॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)
श्रीकृष्ण
का ऊखल से बाँधा जाना
एवं
सन्दर्शिता ह्यङ्ग हरिणा भृत्यवश्यता ।
स्ववशेनापि
कृष्णेन यस्येदं सेश्वरं वशे ॥ १९ ॥
नेमं
विरिञ्चो न भवो न श्रीरप्यङ्गसंश्रया ।
प्रसादं
लेभिरे गोपी यत् तत्प्राप विमुक्तिदात् ॥ २० ॥
नायं
सुखापो भगवान् देहिनां गोपिकासुतः ।
ज्ञानिनां
चात्मभूतानां यथा भक्तिमतां इह ॥ २१ ॥
कृष्णस्तु
गृहकृत्येषु व्यग्रायां मातरि प्रभुः ।
अद्राक्षीत्
अर्जुनौ पूर्वं गुह्यकौ धनदात्मजौ ॥ २२ ॥
पुरा
नारदशापेन वृक्षतां प्रापितौ मदात् ।
नलकूवरमणिग्रीवौ
इति ख्यातौ श्रियान्वितौ ॥ २३ ॥
परीक्षित्
! भगवान् श्रीकृष्ण परम स्वतन्त्र हैं । ब्रह्मा, इन्द्र आदि के
साथ यह सम्पूर्ण जगत् उनके वशमें है । फिर भी इस प्रकार बँधकर उन्होंने संसार को
यह बात दिखला दी कि मैं अपने प्रेमी भक्तों के वश में हूँ[20] ॥ १९ ॥ ग्वालिनी
यशोदा ने मुक्तिदाता मुकुन्द से जो कुछ अनिर्वचनीय कृपाप्रसाद प्राप्त किया वह
प्रसाद ब्रह्मा पुत्र होनेपर भी, शङ्कर आत्मा होनेपर भी और
वक्ष:स्थलपर विराजमान लक्ष्मी अर्धाङ्गिनी होने पर भी न पा सके, न पा सके[21] ॥ २० ॥
यह
गोपिकानन्दन भगवान् अनन्यप्रेमी भक्तोंके लिये जितने सुलभ हैं, उतने देहाभिमानी कर्मकाण्डी एवं तपस्वियों को तथा अपने स्वरूपभूत
ज्ञानियों के लिये भी नहीं हैं[22] ॥ २१ ॥
इसके
बाद नन्दरानी यशोदाजी तो घरके काम-धंधोंमें उलझ गयीं और ऊखलमें बँधे हुए भगवान्
श्यामसुन्दरने उन दोनों अर्जुन-वृक्षोंको मुक्ति देनेकी सोची, जो पहले यक्षराज कुबेरके पुत्र थे[23] ॥ २२ ॥ इनके नाम थे नलकूबर और
मणिग्रीव । इनके पास धन, सौन्दर्य और ऐश्वर्यकी पूर्णता थी ।
इनका घमंड देखकर ही देवर्षि नारदजीने इन्हें शाप दे दिया था और ये वृक्ष हो गये
थे[24] ॥ २३ ॥
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[20]
यद्यपि भगवान् स्वयं परमेश्वर हैं, तथापि प्रेमपरवश
होकर बँध जाना परम चमत्कारकारी होनेके कारण भगवान्का भूषण ही है, दूषण नहीं ।
आत्माराम
होनेपर भी भूख लगना,
पूर्णकाम होनेपर भी अतृप्त रहना, शुद्ध
सत्त्वस्वरूप होनेपर भी क्रोध करना, स्वाराज्य-लक्ष्मीसे
युक्त होनेपर भी चोरी करना, महाकाल यम आदिको भय देनेवाले
होनेपर भी डरना और भागना, मनसे भी तीव्र गतिवाले होनेपर भी
माताके हाथों पकड़ा जाना, आनन्दमय होनेपर भी दुखी होना,
रोना, सर्वव्यापक होनेपर भी बँध जाना—यह सब भगवान् की स्वाभाविक भक्तवश्यता है । जो लोग भगवान् को नहीं जानते
हैं, उनके लिये तो इसका कुछ उपयोग नहीं है, परंतु जो श्रीकृष्णको भगवान्के रूपमें पहचानते हैं, उनके लिये यह अत्यन्त चमत्कारी वस्तु है और यह देखकर—जानकर उनका हृदय द्रवित हो जाता है, भक्तिप्रेमसे
सराबोर हो जाता है । अहो ! विश्वेश्वर प्रभु अपने भक्तके हाथों ऊखलमें बँधे हुए
हैं ।
[21]
इस श्लोकमें तीनों नकारोंका अन्वय ‘लेभिरे’ क्रियाके साथ करना चाहिये । न पा सके,न पा सके,न पा सके ।
[22]
ज्ञानी पुरुष भी भक्ति करें तो उन्हें इन सगुण भगवान्की प्राप्ति हो सकती है, परंतु बड़ी कठिनाईसे। ऊखल बँधे भगवान् सगुण हैं, वे
निर्गुण प्रेमीको कैसे मिलेंगे ?
[23]
स्वयं बँधकर भी बन्धनमें पड़े हुए यक्षोंकी मुक्तिकी चिन्ता करना, सत्पुरुषके सर्वथा योग्य है ।
जब
यशोदा माताकी दृष्टि श्रीकृष्णसे हटकर दूसरेपर पड़ती है, तब वे भी किसी दूसरेको देखने लगते हैं और ऐसा ऊधम मचाते हैं कि सबकी
दृष्टि उनकी ओर खिंच आये । देखिये, पूतना, शकटासुर, तृणावर्त आदिका प्रसङ्ग ।
[24]
ये अपने भक्त कुबेर के पुत्र हैं, इसलिये इनका अर्जुन नाम है । ये
देवर्षि नारद के द्वारा दृष्टिपूत किये जा चुके हैं, इसलिये
भगवान् ने उनकी ओर देखा ।
जिसे
पहले भक्तिकी प्राप्ति हो जाती है, उसपर कृपा करनेके
लिये स्वयं बँधकर भी भगवान् आते हैं ।
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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