बुधवार, 27 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) नवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

श्रीकृष्ण का ऊखल से बाँधा जाना

एवं स्वगेहदामानि यशोदा सन्दधत्यपि ।
गोपीनां सुस्मयन्तीनां स्मयन्ती विस्मिताभवत् ॥ १७ ॥
स्वमातुः स्विन्नगात्राया विस्रस्तकबरस्रजः ।
दृष्ट्वा परिश्रमं कृष्णः कृपयाऽऽसीत् स्वबन्धने ॥ १८ ॥

यशोदारानी ने घर की सारी रस्सियाँ जोड़ डालीं, फिर भी वे भगवान्‌ श्रीकृष्ण को न बाँध सकीं। उनकी असफलतापर देखनेवाली गोपियाँ मुसकराने लगीं और वे स्वयं भी मुसकराती हुई आश्चर्यचकित हो गयीं [18] ॥ १७ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखा कि मेरी मा का शरीर पसीने से लथपथ हो गया है, चोटी में गुँथी हुई मालाएँ गिर गयी हैं और वे बहुत थक भी गयी हैं; तब कृपा करके वे स्वयं ही अपनी मा के बन्धन में बँध गये[19] ॥ १८ ॥
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[18] वे मन-ही-मन सोचतींइसकी कमर मुट्ठीभर की है, फिर भी सैकड़ों हाथ लम्बी रस्सीसे यह नहीं बँधता है । कमर तिलमात्र भी मोटी नहीं होती, रस्सी एक अंगुल भी छोटी नहीं होती, फिर भी वह बँधता नहीं । कैसा आश्चर्य है । हर बार दो अंगुलकी ही कमी होती है, न तीनकी, न चारकी, न एककी । यह कैसा अलौकिक चमत्कार है ।

[19] १. भगवान्‌ श्रीकृष्णने सोचा कि जब मा के हृदय से द्वैत-भावना दूर नहीं हो रही है, तब मैं व्यर्थ अपनी असङ्गता क्यों प्रकट करूँ । जो मुझे बद्ध समझता है उसके लिये बद्ध होना ही उचित है । इसलिये वे बँध गये ।

२. मैं अपने भक्तके छोटे-से गुणको भी पूर्ण कर देता हूँयह सोचकर भगवान्‌ने यशोदा माताके गुण (रस्सी) को अपने बाँधनेयोग्य बना लिया ।

३. यद्यपि मुझमें अनन्त, अचिन्त्य कल्याण-गुण निवास करते हैं, तथापि तबतक वे अधूरे ही रहते हैं, जबतक मेरे भक्त अपने गुणोंकी मुहर उनपर नहीं लगा देते । यही सोचकर यशोदा मैयाके गुणों (वात्सल्य, स्नेह आदि और रज्जु) से अपनेको पूर्णोदर-दामोदर बना लिया ।

४. भगवान्‌ श्रीकृष्ण इतने कोमलहृदय हैं कि अपने भक्तके प्रेमको पुष्ट करनेवाला परिश्रम भी सहन नहीं करते हैं । वे अपने भक्तको परिश्रमसे मुक्त करनेके लिये स्वयं ही बन्धन स्वीकार कर लेते हैं ।

५. भगवान्‌ ने अपने मध्यभागमें बन्धन स्वीकार करके यह सूचित किया कि मुझमें तत्त्वदृष्टिसे बन्धन है ही नहीं; क्योंकि जो वस्तु आगे-पीछे, ऊपर-नीचे नहीं होती, केवल बीचमें भासती है, वह झूठी होती है । इसी प्रकार यह बन्धन भी झूठा है ।

६. भगवान्‌ किसीकी शक्ति, साधन या सामग्रीसे नहीं बँधते । यशोदाजीके हाथों श्यामसुन्दरको न बँधते देखकर पास-पड़ोसकी ग्वालिनें इकट्ठी हो गयीं और कहने लगींयशोदाजी ! लालाकी कमर तो मुट्ठीभर की ही है और छोटी-सी किङ्किणी इसमें रुन-झुन कर रही है । अब यह इतनी रस्सियोंसे नहीं बँधता तो जान पड़ता है कि विधाताने इसके ललाटमें बन्धन लिखा ही नहीं है । इसलिये अब तुम यह उद्योग छोड़ दो ।

यशोदा मैया ने कहाचाहे सन्ध्या हो जाय और गाँवभर की रस्सी क्यों न इकट्ठी करनी पड़े, पर मैं तो इसे बाँधकर ही छोडूंगी । यशोदाजीका यह हठ देखकर भगवान्‌ ने अपना हठ छोड़ दिया; क्योंकि जहाँ भगवान्‌ और भक्त के हठमें विरोध होता है, वहाँ भक्तका ही हठ पूरा होता है । भगवान्‌ बँधते हैं तब, जब भक्तकी थकान देखकर कृपापरवश हो जाते हैं । भक्तके श्रम और भगवान्‌की कृपाकी कमी ही दो अंगुलकी कमी है । अथवा जब भक्त अहंकार करता है कि मैं भगवान्‌ को बाँध लूँगा, तब वह उनसे एक अंगुल दूर पड़ जाता है और भक्तकी नकल करनेवाले भगवान्‌ भी एक अंगुल दूर हो जाते हैं । जब यशोदा माता थक गयीं, उनका शरीर पसीनेसे लथपथ हो गया, तब भगवान्‌ की सर्वशक्तिचक्रवॢतनी परम भास्वती भगवती कृपा-शक्तिने भगवान्‌के हृदयको माखनके समान द्रवित कर दिया और स्वयं प्रकट होकर उसने भगवान्‌की सत्य-संकल्पितता और विभुताको अन्तर्हित कर दिया । इसीसे भगवान्‌ बँध गये ।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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