! ग्वालोंने बूढ़ों,
बच्चों, स्त्रियों और सब सामग्रियोंको
छकड़ोंपर चढ़ा दिया और स्वयं उनके पीछे-पीछे धनुष-बाण लेकर बड़ी सावधानीसे चलने
लगे ॥ ३१ ॥ उन्होंने गौ और बछड़ोंको तो सबसे आगे कर लिया और उनके पीछे-पीछे सिंगी
और तुरही जोर-जोरसे बजाते हुए चले । उनके साथ ही-साथ पुरोहित- लोग भी चल रहे थे ॥
३२ ॥ गोपियाँ अपने-अपने वक्ष:स्थलपर नयी केसर लगाकर, सुन्दर-सुन्दर
वस्त्र पहनकर, गलेमें सोनेके हार धारण किये हुए रथोंपर सवार
थीं और बड़े आनन्दसे भगवान् श्रीकृष्णकी लीलाओंके गीत गाती जाती थीं ॥ ३३ ॥
यशोदारानी और रोहिणीजी भी वैसे ही सज-धजकर अपने-अपने प्यारे पुत्र श्रीकृष्ण तथा
बलरामके साथ एक छकड़ेपर शोभायमान हो रही थीं । वे अपने दोनों बालकोंकी तोतली बोली
सुन-सुनकर भी अघाती न थीं, और-और सुनना चाहती थीं ॥ ३४ ॥
वृन्दावन बड़ा ही सुन्दर वन है । चाहे कोई भी ऋतु हो, वहाँ
सुख-ही-सुख है । उसमें प्रवेश करके ग्वालोंने अपने छकड़ोंको अद्र्धचन्द्राकार
मण्डल बाँधकर खड़ा कर दिया और अपने गोधनके रहनेयोग्य स्थान बना लिया ॥ ३५ ॥
परीक्षित् ! वृन्दावनका हरा-भरा वन, अत्यन्त मनोहर गोवर्धन
पर्वत और यमुना नदीके सुन्दर-सुन्दर पुलिनोंको देखकर भगवान् श्रीकृष्ण और
बलरामजीके हृदयमें उत्तम प्रीतिका उदय हुआ ॥ ३६ ॥
राम
और श्याम दोनों ही अपनी तोतली बोली और अत्यन्त मधुर बालोचित लीलाओंसे गोकुलकी ही
तरह वृन्दावनमें भी व्रजवासियोंको आनन्द देते रहे । थोड़े ही दिनोंमें समय आनेपर
वे बछड़े चराने लगे ॥ ३७ ॥ दूसरे ग्वालबालोंके साथ खेलनेके लिये बहुत-सी सामग्री
लेकर वे घरसे निकल पड़ते और गोष्ठ (गायोंके रहनेके स्थान) के पास ही अपने बछड़ोंको
चराते ॥ ३८ ॥ श्याम और राम कहीं बाँसुरी बजा रहे हैं, तो कहीं गुलेल या ढेलवाँससे ढेले या गोलियाँ फेंक रहे हैं । किसी समय अपने
पैरोंके घुँघरूपर तान छेड़ रहे हैं, तो कहीं बनावटी गाय और
बैल बनकर खेल रहे हैं ॥ ३९ ॥ एक ओर देखिये तो साँड़ बन-बनकर हँकड़ते हुए आपसमें
लड़ रहे हैं तो दूसरी ओर मोर, कोयल, बंदर
आदि पशु-पक्षियोंकी बोलियाँ निकाल रहे हैं । परीक्षित् ! इस प्रकार सर्वशक्तिमान्
भगवान् साधारण बालकोंके समान खेलते रहते ॥ ४० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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