॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
श्रीकृष्ण
का ऊखल से बाँधा जाना
तां
स्तन्यकाम आसाद्य मथ्नन्तीं जननीं हरिः ।
गृहीत्वा
दधिमन्थानं न्यषेधत्प्रीतिमावहन् ॥ ४ ॥
तमङ्कमारूढमपाययत्
स्तनं
स्नेहस्नुतं
सस्मितमीक्षती मुखम् ।
अतृप्तमुत्सृज्य
जवेन सा ययौ
उत्सिच्यमाने
पयसि त्वधिश्रिते ॥ ५ ॥
सञ्जातकोपः
स्फुरितारुणाधरं
सन्दश्य
दद्भिर्दधिमन्थभाजनम् ।
भित्त्वा
मृषाश्रुर्दृषदश्मना रहो
जघास
हैयङ्गवमन्तरं गतः ॥ ६ ॥
उसी
समय भगवान् श्रीकृष्ण स्तन पीनेके लिये दही मथती हुई अपनी माताके पास आये ।
उन्होंने अपनी माताके हृदयमें प्रेम और आनन्दको और भी बढ़ाते हुए दहीकी मथानी पकड़
ली तथा उन्हें मथनेसे रोक दिया[4] ॥ ४ ॥ श्रीकृष्ण माता यशोदाकी गोदमें चढ़ गये ।
वात्सल्य-स्नेहकी अधिकतासे उनके स्तनोंसे दूध तो स्वयं झर ही रहा था । वे उन्हें
पिलाने लगीं । और मन्द-मन्द मुसकानसे युक्त उनका मुख देखने लगीं । इतनेमें ही
दूसरी ओर अँगीठीपर रखे हुए दूधमें उफान आया । उसे देखकर यशोदाजी उन्हें अतृप्त ही
छोडक़र जल्दीसे दूध उतारनेके लिये चली गयीं[5] ॥ ५ ॥ इससे श्रीकृष्णको कुछ क्रोध आ
गया। उनके लाल-लाल होठ फडक़ने लगे। उन्हें दाँतोंसे दबाकर श्रीकृष्णने पास ही पड़े
हुए लोढ़ेसे दहीका मटका फोड़-फाड़ डाला, बनावटी आँसू
आँखोंमें भर लिये और दूसरे घरमें जाकर अकेलेमें बासी माखन खाने लगे[6] ॥ ६ ॥
.............................................
[4]
हृदयमें लीलाकी सुखस्मृति,
हाथोंसे दधिमन्थन और मुखसे लीलागान—इस प्रकार
मन, तन, वचन तीनोंका श्रीकृष्णके साथ
एकतान संयोग होते ही श्रीकृष्ण जगकर ‘मा-मा’ पुकारने लगे । अबतक भगवान् श्रीकृष्ण सोये हुए-से थे । माकी
स्नेह-साधनाने उन्हें जगा दिया । वे निर्गुणसे सगुण हुए, अचलसे
चल हुए, निष्कामसे सकाम हुए; स्नेहके
भूखे-प्यासे माके पास आये । क्या ही सुन्दर नाम है—‘स्तन्यकाम’
! मन्थन करते समय आये, बैठी-ठालीके पास नहीं ।
सर्वत्र
भगवान् साधनकी प्रेरणा देते हैं, अपनी ओर आकृष्ट करते हैं;
परंतु मथानी पकडक़र मैयाको रोक लिया । ‘मा ! अब
तेरी साधना पूर्ण हो गयी । पिष्ट-पेषण करनेसे क्या लाभ ? अब
मैं तेरी साधनाका इससे अधिक भार नहीं सह सकता ।’ मा प्रेमसे
दब गयी—निहाल हो गयी—मेरा लाला मुझे
इतना चाहता है ।
[5]
मैया मना करती रही—‘नेक-सा माखन तो निकाल लेने दे ।’ ‘ऊँ-ऊँ-ऊँ, मैं तो दूध पीऊँगा’—दोनों हाथोंसे मैयाकी कमर पकडक़र
एक पाँव घुटनेपर रखा और गोदमें चढ़ गये । स्तनका दूध बरस पड़ा । मैया दूध पिलाने
लगी, लाला मुसकराने लगे, आँखें
मुसकानपर जम गयीं । ‘ईक्षती’ पदका यह
अभिप्राय है कि जब लाला मुँह उठाकर देखेगा और मेरी आँखें उसपर लगी मिलेंगी,
तब उसे बड़ा सुख होगा ।
सामने
पद्मगन्धा गायका दूध गरम हो रहा था । उसने सोचा—‘स्नेहमयी मा
यशोदाका दूध कभी कम न होगा, श्यामसुन्दरकी प्यास कभी बुझेगी
नहीं ! उनमें परस्पर होड़ लगी है । मैं बेचारा युग-युगका, जन्म-जन्मका
श्यामसुन्दरके होठोंका स्पर्श करनेके लिये व्याकुल तप-तपकर मर रहा हूँ । अब इस
जीवनसे क्या लाभ जो श्रीकृष्णके काम न आवे । इससे अच्छा है उनकी आँखोंके सामने
आगमें कूद पडऩा ।’ माके नेत्र पहुँच गये । दयाद्र्र माको श्रीकृष्णका
भी ध्यान न रहा; उन्हें एक ओर डालकर दौड़ पड़ी । भक्त भगवान्को
एक ओर रखकर भी दुखियोंकी रक्षा करते हैं । भगवान् अतृप्त ही रह गये । क्या
भक्तोंके हृदय-रससे, स्नेहसे उन्हें कभी तृप्ति हो सकती है ?
उसी दिनसे उनका एक नाम हुआ—‘अतृप्त’ ।
[6]
श्रीकृष्णके होठ फडक़े । क्रोध होठोंका स्पर्श पाकर कृतार्थ हो गया । लाल-लाल होठ
श्वेत-श्वेत दूधकी दँतुलियोंसे दबा दिये गये, मानो सत्त्वगुण
रजोगुणपर शासन कर रहा हो, ब्राह्मण क्षत्रियको शिक्षा दे रहा
हो । वह क्रोध उतरा दधिमन्थनके मटकेपर । उसमें एक असुर आ बैठा था । दम्भने कहा—काम, क्रोध और अतृप्तिके बाद मेरी बारी है । वह आँसू
बनकर आँखोंमें छलक आया । श्रीकृष्ण अपने भक्तजनोंके प्रति अपनी ममताकी धारा
उड़ेलनेके लिये क्या-क्या भाव नहीं अपनाते ? ये काम, क्रोध, लोभ और दम्भ भी आज ब्रह्म-संस्पर्श प्राप्त
करके धन्य हो गये ! श्रीकृष्ण घरमें घुसकर बासी मक्खन गटकने लगे, मानो माको दिखा रहे हों कि मैं कितना भूखा हूँ ।
प्रेमी
भक्तोंके ‘पुरुषार्थ’ भगवान् नहीं हैं, भगवान्
की सेवा है । ये भगवान् की सेवा के लिये भगवान् का भी त्याग कर सकते हैं । मैया के
अपने हाथों दुहा हुआ यह पद्मगन्धा गायों का दूध श्रीकृष्ण के लिये ही गरम हो रहा
था । थोड़ी देरके बाद ही उनको पिलाना था । दूध उफन जायगा तो मेरे लाला भूखे रहेंगे—रोयेंगे, इसीलिये माता ने उन्हें नीचे उतारकर दूध को
सँभाला ।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें