॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
यमलार्जुन
का उद्धार
तस्मै
तुभ्यं भगवते वासुदेवाय वेधसे ।
आत्मद्योतगुणैश्छन्न
महिम्ने ब्रह्मणे नमः ॥ ३३ ॥
यस्यावतारा
ज्ञायन्ते शरीरेष्वशरीरिणः ।
तैस्तैरतुल्यातिशयैः
वीर्यैर्देहिष्वसङ्गतैः ॥ ३४ ॥
स
भवान् सर्वलोकस्य भवाय विभवाय च ।
अवतीर्णोंऽशभागेन
साम्प्रतं पतिराशिषाम् ॥ ३५ ॥
नमः
परमकल्याण नमः परममङ्गल ।
वासुदेवाय
शान्ताय यदूनां पतये नमः ॥ ३६ ॥
अनुजानीहि
नौ भूमन् तवानुचरकिङ्करौ ।
दर्शनं
नौ भगवत ऋषेरासीदनुग्रहात् ॥ ३७ ॥
वाणी
गुणानुकथने श्रवणौ कथायां
हस्तौ
च कर्मसु मनस्तव पादयोर्नः ।
स्मृत्यां
शिरस्तव निवासजगत्प्रणामे
दृष्टिः
सतां दर्शनेऽस्तु भवत्तनूनाम् ॥ ३८ ॥
श्रीशुक
उवाच ।
इत्थं
सङ्कीर्तितस्ताभ्यां भगवान् गोकुलेश्वरः ।
दाम्ना
चोलूखले बद्धः प्रहसन्नाह गुह्यकौ ॥ ३९ ॥
श्रीभगवानुवाच
।
ज्ञातं
मम पुरैवैतद् ऋषिणा करुणात्मना ।
यत्
श्रीमदान्धयोर्वाग्भिः विभ्रंशोऽनुग्रहः कृतः ॥ ४० ॥
साधूनां
समचित्तानां सुतरां मत्कृतात्मनाम् ।
दर्शनान्नो
भवेद्बन्धः पुंसोऽक्ष्णोः सवितुर्यथा ॥ ४१ ॥
तद्गच्छतं
मत्परमौ नलकूबर सादनम् ।
सञ्जातो
मयि भावो वां ईप्सितः परमोऽभवः ॥ ४२ ॥
श्रीशुक
उवाच ।
इत्युक्तौ
तौ परिक्रम्य प्रणम्य च पुनः पुनः ।
बद्धोलूखलमामन्त्र्य
जग्मतुर्दिशमुत्तराम् ॥ ४३ ॥
समस्त
प्रपञ्च के विधाता भगवान् वासुदेव को हम नमस्कार करते हैं । प्रभो ! आपके द्वारा
प्रकाशित होनेवाले गुणों से ही आपने अपनी महिमा छिपा रखी है । परब्रह्मस्वरूप
श्रीकृष्ण ! हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ ३३ ॥ आप प्राकृत शरीरसे रहित हैं । फिर भी
जब आप ऐसे पराक्रम प्रकट करते हैं, जो साधारण
शरीरधारियोंके लिये शक्य नहीं है और जिनसे बढक़र तो क्या जिनके समान भी कोई नहीं कर
सकता, तब उनके द्वारा उन शरीरों में आप के अवतारों का पता चल
जाता है ॥ ३४ ॥ प्रभो ! आप ही समस्त लोकोंके अभ्युदय और नि:श्रेयसके लिये इस समय
अपनी सम्पूर्ण शक्तियोंसे अवतीर्ण हुए हैं । आप समस्त अभिलाषाओंको पूर्ण करनेवाले
हैं ॥ ३५ ॥ परम कल्याण (साध्य) स्वरूप ! आपको नमस्कार है । परम मङ्गल (साधन) स्वरूप
! आपको नमस्कार है । परम शान्त, सबके हृदयमें विहार करनेवाले
यदुवंशशिरोमणि श्रीकृष्णको नमस्कार है ॥ ३६ ॥ अनन्त ! हम आपके दासानुदास हैं । आप
यह स्वीकार कीजिये । देवर्षि भगवान् नारदके परम अनुग्रहसे ही हम अपराधियोंको आपका
दर्शन प्राप्त हुआ है ॥ ३७ ॥ प्रभो ! हमारी वाणी आपके मङ्गलमय गुणोंका वर्णन करती
रहे । हमारे कान आपकी रसमयी कथामें लगे रहें । हमारे हाथ आपकी सेवामें और मन आपके
चरण-कमलोंकी स्मृतिमें रम जायँ । यह सम्पूर्ण जगत् आपका निवास-स्थान है । हमारा
मस्तक सबके सामने झुका रहे । संत आपके प्रत्यक्ष शरीर हैं । हमारी आँखें उनके
दर्शन करती रहें ॥ ३८ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—सौन्दर्य-माधुर्यनिधि गोकुलेश्वर श्रीकृष्णने नलकूबर और मणिग्रीवके इस
प्रकार स्तुति करनेपर रस्सीसे ऊखलमें बँधे-बँधे ही हँसते हुए [8] उनसे कहा—
॥ ३९ ॥
श्रीभगवान्
ने कहा—तुमलोग श्रीमदसे अंधे हो रहे थे । मैं पहलेसे ही यह बात जानता था कि परम
कारुणिक देवर्षि नारदने शाप देकर तुम्हारा ऐश्वर्य नष्ट कर दिया तथा इस प्रकार
तुम्हारे ऊपर कृपा की ॥ ४० ॥ जिनकी बुद्धि समदॢशनी है और हृदय पूर्णरूपसे मेरे
प्रति समर्पित है, उन साधु पुरुषोंके दर्शनसे बन्धन होना ठीक
वैसे ही सम्भव नहीं है, जैसे सूर्योदय होनेपर मनुष्यके
नेत्रोंके सामने अन्धकारका होना ॥ ४१ ॥ इसलिये नलकूबर और मणिग्रीव ! तुमलोग मेरे
परायण होकर अपने-अपने घर जाओ । तुमलोगोंको संसारचक्रसे छुड़ानेवाले अनन्य
भक्तिभावकी, जो तुम्हें अभीष्ट है, प्राप्ति
हो गयी है ॥ ४२ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—जब भगवान् ने इस प्रकार कहा, तब उन दोनों ने उनकी
परिक्रमा की और बार-बार प्रणाम किया । इसके बाद ऊखलमें बँधे हुए सर्वेश्वर की आज्ञा
प्राप्त करके उन लोगों ने उत्तर दिशाकी यात्रा की[9] ॥ ४३ ॥
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[8]
सर्वदा मैं मुक्त रहता हूँ और बद्ध जीव मेरी स्तुति करते हैं । आज मैं बद्ध हूँ और
मुक्त जीव मेरी स्तुति कर रहे हैं । यह विपरीत दशा देखकर भगवान् को हँसी आ गयी ।
[9]
यक्षोंने विचार किया कि जबतक यह सगुण (रस्सी) में बँधे हुए हैं, तभीतक हमें इनके दर्शन हो रहे हैं । निर्गुणको तो मनसे सोचा भी नहीं जा
सकता । इसीसे भगवान् के बँधे रहते ही वे चले गये ।
स्वस्त्यस्तु
उलूखल सर्वदा श्रीकृष्णगुणशाली एव भूया:।
‘ऊखल ! तुम्हारा कल्याण हो, तुम सदा श्रीकृष्ण के
गुणों से बँधे रहो।’—ऐसा ऊखल को आशीर्वाद देकर यक्ष वहाँ से
चले गये।
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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