॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
यमलार्जुन
का उद्धार
श्रीराजोवाच
।
कथ्यतां
भगवन् एतत् तयोः शापस्य कारणम् ।
यत्तद्विगर्हितं
कर्म येन वा देवर्षेस्तमः ॥ १ ॥
श्रीशुक
उवाच ।
रुद्रस्यानुचरौ
भूत्वा सुदृप्तौ धनदात्मजौ ।
कैलासोपवने
रम्ये मन्दाकिन्यां मदोत्कटौ ॥ २ ॥
वारुणीं
मदिरां पीत्वा मदाघूर्णितलोचनौ ।
स्त्रीजनैः
अनुगायद्भिः चेरतुः पुष्पिते वने ॥ ३ ॥
अन्तः
प्रविश्य गङ्गायां अंभोजवनराजिनि ।
चिक्रीडतुर्युवतिभिः
गजौ इव करेणुभिः ॥ ४ ॥
यदृच्छया
च देवर्षिः भगवांस्तत्र कौरव ।
अपश्यन्नारदो
देवौ क्षीबाणौ समबुध्यत ॥ ५ ॥
तं
दृष्ट्वा व्रीडिता देव्यो विवस्त्राः शापशङ्किताः ।
वासांसि
पर्यधुः शीघ्रं विवस्त्रौ नैव गुह्यकौ ॥ ६ ॥
तौ
दृष्ट्वा मदिरामत्तौ श्रीमदान्धौ सुरात्मजौ ।
तयोरनुग्रहार्थाय
शापं दास्यन् इदं जगौ ॥ ७ ॥
राजा
परीक्षित् ने पूछा—भगवन् ! आप कृपया यह बतलाइये कि नलकूबर और मणिग्रीव को शाप क्यों मिला । उन्होंने
ऐसा कौन-सा निन्दित कर्म किया था, जिसके कारण परम शान्त
देवर्षि नारदजी को भी क्रोध आ गया ? ॥ १ ॥
श्रीशुकदेवजीने
कहा—परीक्षित् ! नलकूबर और मणिग्रीव—ये दोनों एक तो
धनाध्यक्ष कुबेर के लाड़ले लडक़े थे और दूसरे इनकी गिनती हो गयी रुद्रभगवान् के
अनुचरोंमें । इससे उनका घमंड बढ़ गया । एक दिन वे दोनों मन्दाकिनीके तटपर कैलासके
रमणीय उपवनमें वारुणी मदिरा पीकर मदोन्मत्त हो गये थे । नशेके कारण उनकी आँखें घूम
रही थीं । बहुत-सी स्त्रियाँ उनके साथ गा बजा रही थीं और वे पुष्पोंसे लदे हुए
वनमें उनके साथ विहार कर रहे थे ॥ २-३ ॥ उस समय गङ्गाजीमें पाँत-के-पाँत कमल खिले
हुए थे । वे स्त्रियोंके साथ जलके भीतर घुस गये और जैसे हाथियों का जोड़ा हथिनियों
के साथ जलक्रीडा कर रहा हो, वैसे ही वे उन युवतियों के साथ
तरह-तरहकी क्रीडा करने लगे ॥ ४ ॥ परीक्षित् ! संयोगवश उधरसे परम समर्थ देवर्षि
नारदजी आ निकले। उन्होंने उन यक्ष-युवकोंको देखा और समझ लिया कि ये इस समय मतवाले
हो रहे हैं ॥ ५ ॥ देवर्षि नारदको देखकर वस्त्रहीन अप्सराएँ लजा गयीं। शापके डरसे
उन्होंने तो अपने-अपने कपड़े झटपट पहन लिये, परंतु इन
यक्षोंने कपड़े नहीं पहने ॥ ६ ॥ जब देवर्षि नारदजीने देखा कि ये देवताओंके पुत्र
होकर श्रीमदसे अन्धे और मदिरापान करके उन्मत्त हो रहे हैं तब उन्होंने उनपर
अनुग्रह करनेके लिये शाप देते हुए यह कहा—[*] ॥ ७ ॥
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देवर्षि नारदके शाप देनेमें दो हेतु थे—एक तो अनुग्रह—उनके मदका नाश करना और दूसरा अर्थ—श्रीकृष्णप्राप्ति
।
ऐसा
प्रतीत होता है कि त्रिकालदर्शी देवर्षि नारद ने अपनी ज्ञानदृष्टिसे यह जान लिया
कि इनपर भगवान् का अनुग्रह होनेवाला है । इसीसे उन्हें भगवान्का भावी कृपापात्र
समझकर ही उनके साथ छेड़-छाड़ की ।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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