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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
यमलार्जुन
का उद्धार
देवर्षिर्मे
प्रियतमो यदिमौ धनदात्मजौ ।
तत्तथा
साधयिष्यामि यद्गीतं तन्महात्मना ॥ २५ ॥
इत्यन्तरेणार्जुनयोः
कृष्णस्तु यमयोर्ययौ ।
आत्मनिर्वेशमात्रेण
तिर्यग्गतं उलूखलम् ॥ २६ ॥
बालेन
निष्कर्षयतान्वगुलूखलं तद्
दामोदरेण
तरसोत्कलिताङ्घ्रिबन्धौ ।
निष्पेततुः
परमविक्रमितातिवेप
स्कन्धप्रवालविटपौ
कृतचण्डशब्दौ ॥ २७ ॥
तत्र
श्रिया परमया ककुभः स्फुरन्तौ
सिद्धावुपेत्य
कुजयोरिव जातवेदाः ।
कृष्णं
प्रणम्य शिरसाखिललोकनाथं
बद्धाञ्जली
विरजसाविदमूचतुः स्म ॥ २८ ॥
कृष्ण
कृष्ण महायोगिन् त्वमाद्यः पुरुषः परः ।
व्यक्ताव्यक्तमिदं
विश्वं रूपं ते ब्राह्मणा विदुः ॥ २९ ॥
त्वमेकः
सर्वभूतानां देहास्वात्मेन्द्रियेश्वरः ।
त्वमेव
कालो भगवान् विष्णुरव्यय ईश्वरः ॥ ३० ॥
त्वं
महान् प्रकृतिः सूक्ष्मा रजःसत्त्वतमोमयी ।
त्वमेव
पुरुषोऽध्यक्षः सर्वक्षेत्रविकारवित् ॥ ३१ ॥
गृह्यमाणैस्त्वमग्राह्यो
विकारैः प्राकृतैर्गुणैः ।
को
न्विहार्हति विज्ञातुं प्राक्सिद्धं गुणसंवृतः ॥ ३२ ॥
भगवान्
ने सोचा कि ‘देवर्षि नारद मेरे अत्यन्त प्यारे हैं और ये दोनों भी मेरे भक्त कुबेरके
लडक़े हैं । इसलिये महात्मा नारद ने जो कुछ कहा है, उसे मैं
ठीक उसी रूपमें पूरा करूँगा’[5] ॥ २५ ॥ यह विचार करके भगवान्
श्रीकृष्ण दोनों वृक्षों के बीचमें घुस गये[6] । वे तो दूसरी ओर निकल गये, परंतु ऊखल टेढ़ा होकर अटक गया ॥ २६ ॥ दामोदर भगवान् श्रीकृष्ण की कमर में
रस्सी कसी हुई थी । उन्होंने अपने पीछे लुढक़ते हुए ऊखल को ज्यों ही तनिक जोर से
खींचा, त्यों ही पेड़ों की सारी जड़ें उखड़ गयीं[7] । समस्त
बल-विक्रम के केन्द्र भगवान् का तनिक-सा जोर लगते ही पेड़ोंके तने, शाखाएँ, छोटी-छोटी डालियाँ और एक-एक पत्ते काँप उठे
और वे दोनों बड़े जोर से तड़तड़ाते हुए पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ २७ ॥ उन दोनों वृक्षों
में से अग्नि के समान तेजस्वी दो सिद्ध पुरुष निकले । उनके चमचमाते हुए सौन्दर्य से
दिशाएँ दमक उठीं । उन्होंने सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी भगवान् श्रीकृष्णके पास आकर
उनके चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया और हाथ जोडक़र शुद्ध हृदयसे वे उनकी इस प्रकार
स्तुति करने लगे— ॥ २८ ॥
उन्होंने
कहा—सच्चिदानन्दघनस्वरूप ! सबको अपनी ओर आकर्षित करनेवाले परम योगेश्वर
श्रीकृष्ण ! आप प्रकृतिसे अतीत स्वयं पुरुषोत्तम हैं । वेदज्ञ ब्राह्मण यह बात
जानते हैं कि यह व्यक्त और अव्यक्त सम्पूर्ण जगत् आपका ही रूप है ॥ २९ ॥ आप ही
समस्त प्राणियोंके शरीर, प्राण, अन्त:करण
और इन्द्रियोंके स्वामी हैं । तथा आप ही सर्वशक्तिमान् काल, सर्वव्यापक
एवं अविनाशी ईश्वर हैं ॥ ३० ॥ आप ही महत्तत्त्व और वह प्रकृति हैं, जो अत्यन्त सूक्ष्म एवं सत्त्वगुण, रजोगुण और
तमोगुणरूपा है । आप ही समस्त स्थूल और सूक्ष्म शरीरोंके कर्म, भाव, धर्म और सत्ताको जाननेवाले सबके साक्षी
परमात्मा हैं ॥ ३१ ॥ वृत्तियोंसे ग्रहण किये जानेवाले प्रकृतिके गुणों और
विकारोंके द्वारा आप पकड़में नहीं आ सकते । स्थूल और सूक्ष्म शरीरके आवरणसे ढका
हुआ ऐसा कौन-सा पुरुष है, जो आपको जान सके ? क्योंकि आप तो उन शरीरोंके पहले भी एकरस विद्यमान थे ॥ ३२ ॥
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भगवान् श्रीकृष्ण अपनी कृपादृष्टिसे उन्हें मुक्त कर सकते थे । परंतु वृक्षोंके
पास जानेका कारण यह है कि देवर्षि नारदने कहा था कि तुम्हें वासुदेवका सान्निध्य
प्राप्त होगा ।
[6]
वृक्षोंके बीचमें जानेका आशय यह है कि भगवान् जिसके अन्तर्देशमें प्रवेश करते हैं, उसके जीवनमें क्लेशका लेश भी नहीं रहता । भीतर प्रवेश किये बिना दोनोंका एक
साथ उद्धार भी कैसे होता ।
[7]
जो भगवान् के गुण (भक्त-वात्सल्य आदि सद्गुण या रस्सी) से बँधा हुआ है, वह तिर्यक् गति (पशु-पक्षी या टेढ़ी चालवाला) ही क्यों न हो—दूसरोंका उद्धार कर सकता है । अपने अनुयायीके द्वारा किया हुआ काम जितना
यशस्कर होता है, उतना अपने हाथसे नहीं। मानो यही सोचकर अपने
पीछे-पीछे चलनेवाले ऊखलके द्वारा उनका उद्धार करवाया।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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