सोमवार, 25 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

श्रीकृष्ण का ऊखल से बाँधा जाना

श्रीशुक उवाच ।
एकदा गृहदासीषु यशोदा नन्दगेहिनी ।
कर्मान्तरनियुक्तासु निर्ममन्थ स्वयं दधि ॥ १ ॥
यानि यानीह गीतानि तद्‍बालचरितानि च ।
दधिनिर्मन्थने काले स्मरन्ती तान्यगायत ॥ २ ॥
क्षौमं वासः पृथुकटितटे
बिभ्रती सूत्रनद्धं ।
पुत्रस्नेहस्नुतकुचयुगं
जातकम्पं च सुभ्रूः ।
रज्ज्वाकर्षश्रमभुजचलत्
कङ्‌कणौ कुण्डले च
स्विन्नं वक्त्रं कबरविगलन्
मालती निर्ममन्थ ॥ ३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! एक समय की बात है, नन्दरानी यशोदाजीने घरकी दासियोंको तो दूसरे कामोंमें लगा दिया और स्वयं (अपने लालाको मक्खन खिलानेके लिये) दही मथने लगीं [1] ॥ १ ॥ मैंने तुमसे अबतक भगवान्‌ की जिन-जिन बाल-लीलाओंका वर्णन किया है, दधिमन्थन के समय वे उन सबका स्मरण करतीं और गाती भी जाती थीं[2] ॥ २ ॥ वे अपने स्थूल कटिभागमें सूतसे बाँधकर रेशमी लहँगा पहने हुए थीं । उनके स्तनोंमेंसे पुत्र-स्नेहकी अधिकतासे दूध चूता जा रहा था और वे काँप भी रहे थे । नेती खींचते रहनेसे बाँहें कुछ थक गयी थीं । हाथोंके कंगन और कानोंके कर्णफूल हिल रहे थे । मुँहपर पसीनेकी बूँदें झलक रही थीं । चोटीमें गुँथे हुए मालतीके सुन्दर पुष्प गिरते जा रहे थे । सुन्दर भौंहोंवाली यशोदा इस प्रकार दही मथ रही थीं[3] ॥ ३ ॥
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[1] इस प्रसङ्गमें एक समयका तात्पर्य है कार्तिक मास । पुराणों में इसे दामोदरमासकहते हैं । इन्द्र-याग के अवसरपर दासियों का दूसरे कामों में लग जाना स्वाभाविक है । नियुक्तासु’—इस पद से ध्वनित होता है कि यशोदा माताने जान-बूझकर दासियों को दूसरे काम में लगा दिया । यशोदा’—नाम उल्लेख करने का अभिप्राय यह है कि अपने विशुद्ध वात्सल्यप्रेमके व्यवहारसे षडैश्वर्यशाली भगवान्‌ को भी प्रेमाधीनता, भक्तवश्यता के कारण अपने भक्तोंके हाथों बँध जानेका यशयही देती हैं । गोपराज नन्द के वात्सल्य-प्रेमके आकर्षण से सच्चिदानन्द-परमानन्दस्वरूप श्रीभगवान्‌ नन्दनन्दनरूपसे जगत्में अवतीर्ण होकर जगत्के लोगोंको आनन्द प्रदान करते हैं । जगत् को इस अप्राकृत परमानन्दका रसास्वादन करानेमें नन्दबाबा ही कारण हैं । उन नन्दकी गृहिणी होनेसे इन्हें नन्दगेहिनीकहा गया है । साथ ही नन्द-गेहिनीऔर स्वयं’—ये दो पद इस बातके सूचक हैं कि दधि-मन्थनकर्म उनके योग्य नहीं है । फिर भी पुत्र-स्नेहकी अधिकतासे यह सोचकर कि मेरे लालाको मेरे हाथका माखन ही भाता है, वे स्वयं ही दधि मथ रही हैं ।

[2] इस श्लोकमें भक्तके स्वरूपका निरूपण है । शरीरसे दधि-मन्थनरूप सेवाकर्म हो रहा है, हृदयमें स्मरणकी धारा सतत प्रवाहित हो रही है, वाणीमें बाल-चरित्रका संगीत । भक्तके तन, मन, वचनसब अपने प्यारेकी सेवामें संलग्र हैं । स्नेह अमूर्त पदार्थ है; वह सेवाके रूपमें ही व्यक्त होता है । स्नेहके ही विलासविशेष हैंनृत्य और संगीत । यशोदा मैयाके जीवनमें इस समय राग और भोग दोनों ही प्रकट हैं ।

[3] कमरमें रेशमी लहँगा डोरीसे कसकर बँधा हुआ है अर्थात् जीवनमें आलस्य, प्रमाद, असावधानी नहीं है । सेवाकर्ममें पूरी तत्परता है । रेशमी लहँगा इसीलिये पहने हैं कि किसी प्रकारकी अपवित्रता रह गयी तो मेरे कन्हैयाको कुछ हो जायगा ।
माताके हृदयका रस स्नेहदूध स्तनके मुँह आ लगा है, चुचुआ रहा है, बाहर झाँक रहा है । श्यामसुन्दर आवें, उनकी दृष्टि पहले मुझपर पड़े और वे पहले माखन न खाकर मुझे ही पीवेंयही उसकी लालसा है ।
स्तनके काँपनेका अर्थ यह है कि उसे डर भी है कि कहीं मुझे नहीं पिया तो !

कङ्कण और कुण्डल नाच-नाचकर मैयाको बधाई दे रहे हैं । यशोदा मैयाके हाथोंके कङ्कण इसलिये झंकार ध्वनि कर रहे हैं कि वे आज उन हाथोंमें रहकर धन्य हो रहे हैं कि जो हाथ भगवान्‌की सेवामें लगे हैं । और कुण्डल यशोदा मैया के मुखसे लीला-गान सुनकर परमानन्दसे हिलते हुए कानोंकी सफलताकी सूचना दे रहे हैं । हाथ वही धन्य हैं, जो भगवान्‌ की सेवा करें और कान वे धन्य हैं, जिनमें भगवान्‌के लीला गुण-गानकी सुधाधारा प्रवेश करती रहे । मुँहपर स्वेद और मालतीके पुष्पोंके नीचे गिरनेका ध्यान माताको नहीं है । वह सृंगार और शरीर भूल चुकी हैं । अथवा मालती के पुष्प स्वयं ही चोटियों से छूटकर चरणोंमें गिर रहे हैं कि ऐसी वात्सल्यमयी मा के चरणों में ही रहना सौभाग्य है, हम सिरपर रहने के अधिकारी नहीं ।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





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