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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
श्रीकृष्ण
का ऊखल से बाँधा जाना
उत्तार्य
गोपी सुशृतं पयः पुनः
प्रविश्य
संदृश्य च दध्यमत्रकम् ।
भग्नं
विलोक्य स्वसुतस्य कर्म
तज्जहास
तं चापि न तत्र पश्यती ॥ ७ ॥
उलूखलाङ्घ्रेरुपरि
व्यवस्थितं
मर्काय
कामं ददतं शिचि स्थितम् ।
हैयङ्गवं
चौर्यविशङ्कितेक्षणं
निरीक्ष्य
पश्चात् सुतमागमच्छनैः ॥ ८ ॥
तां
आत्तयष्टिं प्रसमीक्ष्य सत्वरः
ततोऽवरुह्यापससार
भीतवत् ।
गोप्यन्वधावन्न
यमाप योगिनां
क्षमं
प्रवेष्टुं तपसेरितं मनः ॥ ९ ॥
यशोदाजी
औंटे हुए दूधको उतारकर[7] फिर मथनेके घरमें चली आयीं। वहाँ देखती हैं तो दहीका
मटका (कमोरा) टुकड़े-टुकड़े हो गया है। वे समझ गयीं कि यह सब मेरे लालाकी ही करतूत
है। साथ ही उन्हें वहाँ न देखकर यशोदा माता हँसने लगीं ॥ ७ ॥ इधर-उधर ढूँढऩेपर पता
चला कि श्रीकृष्ण एक उलटे हुए ऊखलपर खड़े हैं और छीकेपरका माखन ले-लेकर बंदरोंको
खूब लुटा रहे हैं। उन्हें यह भी डर है कि कहीं मेरी चोरी खुल न जाय, इसलिये चौकन्ने होकर चारों ओर ताकते जाते हैं । यह देखकर यशोदारानी पीछेसे
धीरे-धीरे उनके पास जा पहुँचीं[8] ॥ ८ ॥ जब श्रीकृष्णने देखा कि मेरी मा हाथमें
छड़ी लिये मेरी ही ओर आ रही है, तब झटसे ओखलीपरसे कूद पड़े
और डरे हुएकी भाँति भागे। परीक्षित् ! बड़े-बड़े योगी तपस्याके द्वारा अपने मनको
अत्यन्त सूक्ष्म और शुद्ध बनाकर भी जिनमें प्रवेश नहीं करा पाते, पानेकी बात तो दूर रही, उन्हीं भगवान् के पीछे-पीछे
उन्हें पकडऩेके लिये यशोदाजी दौड़ीं [9] ॥ ९ ॥
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[7]
यशोदा माता दूधके पास पहुँचीं । प्रेमका अद्भुत दृश्य ! पुत्रको गोदसे उतारकर उसके
पेयके प्रति इतनी प्रीति क्यों ? अपनी छातीका दूध तो अपना है,
वह कहीं जाता नहीं । परंतु यह सहस्रों छटी हुई गायोंके दूधसे पालित
पद्मगन्धा गायका दूध फिर कहाँ मिलेगा ? वृन्दावनका दूध
अप्राकृत, चिन्मय, प्रेमजगत्का दूध—माको आते देखकर शर्मसे दब गया । ‘अहो ! आगमें
कूदनेका संकल्प करके मैंने माके स्नेहानन्दमें कितना बड़ा विघ्र कर डाला ? और मा अपना आनन्द छोडक़र मेरी रक्षाके लिये दौड़ी आ रही है । मुझे धिक्कार
है ।’ दूधका उफनना बंद हो गया और वह तत्काल अपने स्थानपर बैठ
गया ।
[8]
‘मा ! तुम अपनी गोदमें नहीं बैठाओगी तो मैं किसी खलकी गोदमें जा बैठूँगा’—यही सोचकर मानो श्रीकृष्ण उलटे ऊखलके ऊपर जा बैठे । उदार पुरुष भले ही
खलोंकी संगतिमें जा बैठें, परंतु उनका शील-स्वभाव बदलता नहीं
है । ऊखलपर बैठकर भी वे बन्दरोंको माखन बाँटने लगे । सम्भव है रामावतारके प्रति जो
कृतज्ञताका भाव उदय हुआ था, उसके कारण अथवा अभी-अभी क्रोध आ
गया था, उसका प्रायश्चित्त करनेके लिये !
श्रीकृष्ण
के नेत्र हैं ‘चौर्यविशङ्कित’ ध्यान करनेयोग्य । वैसे तो उनके ललित,
कलित, छलित, बलित,
चकित आदि अनेकों प्रकारके ध्येय नेत्र हैं, परंतु
ये प्रेमीजनों के हृदयमें गहरी चोट करते हैं ।
[9]
भीत होकर भागते हुए भगवान् हैं । अपूर्व झाँकी है ! ऐश्वर्य को तो मानो मैया के
वात्सल्य प्रेम पर न्योछावर करके व्रज के बाहर ही फेंक दिया है ! कोई असुर
अस्त्र-शस्त्र लेकर आता तो सुदर्शन चक्र का स्मरण करते। मैया की छड़ी का निवारण करने
के लिये कोई भी अस्त्र-शस्त्र नहीं ! भगवान् की यह भयभीत मूर्ति कितनी मधुर है !
धन्य है इस भय को ।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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