॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
गोकुलसे
वृन्दावन जाना तथा वत्सासुर और बकासुर का उद्धार
क्रीणीहि
भोः फलानीति श्रुत्वा सत्वरमच्युतः ।
फलार्थी
धान्यमादाय ययौ सर्वफलप्रदः ॥ १० ॥
फलविक्रयिणी
तस्य च्युतधान्यकरद्वयम् ।
फलैरपूरयद्
रत्नैः फलभाण्डमपूरि च ॥ ॥
सरित्तीरगतं
कृष्णं भग्नार्जुनमथाह्वयत् ।
रामं
च रोहिणी देवी क्रीडन्तं बालकैर्भृशम् ॥ १२ ॥
नोपेयातां
यदाऽऽहूतौ क्रीडासङ्गेन पुत्रकौ ।
यशोदां
प्रेषयामास रोहिणी पुत्रवत्सलाम् ॥ १३ ॥
क्रीडन्तं
सा सुतं बालैः अतिवेलं सहाग्रजम् ।
यशोदाजोहवीत्
कृष्णं पुत्रस्नेहस्नुतस्तनी ॥ १४ ॥
कृष्ण
कृष्णारविन्दाक्ष तात एहि स्तनं पिब ।
अलं
विहारैः क्षुत्क्षान्तः क्रीडाश्रान्तोऽसि पुत्रक ॥ १५ ॥
हे
रामागच्छ ताताशु सानुजः कुलनन्दन ।
प्रातरेव
कृताहारः तद् भवान् भोक्तुमर्हति ॥ १६ ॥
प्रतीक्षते
त्वां दाशार्ह भोक्ष्यमाणो व्रजाधिपः ।
एह्यावयोः
प्रियं धेहि स्वगृहान् यात बालकाः ॥ १७ ॥
धूलिधूसरिताङ्गस्त्वं
पुत्र मज्जनमावह ।
जन्मर्क्षमद्य
भवतो विप्रेभ्यो देहि गाः शुचिः ॥ १८ ॥
पश्य
पश्य वयस्यांस्ते मातृमृष्टान् स्वलङ्कृतान् ।
त्वं
च स्नातः कृताहारो विहरस्व स्वलङ्कृतः ॥ १९ ॥
इत्थं
यशोदा तमशेषशेखरं
मत्वा
सुतं स्नेहनिबद्धधीर्नृप ।
हस्ते
गृहीत्वा सहराममच्युतं
नीत्वा
स्ववाटं कृतवत्यथोदयम् ॥ २० ॥
एक
दिन कोई फल बेचनेवाली आकर पुकार उठी—‘फल लो फल ! यह
सुनते ही समस्त कर्म और उपासनाओंके फल देनेवाले भगवान् अच्युत फल खरीदनेके लिये
अपनी छोटी-सी अंजलियोंमें अनाज लेकर दौड़ पड़े ॥ १० ॥ उनकी अंजलिमेंसे अनाज तो
रास्तेमें ही बिखर गया, पर फल बेचनेवालीने उनके दोनों हाथ
फलसे भर दिये । इधर भगवान्ने भी उसकी फल रखनेवाली टोकरी रत्नोंसे भर दी ॥ ११ ॥ तदनन्तर
एक दिन यमलार्जुन वृक्षको तोडऩेवाले श्रीकृष्ण और बलराम बालकोंके साथ खेलते-खेलते
यमुनातटपर चले गये और खेलमें ही रम गये, तब रोहिणीदेवीने
उन्हें पुकारा ‘ओ कृष्ण ! ओ बलराम ! जल्दी आओ’ ॥ १२ ॥ परंतु रोहिणीके पुकारनेपर भी वे आये नहीं; क्योंकि
उनका मन खेलमें लग गया था । जब बुलानेपर भी वे दोनों बालक नहीं आये, तब रोहिणीजीने वात्सल्यस्नेहमयी यशोदाजीको भेजा ॥ १३ ॥ श्रीकृष्ण और बलराम
ग्वालबालकोंके साथ बहुत देरसे खेल रहे थे, यशोदाजीने जाकर
उन्हें पुकारा । उस समय पुत्रके प्रति वात्सल्य-स्नेहके कारण उनके स्तनोंमेंसे दूध
चुचुआ रहा था ॥ १४ ॥ वे जोर-जोरसे पुकारने लगीं—‘मेरे प्यारे
कन्हैया ! ओ कृष्ण ! कमलनयन ! श्यामसुन्दर ! बेटा ! आओ, अपनी
माका दूध पी लो । खेलते-खेलते थक गये हो बेटा ! अब बस करो । देखो तो सही, तुम भूखसे दुबले हो रहे हो ॥ १५ ॥ मेरे प्यारे बेटा राम ! तुम तो समूचे
कुलको आनन्द देनेवाले हो । अपने छोटे भाईको लेकर जल्दीसे आ जाओ तो ! देखो, भाई ! आज तुमने बहुत सबेरे कलेऊ किया था । अब तो तुम्हें कुछ खाना चाहिये
॥ १६ ॥ बेटा बलराम ! व्रजराज भोजन करनेके लिये बैठ गये हैं; परंतु
अभीतक तुम्हारी बाट देख रहे हैं । आओ, अब हमें आनन्दित करो ।
बालको ! अब तुमलोग भी अपने-अपने घर जाओ ॥ १७ ॥ बेटा ! देखो तो सही, तुम्हारा एक-एक अङ्ग धूलसे लथपथ हो रहा है । आओ, जल्दीसे
स्नान कर लो । आज तुम्हारा जन्म नक्षत्र है । पवित्र होकर ब्राह्मणोंको गोदान करो
॥ १८ ॥ देखो-देखो ! तुम्हारे साथियोंको उनकी माताओंने नहला-धुलाकर, मींज-पोंछकर कैसे सुन्दर-सुन्दर गहने पहना दिये हैं । अब तुम भी नहा-धोकर,
खा-पीकर, पहन- ओढक़र तब खेलना’ ॥ १९ ॥ परीक्षित् ! माता यशोदाका सम्पूर्ण मन-प्राण प्रेम-बन्धनसे बँधा
हुआ था । वे चराचर जगत्के शिरोमणि भगवान्को अपना पुत्र समझतीं और इस प्रकार कहकर
एक हाथसे बलराम तथा दूसरे हाथसे श्रीकृष्णको पकडक़र अपने घर ले आयीं । इसके बाद
उन्होंने पुत्रके मङ्गलके लिये जो कुछ करना था, वह बड़े
प्रेमसे किया ॥ २० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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