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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
श्रीकृष्ण
का ऊखल से बाँधा जाना
न
चान्तर्न बहिर्यस्य न पूर्वं नापि चापरम् ।
पूर्वापरं
बहिश्चान्तः जगतो यो जगच्च यः ॥ १३ ॥
तं
मत्वात्मजमव्यक्तं मर्त्यलिङ्गमधोक्षजम् ।
गोपिकोलूखले
दाम्ना बबन्ध प्राकृतं यथा ॥ १४ ॥
तद्दाम
बध्यमानस्य स्वार्भकस्य कृतागसः ।
द्व्यङ्गुलोनमभूत्तेन
सन्दधेऽन्यच्च गोपिका ॥ १५ ॥
यदाऽऽसीत्
तदपि न्यूनं तेनान्यदपि सन्दधे ।
तदपि
द्व्यङ्गुलं न्यूनं यद् यद् आदत्त बन्धनम् ॥ १६ ॥
जिसमें
न बाहर है न भीतर,
न आदि है और न अन्त; जो जगत् के पहले भी थे,
बादमें भी रहेंगे; इस जगत् के भीतर तो हैं ही,
बाहरी रूपोंमें भी हैं; और तो क्या, जगत् के रूपमें भी स्वयं वही हैं;[13] यही नहीं,
जो समस्त इन्द्रियोंसे परे और अव्यक्त हैं—उन्हीं
भगवान् को मनुष्यका-सा रूप धारण करनेके कारण पुत्र समझकर यशोदारानी रस्सीसे
ऊखलमें ठीक वैसे ही बाँध देती हैं, जैसे कोई साधारण-सा बालक
[14] हो ॥ १३-१४ ॥ जब माता यशोदा अपने ऊधमी और नटखट लडक़ेको रस्सीसे बाँधने लगीं,
तब वह दो अंगुल छोटी पड़ गयी ! तब उन्होंने दूसरी रस्सी लाकर उसमें
जोड़ी[15] ॥ १५ ॥ जब वह भी छोटी हो गयी, तब उसके साथ और
जोड़ी[16], इस प्रकार वे ज्यों-ज्यों रस्सी लातीं और जोड़ती
गयीं, त्यों-त्यों जुडऩेपर भी वे सब दो-दो अंगुल छोटी पड़ती
गयीं[17] ॥ १६ ॥
.........................................
[13]
इस श्लोकमें श्रीकृष्णकी ब्रह्मरूपता बतायी गयी है । ‘उपनिषदोंमें जैसे ब्रह्मका वर्णन है—अपूर्वम् अनपरम्
अनन्तरम् अबाह्यम्’ इत्यादि । वही बात यहाँ श्रीकृष्णके
सम्बन्धमें है। वह सर्वाधिष्ठान, सर्वसाक्षी, सर्वातीत, सर्वान्तर्यामी, सर्वोपादान
एवं सर्वरूप ब्रह्म ही यशोदा माताके प्रेमके वश बँधने जा रहा है। बन्धनरूप होनेके
कारण उसमें किसी प्रकारकी असङ्गति या अनौचित्य भी नहीं है।
[14]
यह फिर कभी ऊखलपर जाकर न बैठे इसके लिये ऊखलसे बाँधना ही उचित है; क्योंकि खलका अधिक सङ्ग होनेपर उससे मनमें उद्वेग हो जाता है ।
यह
ऊखल भी चोर ही है,
क्योंकि इसने कन्हैयाके चोरी करनेमें सहायता की है । दोनोंको
बन्धनयोग्य देखकर ही यशोदा माताने दोनोंको बाँधनेका उद्योग किया ।
[15]
यशोदा माता ज्यों-ज्यों अपने स्नेह, ममता आदि गुणों
(सद्गुणों या रस्सियों) से श्रीकृष्णका पेट भरने लगीं, त्यों-त्यों
अपनी नित्यमुक्तता, स्वतन्त्रता आदि सद्गुणोंसे भगवान् अपने
स्वरूपको प्रकट करने लगे ।
[16]
१. संस्कृत-साहित्यमें ‘गुण’ शब्दके अनेक अर्थ हैं—सद्गुण,
सत्त्व आदि गुण और रस्सी । सत्त्व, रज आदि गुण
भी अखिल ब्रह्माण्डनायक त्रिलोकीनाथ भगवान्का स्पर्श नहीं कर सकते । फिर यह
छोटा-सा गुण ( दो बित्तेकी रस्सी) उन्हें कैसे बाँध सकता है । यही कारण है कि
यशोदा माताकी रस्सी पूरी नहीं पड़ती थी ।
२.
संसारके विषय इन्द्रियोंको ही बाँधनेमें समर्थ हैं—विषिण्वन्ति
इति विषया: । ये हृदयमें स्थित अन्तर्यामी और साक्षीको नहीं बाँध सकते । तब
गो-बन्धक (इन्द्रियों या गायोंको बाँधनेवाली) रस्सी गो-पति (इन्द्रियों या गायोंके
स्वामी) को कैसे बाँध सकती है ?
३.
वेदान्तके सिद्धान्तानुसार अध्यस्तमें ही बन्धन होता है, अधिष्ठानमें नहीं । भगवान् श्रीकृष्णका उदर अनन्तकोटि ब्रह्माण्डोंका
अधिष्ठान है । उसमें भला बन्धन कैसे हो सकता है ?
४.
भगवान् जिसको अपनी कृपाप्रसादपूर्ण दृष्टिसे देख लेते हैं, वही सर्वदाके लिये बन्धनसे मुक्त हो जाता है । यशोदा माता अपने हाथमें जो
रस्सी उठातीं, उसीपर श्रीकृष्णकी दृष्टि पड़ जाती । वह स्वयं
मुक्त हो जाती, फिर उसमें गाँठ कैसे लगती ?
५.
कोई साधक यदि अपने गुणोंके द्वारा भगवान्को रिझाना चाहे तो नहीं रिझा सकता । मानो
यही सूचित करनेके लिये कोई भी गुण (रस्सी) भगवान् के उदरको पूर्ण करनेमें समर्थ
नहीं हुआ ।
[17]
रस्सी दो अंगुल ही कम क्यों हुई ? इसपर कहते हैं—
१.
भगवान् ने सोचा कि जब मैं शुद्धहृदय भक्तजनोंको दर्शन देता हूँ, तब मेरे साथ एकमात्र सत्त्वगुणसे ही सम्बन्धकी स्फूर्ति होती है, रज और तमसे नहीं । इसलिये उन्होंने रस्सीको दो अंगुल कम करके अपना भाव प्रकट
किया ।
२.
उन्होंने विचार किया कि जहाँ नाम और रूप होते हैं, वहीं बन्धन
भी होता है । मुझ परमात्मामें बन्धनकी कल्पना कैसे ? जबकि ये
दोनों ही नहीं । दो अंगुलकी कमीका यही रहस्य है ।
३.
दो वृक्षोंका उद्धार करना है । यही क्रिया सूचित करनेके लिये रस्सी दो अंगुल कम
पड़ गयी ।
४.
भगवत्कृपा से द्वैतानुरागी भी मुक्त हो जाता है और असङ्ग भी प्रेमसे बँध जाता है ।
यही दोनों भाव सूचित करनेके लिये रस्सी दो अंगुल कम हो गयी ।
५.
यशोदा माता ने छोटी-बड़ी अनेकों रस्सियाँ अलग-अलग और एक साथ भी भगवान् की कमरमें
लगायीं,
परंतु वे पूरी न पड़ीं; क्योंकि भगवान् में
छोटे-बड़ेका कोई भेद नहीं है । रस्सियोंने कहा—भगवान् के
समान अनन्तता, अनादिता और विभुता हमलोगोंमें नहीं है ।
इसलिये इनको बाँधनेकी बात बंद करो । अथवा जैसे नदियाँ समुद्रमें समा जाती हैं वैसे
ही सारे गुण (सारी रस्सियाँ) अनन्तगुण भगवान्में लीन हो गये, अपना नाम-रूप खो बैठे । ये ही दो भाव सूचित करनेके लिये रस्सियोंमें दो
अंगुलकी न्यूनता हुई ।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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