मंगलवार, 26 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) नवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

श्रीकृष्ण का ऊखल से बाँधा जाना

उत्तार्य गोपी सुशृतं पयः पुनः
प्रविश्य संदृश्य च दध्यमत्रकम् ।
भग्नं विलोक्य स्वसुतस्य कर्म
तज्जहास तं चापि न तत्र पश्यती ॥ ७ ॥
उलूखलाङ्‌घ्रेरुपरि व्यवस्थितं
मर्काय कामं ददतं शिचि स्थितम् ।
हैयङ्‌गवं चौर्यविशङ्‌कितेक्षणं
निरीक्ष्य पश्चात् सुतमागमच्छनैः ॥ ८ ॥
तां आत्तयष्टिं प्रसमीक्ष्य सत्वरः
ततोऽवरुह्यापससार भीतवत् ।
गोप्यन्वधावन्न यमाप योगिनां
क्षमं प्रवेष्टुं तपसेरितं मनः ॥ ९ ॥

यशोदाजी औंटे हुए दूधको उतारकर[7] फिर मथनेके घरमें चली आयीं। वहाँ देखती हैं तो दहीका मटका (कमोरा) टुकड़े-टुकड़े हो गया है। वे समझ गयीं कि यह सब मेरे लालाकी ही करतूत है। साथ ही उन्हें वहाँ न देखकर यशोदा माता हँसने लगीं ॥ ७ ॥ इधर-उधर ढूँढऩेपर पता चला कि श्रीकृष्ण एक उलटे हुए ऊखलपर खड़े हैं और छीकेपरका माखन ले-लेकर बंदरोंको खूब लुटा रहे हैं। उन्हें यह भी डर है कि कहीं मेरी चोरी खुल न जाय, इसलिये चौकन्ने होकर चारों ओर ताकते जाते हैं । यह देखकर यशोदारानी पीछेसे धीरे-धीरे उनके पास जा पहुँचीं[8] ॥ ८ ॥ जब श्रीकृष्णने देखा कि मेरी मा हाथमें छड़ी लिये मेरी ही ओर आ रही है, तब झटसे ओखलीपरसे कूद पड़े और डरे हुएकी भाँति भागे। परीक्षित्‌ ! बड़े-बड़े योगी तपस्याके द्वारा अपने मनको अत्यन्त सूक्ष्म और शुद्ध बनाकर भी जिनमें प्रवेश नहीं करा पाते, पानेकी बात तो दूर रही, उन्हीं भगवान्‌ के पीछे-पीछे उन्हें पकडऩेके लिये यशोदाजी दौड़ीं [9] ॥ ९ ॥
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[7] यशोदा माता दूधके पास पहुँचीं । प्रेमका अद्भुत दृश्य ! पुत्रको गोदसे उतारकर उसके पेयके प्रति इतनी प्रीति क्यों ? अपनी छातीका दूध तो अपना है, वह कहीं जाता नहीं । परंतु यह सहस्रों छटी हुई गायोंके दूधसे पालित पद्मगन्धा गायका दूध फिर कहाँ मिलेगा ? वृन्दावनका दूध अप्राकृत, चिन्मय, प्रेमजगत्का दूधमाको आते देखकर शर्मसे दब गया । अहो ! आगमें कूदनेका संकल्प करके मैंने माके स्नेहानन्दमें कितना बड़ा विघ्र कर डाला ? और मा अपना आनन्द छोडक़र मेरी रक्षाके लिये दौड़ी आ रही है । मुझे धिक्कार है ।दूधका उफनना बंद हो गया और वह तत्काल अपने स्थानपर बैठ गया ।

[8] मा ! तुम अपनी गोदमें नहीं बैठाओगी तो मैं किसी खलकी गोदमें जा बैठूँगा’—यही सोचकर मानो श्रीकृष्ण उलटे ऊखलके ऊपर जा बैठे । उदार पुरुष भले ही खलोंकी संगतिमें जा बैठें, परंतु उनका शील-स्वभाव बदलता नहीं है । ऊखलपर बैठकर भी वे बन्दरोंको माखन बाँटने लगे । सम्भव है रामावतारके प्रति जो कृतज्ञताका भाव उदय हुआ था, उसके कारण अथवा अभी-अभी क्रोध आ गया था, उसका प्रायश्चित्त करनेके लिये !

श्रीकृष्ण के नेत्र हैं चौर्यविशङ्कितध्यान करनेयोग्य । वैसे तो उनके ललित, कलित, छलित, बलित, चकित आदि अनेकों प्रकारके ध्येय नेत्र हैं, परंतु ये प्रेमीजनों के हृदयमें गहरी चोट करते हैं ।

[9] भीत होकर भागते हुए भगवान्‌ हैं । अपूर्व झाँकी है ! ऐश्वर्य को तो मानो मैया के वात्सल्य प्रेम पर न्योछावर करके व्रज के बाहर ही फेंक दिया है ! कोई असुर अस्त्र-शस्त्र लेकर आता तो सुदर्शन चक्र का स्मरण करते। मैया की छड़ी का निवारण करने के लिये कोई भी अस्त्र-शस्त्र नहीं ! भगवान्‌ की यह भयभीत मूर्ति कितनी मधुर है ! धन्य है इस भय को ।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





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