॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
श्रीकृष्ण
का ऊखल से बाँधा जाना
अन्वञ्चमाना
जननी बृहच्चलत्
श्रोणीभराक्रान्तगतिः
सुमध्यमा ।
जवेन
विस्रंसितकेशबन्धन
च्युतप्रसूनानुगतिः
परामृशत् ॥ १० ॥
कृतागसं
तं प्ररुदन्तमक्षिणी
कर्षन्तमञ्जन्मषिणी
स्वपाणिना ।
उद्वीक्षमाणं
भयविह्वलेक्षणं
हस्ते
गृहीत्वा भिषयन्त्यवागुरत् ॥ ११ ॥
त्यक्त्वा
यष्टिं सुतं भीतं विज्ञायार्भकवत्सला ।
इयेष
किल तं बद्धुं दाम्नातद्वीर्यकोविदा ॥ १२ ॥
जब
इस प्रकार माता यशोदा श्रीकृष्ण के पीछे दौडऩे लगीं तब कुछ ही देर में बड़े-बड़े
एवं हिलते हुए नितम्बों के कारण उनकी चाल धीमी पड़ गयी । वेग से दौडऩे के कारण
चोटी की गाँठ ढीली पड़ गयी । वे ज्यों-ज्यों आगे बढ़तीं, पीछे-पीछे चोटी में गुँथे हुए फूल गिरते जाते । इस प्रकार सुन्दरी यशोदा
ज्यों-त्यों करके उन्हें पकड़ सकीं[10] ॥ १० ॥ श्रीकृष्ण का हाथ पकडक़र वे उन्हें
डराने-धमकाने लगीं । उस समय श्रीकृष्णकी झाँकी बड़ी विलक्षण हो रही थी । अपराध तो
किया ही था, इसलिये रुलाई रोकनेपर भी न रुकती थी । हाथोंसे
आँखें मल रहे थे, इसलिये मुँहपर काजलकी स्याही फैल गयी थी,
पिटनेके भयसे आँखें ऊपरकी ओर उठ गयी थीं, उनसे
व्याकुलता सूचित होती थी[11] ॥ ११ ॥ जब यशोदाजीने देखा कि लल्ला बहुत डर गया है,
तब उनके हृदयमें वात्सल्य-स्नेह उमड़ आया । उन्होंने छड़ी फेंक दी ।
इसके बाद सोचा कि इसको एक बार रस्सीसे बाँध देना चाहिये (नहीं तो यह कहीं भाग
जायगा) । परीक्षित् ! सच पूछो तो यशोदा मैयाको अपने बालकके ऐश्वर्यका पता न
था[12] ॥ १२ ॥
...................................
[10]
माता यशोदाके शरीर और सृंगार दोनों ही विरोधी हो गये—तुम प्यारे कन्हैयाको क्यों खदेड़ रही हो । परंतु मैया ने पकडक़र ही छोड़ा
।
[11]
विश्वके इतिहासमें,
भगवान् के सम्पूर्ण जीवनमें पहली बार स्वयं विश्वेश्वरभगवान् मा के
सामने अपराधी बनकर खड़े हुए हैं । मानो अपराधी भी मैं ही हूँ—इस सत्यका प्रत्यक्ष करा दिया । बायें हाथसे दोनों आँखें रगड़-रगडक़र मानो
उनसे कहलाना चाहते हों कि ये किसी कर्मके कर्ता नहीं हैं । ऊपर इसलिये देख रहे हैं
कि जब माता ही पीटनेके लिये तैयार है, तब मेरी सहायता और कौन
कर सकता है ? नेत्र भयसे विह्वल हो रहे हैं, ये भले ही कह दें कि मैंने नहीं किया, हम कैसे कहें
। फिर तो लीला ही बंद हो जायगी ।
मा
ने डाँटा—अरे, अशान्तप्रकृते ! वानरबन्धो ! मन्थनीस्फोटक ! अब
तुझे मक्खन कहाँसे मिलेगा ? आज मैं तुझे ऐसा बाँधूँगी,
ऐसा बाँधूँगी कि न तो तू ग्वालबालोंके साथ खेल ही सकेगा और न
माखन-चोरी आदि ऊधम ही मचा सकेगा ।
[12]
‘अरी मैया ! मोहि मत मार ।’ माताने कहा—‘यदि तुझे पिटनेका इतना डर था तो मटका क्यों फोड़ा ?’ श्रीकृष्ण—‘अरी मैया ! मैं अब ऐसा कभी नहीं करूँगा ।
तू अपने हाथसे छड़ी डाल दे ।’
श्रीकृष्णका
भोलापन देखकर मैयाका हृदय भर आया, वात्सल्य-स्नेहके समुद्रमें
ज्वार आ गया । वे सोचने लगीं—लाला अत्यन्त डर गया है । कहीं
छोडऩेपर यह भागकर वनमें चला गया तो कहाँ-कहाँ भटकता फिरेगा, भूखा-प्यासा
रहेगा । इसलिये थोड़ी देरतक बाँधकर रख लूँ । दूध-माखन तैयार होनेपर मना लूँगी ।
यही सोच-विचारकर माताने बाँधनेका निश्चय किया । बाँधनेमें वात्सल्य ही हेतु था ।
भगवान्
के ऐश्वर्यका अज्ञान दो प्रकार का होता है, एक तो साधारण
प्राकृत जीवों को और दूसरा भगवान् के नित्यसिद्ध प्रेमी परिकर को । यशोदा मैया
आदि भगवान् की स्वरूपभूता चिन्मयी लीला के अप्राकृत नित्य-सिद्ध परिकर हैं ।
भगवान् के प्रति वात्सल्यभाव, शिशु-प्रेमकी गाढ़ताके कारण
ही उनका ऐश्वर्य-ज्ञान अभिभूत हो जाता है; अन्यथा उनमें
अज्ञानकी संभावना ही नहीं है । इनकी स्थिति तुरीयावस्था अथवा समाधि का भी अतिक्रमण
करके सहज प्रेममें रहती है । वहाँ प्राकृत अज्ञान, मोह,
रजोगुण और तमोगुणकी तो बात ही क्या, प्राकृत
सत्त्वकी भी गति नहीं है । इसलिये इनका अज्ञान भी भगवान्की लीलाकी सिद्धिके लिये
उनकी लीलाशक्तिका ही एक चमत्कार विशेष है ।
तभीतक
हृदयमें जड़ता रहती है,
जबतक चेतनका स्फुरण नहीं होता । श्रीकृष्ण के हाथमें आ जानेपर यशोदा
माताने बाँसकी छड़ी फेंक दी—यह सर्वथा स्वाभाविक है ।
मेरी
तृप्ति का प्रयत्न छोडक़र छोटी-मोटी वस्तुपर दृष्टि डालना केवल अर्थ-हानिका ही हेतु
नहीं है,
मुझे भी आँखोंसे ओझल कर देता है । परंतु सब कुछ छोडक़र मेरे पीछे
दौडऩा मेरी प्राप्तिका हेतु है । क्या मैयाके चरितसे इस बातकी शिक्षा नहीं मिलती ?
मुझे
योगियोंकी भी बुद्धि नहीं पकड़ सकती, परंतु जो सब ओरसे
मुँह मोडक़र मेरी ओर दौड़ता है, मैं उसकी मुट्ठी में आ जाता
हूँ । यही सोचकर भगवान् यशोदा के हाथों पकड़े गये ।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें