॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
यमलार्जुन
का उद्धार
श्रीनारद
उवाच ।
न
ह्यन्यो जुषतो जोष्यान् बुद्धिभ्रंशो रजोगुणः ।
श्रीमदादाभिजात्यादिः
यत्र स्त्री द्यूतमासवः ॥ ८ ॥
हन्यन्ते
पशवो यत्र निर्दयैः अजितात्मभिः ।
मन्यमानैरिमं
देहः अजरामृत्यु नश्वरम् ॥ ९ ॥
देवसंज्ञितमप्यन्ते
कृमिविड् भस्मसंज्ञितम् ।
भूतध्रुक्
तत्कृते स्वार्थं किं वेद निरयो यतः ॥ १० ॥
देहः
किमन्नदातुः स्वं निषेक्तुर्मातुरेव च ।
मातुः
पितुर्वा बलिनः क्रेतुरग्नेः शुनोऽपि वा ॥ ११ ॥
एवं
साधारणं देहं अव्यक्त प्रभवाप्ययम् ।
को
विद्वान् आत्मसात्कृत्वा हन्ति जन्तूनृतेऽसतः ॥ १२ ॥
असतः
श्रीमदान्धस्य दारिद्र्यं परमञ्जनम् ।
आत्मौपम्येन
भूतानि दरिद्रः परमीक्षते ॥ १३ ॥
नारदजीने
कहा—जो लोग अपने प्रिय विषयोंका सेवन करते हैं, उनकी
बुद्धिको सबसे बढक़र नष्ट करनेवाला है श्रीमद—धन-सम्पत्तिका
नशा । हिंसा आदि रजोगुणी कर्म और कुलीनता आदिका अभिमान भी उससे बढक़र बुद्धि-भ्रंशक
नहीं है; क्योंकि श्रीमदके साथ-साथ तो स्त्री, जूआ और मदिरा भी रहती है ॥ ८ ॥ ऐश्वर्यमद और श्रीमद से अंधे होकर अपनी
इन्द्रियोंके वशमें रहनेवाले क्रूर पुरुष अपने नाशवान् शरीरको तो अजर-अमर मान
बैठते हैं और अपने ही-जैसे शरीरवाले पशुओं की हत्या करते हैं ॥ ९ ॥ जिस शरीरको ‘भूदेव’, ‘नरदेव’, ‘देव’
आदि नामोंसे पुकारते हैं—उसकी अन्तमें क्या
गति होगी ? उसमें कीड़े पड़ जायँगे, पक्षी
खाकर उसे विष्ठा बना देंगे या वह जलकर राखका ढेर बन जायगा । उसी शरीरके लिये
प्राणियोंसे द्रोह करनेमें मनुष्य अपना कौन-सा स्वार्थ समझता है ? ऐसा करनेसे तो उसे नरककी ही प्राप्ति होगी ॥ १० ॥ बतलाओ तो सही, यह शरीर किसकी सम्पत्ति है ? अन्न देकर पालनेवालेकी
है या गर्भाधान करानेवाले पिताकी ? यह शरीर उसे नौ महीने पेट
में रखनेवाली माताका है अथवा माताको भी पैदा करनेवाले नानाका ? जो बलवान् पुरुष बलपूर्वक इससे काम करा लेता है, उसका
है अथवा दाम देकर खरीद लेनेवालेका ? चिताकी जिस धधकती आगमें
यह जल जायगा, उसका है अथवा जो कुत्ते-स्यार इसको चीथ-चीथकर
खा जानेकी आशा लगाये बैठे हैं, उनका ? ॥
११ ॥ यह शरीर एक साधारण-सी वस्तु है। प्रकृतिसे पैदा होता है और उसीमें समा जाता
है । ऐसी स्थितिमें मूर्ख पशुओंके सिवा और ऐसा कौन बुद्धिमान् है जो इसको अपना
आत्मा मानकर दूसरोंको कष्ट पहुँचायेगा, उनके प्राण लेगा ॥ १२
॥ जो दुष्ट श्रीमदसे अंधे हो रहे हैं, उनकी आँखोंमें ज्योति
डालनेके लिये दरिद्रता ही सबसे बड़ा अंजन है; क्योंकि दरिद्र
यह देख सकता है कि दूसरे प्राणी भी मेरे ही जैसे हैं ॥ १३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें