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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
गोकुल
से वृन्दावन जाना तथा वत्सासुर और बकासुर का उद्धार
श्रीशुक
उवाच ।
गोपा
नन्दादयः श्रुत्वा द्रुमयोः पततो रवम् ।
तत्राजग्मुः
कुरुश्रेष्ठ निर्घातभयशङ्किताः ॥ १ ॥
भूम्यां
निपतितौ तत्र ददृशुर्यमलार्जुनौ ।
बभ्रमुस्तदविज्ञाय
लक्ष्यं पतनकारणम् ॥ २ ॥
उलूखलं
विकर्षन्तं दाम्ना बद्धं च बालकम् ।
कस्येदं
कुत आश्चर्यं उत्पात इति कातराः ॥ ३ ॥
बाला
ऊचुरनेनेति तिर्यग्गतं उलूखलम् ।
विकर्षता
मध्यगेन पुरुषौ अपि अचक्ष्महि ॥ ४ ॥
न
ते तदुक्तं जगृहुः न घटेतेति तस्य तत् ।
बालस्योत्पाटनं
तर्वोः केचित् संदिग्धचेतसः ॥ ५ ॥
उलूखलं
विकर्षन्तं दाम्ना बद्धं स्वमात्मजम् ।
विलोक्य
नन्दः प्रहसद् वदनो विमुमोच ह ॥ ६ ॥
गोपीभिः
स्तोभितोऽनृत्यद् भगवान् बालवत् क्वचित् ।
उद्गायति
क्वचिन्मुग्धः तद्वशो दारुयन्त्रवत् ॥ ७ ॥
बिभर्ति
क्वचिदाज्ञप्तः पीठकोन्मानपादुकम् ।
बाहुक्षेपं
च कुरुते स्वानां च प्रीतिमावहन् ॥ ८ ॥
दर्शयंस्तद्विदां
लोक आत्मनो भृत्यवश्यताम् ।
व्रजस्योवाह
वै हर्षं भगवान् बालचेष्टितैः ॥ ९ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! वृक्षोंके गिरनेसे जो भयङ्कर शब्द हुआ था, उसे नन्दबाबा आदि गोपोंने भी सुना । उनके मनमें यह शङ्का हुई कि कहीं
बिजली तो नहीं गिरी ! सब-के-सब भयभीत होकर वृक्षोंके पास आ गये ॥ १ ॥ वहाँ
पहुँचनेपर उन लोगोंने देखा कि दोनों अर्जुनके वृक्ष गिरे हुए हैं । यद्यपि वृक्ष
गिरनेका कारण स्पष्ट था—वहीं उनके सामने ही रस्सीमें बँधा
हुआ बालक ऊखल खींच रहा था, परंतु वे समझ न सके। ‘यह किसका काम है, ऐसी आश्चर्यजनक दुर्घटना कैसे घट
गयी ?’—यह सोचकर वे कातर हो गये, उनकी
बुद्धि भ्रमित हो गयी ॥ २-३ ॥ वहाँ कुछ बालक खेल रहे थे । उन्होंने कहा—‘अरे, इसी कन्हैयाका तो काम है । यह दोनों वृक्षोंके
बीचमेंसे होकर निकल रहा था । ऊखल तिरछा हो जानेपर दूसरी ओरसे इसने उसे खींचा और
वृक्ष गिर पड़े । हमने तो इनमेंसे निकलते हुए दो पुरुष भी देखे हैं. ॥ ४ ॥ परंतु
गोपोंने बालकों की बात नहीं मानी । वे कहने लगे—‘एक नन्हा-सा
बच्चा इतने बड़े वृक्षों को उखाड़ डाले, यह कभी सम्भव नहीं
है ।’ किसी-किसी के चित्त में श्रीकृष्ण की पहले की लीलाओं का
स्मरण करके सन्देह भी हो आया ॥ ५ ॥ नन्दबाबा ने देखा, उनका
प्राणोंसे प्यारा बच्चा रस्सी से बँधा हुआ ऊखल घसीटता जा रहा है । वे हँसने लगे और
जल्दी से जाकर उन्होंने रस्सी की गाँठ खोल दी ॥ ६ ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान् कभी-कभी
गोपियोंके फुसलानेसे साधारण बालकोंके समान नाचने लगते । कभी भोले-भाले अनजान
बालककी तरह गाने लगते । वे उनके हाथकी कठपुतली—उनके सर्वथा
अधीन हो गये ॥ ७ ॥ कभी उनकी आज्ञासे पीढ़ा ले आते, तो कभी
दुसेरी आदि तौलनेके बटखरे उठा लाते । कभी खड़ाऊँ ले आते, तो
कभी अपने प्रेमी भक्तों को आनन्दित करने के लिये पहलवानों की भाँति ताल ठोंकने लगते ॥
८ ॥ इस प्रकार सर्वशक्तिमान् भगवान् अपनी बाल-लीलाओंसे व्रजवासियोंको आनन्दित
करते और संसारमें जो लोग उनके रहस्यको जाननेवाले हैं, उनको
यह दिखलाते कि मैं अपने सेवकोंके वशमें हूँ ॥ ९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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