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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
यमलार्जुन
का उद्धार
यथा
कण्टकविद्धाङ्गो जन्तोर्नेच्छति तां व्यथाम् ।
जीवसाम्यं
गतो लिङ्गैः न तथाविद्धकण्टकः ॥ १४ ॥
दरिद्रो
निरहंस्तम्भो मुक्तः सर्वमदैरिह ।
कृच्छ्रं
यदृच्छयाऽऽप्नोति तद्धि तस्य परं तपः ॥ १५ ॥
नित्यं
क्षुत्क्षामदेहस्य दरिद्रस्यान्नकाङ्क्षिणः ।
इन्द्रियाणि
अनुशुष्यन्ति हिंसापि विनिवर्तते ॥ १६ ॥
दरिद्रस्यैव
युज्यन्ते साधवः समदर्शिनः ।
सद्भिः
क्षिणोति तं तर्षं तत आराद्विशुद्ध्यति ॥ १७ ॥
साधूनां
समचित्तानां मुकुन्द चरणैषिणाम् ।
उपेक्ष्यैः
किं धनस्तम्भैः असद्भिः असदाश्रयैः ॥ १८ ॥
तदहं
मत्तयोर्माध्व्या वारुण्या श्रीमदान्धयोः ।
तमोमदं
हरिष्यामि स्त्रैणयोः अजितात्मनोः ॥ १९ ॥
यदिमौ
लोकपालस्य पुत्रौ भूत्वा तमःप्लुतौ ।
न
विवाससमात्मानं विजानीतः सुदुर्मदौ ॥ २० ॥
अतोऽर्हतः
स्थावरतां स्यातां नैवं यथा पुनः ।
स्मृतिः
स्यात् मत्प्रसादेन तत्रापि मदनुग्रहात् ॥ २१ ॥
वासुदेवस्य
सान्निध्यं लब्ध्वा दिव्यशरच्छते ।
वृत्ते
स्वर्लोकतां भूयो लब्धभक्ती भविष्यतः ॥ २२ ॥
श्रीशुक
उवाच ।
एवमुक्त्वा
स देवर्षिः गतो नारायणाश्रमम् ।
नलकूवरमणिग्रीवौ
आसतुः यमलार्जुनौ ॥ २३ ॥
ऋषेर्भागवत
मुख्यस्य सत्यं कर्तुं वचो हरिः ।
जगाम
शनकैस्तत्र यत्रास्तां यमलार्जुनौ ॥ २४ ॥
जिसके
शरीर में एक बार काँटा गड़ जाता है, वह नहीं चाहता कि
किसी भी प्राणी को काँटा गडऩे की पीड़ा सहनी पड़े; क्योंकि
उस पीड़ा और उसके द्वारा होनेवाले विकारों से वह समझता है कि दूसरे को भी वैसी ही
पीड़ा होती है । परंतु जिसे कभी काँटा गड़ा ही नहीं, वह उसकी
पीड़ा का अनुमान नहीं कर सकता ॥ १४ ॥ दरिद्र में घमंड और हेकड़ी नहीं होती;
वह सब तरह के मदों से बचा रहता है । बल्कि दैववश उसे जो कष्ट उठाना
पड़ता है, वह उसके लिये एक बहुत बड़ी तपस्या भी है ॥ १५ ॥
जिसे प्रतिदिन भोजनके लिये अन्न जुटाना पड़ता है, भूखसे
जिसका शरीर दुबला-पतला हो गया है, उस दरिद्रकी इन्द्रियाँ भी
अधिक विषय नहीं भोगना चाहतीं, सूख जाती हैं और फिर वह अपने
भोगोंके लिये दूसरे प्राणियोंको सताता नहीं—उनकी हिंसा नहीं
करता ॥ १६ ॥ यद्यपि साधु पुरुष समदर्शी होते हैं, फिर भी
उनका समागम दरिद्रके लिये ही सुलभ है; क्योंकि उसके भोग तो
पहलेसे ही छूटे हुए हैं । अब संतोंके सङ्गसे उसकी लालसा-तृष्णा भी मिट जाती है और
शीघ्र ही उसका अन्त:करण शुद्ध हो जाता है [2] ॥ १७ ॥ जिन महात्माओंके चित्तमें
सबके लिये समता है, जो केवल भगवान् के चरणारविन्दोंका मकरन्द-रस पीनेके लिये सदा उत्सुक रहते हैं,
उन्हें दुर्गुणोंके खजाने अथवा दुराचारियों की जीविका चलानेवाले और
धनके मदसे मतवाले दुष्टोंकी क्या आवश्यकता है ? वे तो उनकी
उपेक्षाके ही पात्र हैं [3] ॥ १८ ॥ ये दोनों यक्ष वारुणी मदिराका पान करके मतवाले
और श्रीमदसे अंधे हो रहे हैं । अपनी इन्द्रियोंके अधीन रहनेवाले इन स्त्री-लम्पट
यक्षोंका अज्ञानजनित मद मैं चूर-चूर कर दूँगा ॥ १९ ॥ देखो तो सही, कितना अनर्थ है कि ये लोकपाल कुबेरके पुत्र होनेपर भी मदोन्मत्त होकर अचेत
हो रहे हैं और इनको इस बातका भी पता नहीं है कि हम बिलकुल नंग-धड़ंग हैं ॥ २० ॥
इसलिये ये दोनों अब वृक्षयोनिमें जानेके योग्य हैं। ऐसा होनेसे इन्हें फिर इस
प्रकारका अभिमान न होगा। वृक्षयोनिमें जानेपर भी मेरी कृपासे इन्हें भगवान् की
स्मृति बनी रहेगी और मेरे अनुग्रहसे देवताओंके सौ वर्ष बीतनेपर इन्हें भगवान्
श्रीकृष्णका सान्ङ्क्षनध्य प्राप्त होगा; और फिर भगवान् के
चरणोंमें परम प्रेम प्राप्त करके ये अपने लोकमें चले आयेंगे ॥ २१-२२ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—देवर्षि नारद इस प्रकार कहकर भगवान् नर-नारायण के आश्रमपर चले गये[4] । नलकूबर
और मणिग्रीव—ये दोनों एक ही साथ अर्जुन वृक्ष होकर यमलार्जुन
नामसे प्रसिद्ध हुए ॥ २३ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने परम प्रेमी भक्त देवर्षि
नारदजी की बात सत्य करने के लिये धीरे-धीरे ऊखल घसीटते हुए उस ओर प्रस्थान किया,
जिधर यमलार्जुन वृक्ष थे
॥
२४ ॥
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[2]
धनी पुरुष में तीन दोष होते हैं—धन, धनका
अभिमान और धनकी तृष्णा । दरिद्र पुरुषमें पहले दो नहीं होते, केवल तीसरा ही दोष रहता है । इसलिये सत्पुरुषों के सङ्ग से धनकी तृष्णा
मिट जानेपर धनियों की अपेक्षा उसका शीघ्र कल्याण हो जाता है ।
[3]
धन स्वयं एक दोष है । सातवें स्कन्ध में कहा है कि जितने से पेट भर जाय, उससे अधिक को अपना माननेवाला चोर है और दण्डका पात्र है—‘स स्तेनो दण्डमहर्ति ।’ भगवान् भी कहते हैं—जिसपर मैं अनुग्रह करता हूँ, उसका धन छीन लेता हूँ ।
इसीसे सत्पुरुष प्राय: धनियोंकी उपेक्षा करते हैं ।
[4]
१. शाप-वरदान से तपस्या क्षीण होती है । नलकूबर-मणिग्रीव को शाप देनेके पश्चात्
नर-नारायण-आश्रम की यात्रा करनेका यह अभिप्राय है कि फिरसे तप:सञ्चय कर लिया जाय ।
२.
मैंने यक्षोंपर जो अनुग्रह किया है, वह बिना तपस्याके
पूर्ण नहीं हो सकता है, इसलिये ।
३.
अपने आराध्यदेव एवं गुरुदेव नारायणके सम्मुख अपना कृत्य निवेदन करनेके लिये ।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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