॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
गोकुलसे
वृन्दावन जाना तथा वत्सासुर और बकासुर का उद्धार
गोपवृद्धा
महोत्पातान् अनुभूय बृहद्वने ।
नन्दादयः
समागम्य व्रजकार्यं अमन्त्रयन् ॥ २१ ॥
तत्र
उपनन्दनामाऽऽह गोपो ज्ञानवयोऽधिकः ।
देशकालार्थतत्त्वज्ञः
प्रियकृद् रामकृष्णयोः ॥ २२ ॥
उत्थातव्यं
इतोऽस्माभिः गोकुलस्य हितैषिभिः ।
आयान्ति
अत्र महोत्पाता बालानां नाशहेतवः ॥ २३ ॥
मुक्तः
कथञ्चिद् राक्षस्या बालघ्न्या बालको ह्यसौ ।
हरेरनुग्रहात्
नूनं अनश्चोपरि नापतत् ॥ २४ ॥
चक्रवातेन
नीतोऽयं दैत्येन विपदं वियत् ।
शिलायां
पतितस्तत्र परित्रातः सुरेश्वरैः ॥ २५ ॥
यन्न
म्रियेत द्रुमयोः अन्तरं प्राप्य बालकः ।
असौ
अन्यतमो वापि तदप्यच्युतरक्षणम् ॥ २६ ॥
यावत्
औत्पातिकोऽरिष्टो व्रजं नाभिभवेदितः ।
तावद्
बालानुपादाय यास्यामोऽन्यत्र सानुगाः ॥ २७ ॥
वनं
वृन्दावनं नाम पशव्यं नवकाननम् ।
गोपगोपीगवां
सेव्यं पुण्याद्रि तृणवीरुधम् ॥ २८ ॥
तत्तत्राद्यैव
यास्यामः शकटान् युङ्क्त मा चिरम् ।
गोधनान्यग्रतो
यान्तु भवतां यदि रोचते ॥ २९ ॥
जब
नन्दबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपोंने देखा कि महावनमें तो बड़े-बड़े उत्पात होने लगे
हैं,
तब वे लोग इकट्ठेहोकर ‘अब व्रजवासियोंको क्या
करना चाहिये’—इस विषयपर विचार करने लगे ॥ २१ ॥ उनमेंसे एक
गोपका नाम था उपनन्द । वे अवस्थामें तो बड़े थे ही, ज्ञानमें
भी बड़े थे । उन्हें इस बातका पता था कि किस समय किस स्थानपर किस वस्तुसे कैसा
व्यवहार करना चाहिये । साथ ही वे यह भी चाहते थे कि राम और श्याम सुखी रहें,
उनपर कोई विपत्ति न आवे । उन्होंने कहा— ॥ २२
॥ ‘भाइयो ! अब यहाँ ऐसे बड़े-बड़े उत्पात होने लगे हैं,
जो बच्चोंके लिये तो बहुत ही अनिष्टकारी हैं । इसलिये यदि हमलोग गोकुल
और गोकुलवासियोंका भला चाहते हैं, तो हमें यहाँसे अपना
डेरा-डंडा उठाकर कूच कर देना चाहिये ॥ २३ ॥ देखो, यह सामने
बैठा हुआ नन्दरायका लाड़ला सबसे पहले तो बच्चोंके लिये काल-स्वरूपिणी हत्यारी
पूतना के चंगुल से किसी प्रकार छूटा । इसके बाद भगवान् की दूसरी कृपा यह हुई कि
इसके ऊपर उतना बड़ा छकड़ा गिरते-गिरते बचा ॥ २४ ॥ बवंडररूपधारी दैत्यने तो इसे
आकाशमें ले जाकर बड़ी भारी विपत्ति (मृत्युके मुख) में ही डाल दिया था, परंतु वहाँसे जब वह चट्टानपर गिरा, तब भी हमारे
कुलके देवेश्वरोंने ही इस बालककी रक्षा की ॥ २५ ॥ यमलार्जुन वृक्षोंके गिरनेके समय
उनके बीचमें आकर भी यह या और कोई बालक न मरा । इससे भी यही समझना चाहिये कि भगवान्
ने हमारी रक्षा की ॥ २६ ॥ इसलिये जबतक कोई बहुत बड़ा अनिष्टकारी अरिष्ट हमें और
हमारे व्रजको नष्ट न कर दे, तबतक ही हमलोग अपने बच्चोंको
लेकर अनुचरोंके साथ यहाँसे अन्यत्र चले चलें ॥ २७ ॥ ‘वृन्दावन’
नामका एक वन है । उसमें छोटे-छोटे और भी बहुत-से नये-नये हरे-भरे वन
हैं । वहाँ बड़ा ही पवित्र पर्वत, घास और हरी-भरी
लता-वनस्पतियाँ हैं । हमारे पशुओंके लिये तो वह बहुत ही हितकारी है । गोप, गोपी और गायोंके लिये वह केवल सुविधाका ही नहीं, सेवन
करनेयोग्य स्थान है ॥ २८ ॥ सो यदि तुम सब लोगोंको यह बात जँचती हो तो आज ही हमलोग
वहाँके लिये कूच कर दें । देर न करें, गाड़ी-छकड़े जोतें और
पहले गायोंको, जो हमारी एकमात्र सम्पत्ति हैं, वहाँ भेज दें’ ॥ २९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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