रविवार, 31 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

गोकुलसे वृन्दावन जाना तथा वत्सासुर और बकासुर का उद्धार

क्रीणीहि भोः फलानीति श्रुत्वा सत्वरमच्युतः ।
फलार्थी धान्यमादाय ययौ सर्वफलप्रदः ॥ १० ॥
फलविक्रयिणी तस्य च्युतधान्यकरद्वयम् ।
फलैरपूरयद् रत्‍नैः फलभाण्डमपूरि च ॥ ॥
सरित्तीरगतं कृष्णं भग्नार्जुनमथाह्वयत् ।
रामं च रोहिणी देवी क्रीडन्तं बालकैर्भृशम् ॥ १२ ॥
नोपेयातां यदाऽऽहूतौ क्रीडासङ्‌गेन पुत्रकौ ।
यशोदां प्रेषयामास रोहिणी पुत्रवत्सलाम् ॥ १३ ॥
क्रीडन्तं सा सुतं बालैः अतिवेलं सहाग्रजम् ।
यशोदाजोहवीत् कृष्णं पुत्रस्नेहस्नुतस्तनी ॥ १४ ॥
कृष्ण कृष्णारविन्दाक्ष तात एहि स्तनं पिब ।
अलं विहारैः क्षुत्क्षान्तः क्रीडाश्रान्तोऽसि पुत्रक ॥ १५ ॥
हे रामागच्छ ताताशु सानुजः कुलनन्दन ।
प्रातरेव कृताहारः तद् भवान् भोक्तुमर्हति ॥ १६ ॥
प्रतीक्षते त्वां दाशार्ह भोक्ष्यमाणो व्रजाधिपः ।
एह्यावयोः प्रियं धेहि स्वगृहान् यात बालकाः ॥ १७ ॥
धूलिधूसरिताङ्‌गस्त्वं पुत्र मज्जनमावह ।
जन्मर्क्षमद्य भवतो विप्रेभ्यो देहि गाः शुचिः ॥ १८ ॥
पश्य पश्य वयस्यांस्ते मातृमृष्टान् स्वलङ्‌कृतान् ।
त्वं च स्नातः कृताहारो विहरस्व स्वलङ्‌कृतः ॥ १९ ॥
इत्थं यशोदा तमशेषशेखरं
मत्वा सुतं स्नेहनिबद्धधीर्नृप ।
हस्ते गृहीत्वा सहराममच्युतं
नीत्वा स्ववाटं कृतवत्यथोदयम् ॥ २० ॥

एक दिन कोई फल बेचनेवाली आकर पुकार उठी—‘फल लो फल ! यह सुनते ही समस्त कर्म और उपासनाओंके फल देनेवाले भगवान्‌ अच्युत फल खरीदनेके लिये अपनी छोटी-सी अंजलियोंमें अनाज लेकर दौड़ पड़े ॥ १० ॥ उनकी अंजलिमेंसे अनाज तो रास्तेमें ही बिखर गया, पर फल बेचनेवालीने उनके दोनों हाथ फलसे भर दिये । इधर भगवान्‌ने भी उसकी फल रखनेवाली टोकरी रत्नोंसे भर दी ॥ ११ ॥ तदनन्तर एक दिन यमलार्जुन वृक्षको तोडऩेवाले श्रीकृष्ण और बलराम बालकोंके साथ खेलते-खेलते यमुनातटपर चले गये और खेलमें ही रम गये, तब रोहिणीदेवीने उन्हें पुकारा ओ कृष्ण ! ओ बलराम ! जल्दी आओ॥ १२ ॥ परंतु रोहिणीके पुकारनेपर भी वे आये नहीं; क्योंकि उनका मन खेलमें लग गया था । जब बुलानेपर भी वे दोनों बालक नहीं आये, तब रोहिणीजीने वात्सल्यस्नेहमयी यशोदाजीको भेजा ॥ १३ ॥ श्रीकृष्ण और बलराम ग्वालबालकोंके साथ बहुत देरसे खेल रहे थे, यशोदाजीने जाकर उन्हें पुकारा । उस समय पुत्रके प्रति वात्सल्य-स्नेहके कारण उनके स्तनोंमेंसे दूध चुचुआ रहा था ॥ १४ ॥ वे जोर-जोरसे पुकारने लगीं—‘मेरे प्यारे कन्हैया ! ओ कृष्ण ! कमलनयन ! श्यामसुन्दर ! बेटा ! आओ, अपनी माका दूध पी लो । खेलते-खेलते थक गये हो बेटा ! अब बस करो । देखो तो सही, तुम भूखसे दुबले हो रहे हो ॥ १५ ॥ मेरे प्यारे बेटा राम ! तुम तो समूचे कुलको आनन्द देनेवाले हो । अपने छोटे भाईको लेकर जल्दीसे आ जाओ तो ! देखो, भाई ! आज तुमने बहुत सबेरे कलेऊ किया था । अब तो तुम्हें कुछ खाना चाहिये ॥ १६ ॥ बेटा बलराम ! व्रजराज भोजन करनेके लिये बैठ गये हैं; परंतु अभीतक तुम्हारी बाट देख रहे हैं । आओ, अब हमें आनन्दित करो । बालको ! अब तुमलोग भी अपने-अपने घर जाओ ॥ १७ ॥ बेटा ! देखो तो सही, तुम्हारा एक-एक अङ्ग धूलसे लथपथ हो रहा है । आओ, जल्दीसे स्नान कर लो । आज तुम्हारा जन्म नक्षत्र है । पवित्र होकर ब्राह्मणोंको गोदान करो ॥ १८ ॥ देखो-देखो ! तुम्हारे साथियोंको उनकी माताओंने नहला-धुलाकर, मींज-पोंछकर कैसे सुन्दर-सुन्दर गहने पहना दिये हैं । अब तुम भी नहा-धोकर, खा-पीकर, पहन- ओढक़र तब खेलना॥ १९ ॥ परीक्षित्‌ ! माता यशोदाका सम्पूर्ण मन-प्राण प्रेम-बन्धनसे बँधा हुआ था । वे चराचर जगत्के शिरोमणि भगवान्‌को अपना पुत्र समझतीं और इस प्रकार कहकर एक हाथसे बलराम तथा दूसरे हाथसे श्रीकृष्णको पकडक़र अपने घर ले आयीं । इसके बाद उन्होंने पुत्रके मङ्गलके लिये जो कुछ करना था, वह बड़े प्रेमसे किया ॥ २० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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