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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
श्रीकृष्ण
का ऊखल से बाँधा जाना
श्रीशुक
उवाच ।
एकदा
गृहदासीषु यशोदा नन्दगेहिनी ।
कर्मान्तरनियुक्तासु
निर्ममन्थ स्वयं दधि ॥ १ ॥
यानि
यानीह गीतानि तद्बालचरितानि च ।
दधिनिर्मन्थने
काले स्मरन्ती तान्यगायत ॥ २ ॥
क्षौमं
वासः पृथुकटितटे
बिभ्रती
सूत्रनद्धं ।
पुत्रस्नेहस्नुतकुचयुगं
जातकम्पं
च सुभ्रूः ।
रज्ज्वाकर्षश्रमभुजचलत्
कङ्कणौ
कुण्डले च
स्विन्नं
वक्त्रं कबरविगलन्
मालती
निर्ममन्थ ॥ ३ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! एक समय की बात है, नन्दरानी यशोदाजीने
घरकी दासियोंको तो दूसरे कामोंमें लगा दिया और स्वयं (अपने लालाको मक्खन खिलानेके
लिये) दही मथने लगीं [1] ॥ १ ॥ मैंने तुमसे अबतक भगवान् की जिन-जिन बाल-लीलाओंका
वर्णन किया है, दधिमन्थन के समय वे उन सबका स्मरण करतीं और
गाती भी जाती थीं[2] ॥ २ ॥ वे अपने स्थूल कटिभागमें सूतसे बाँधकर रेशमी लहँगा पहने
हुए थीं । उनके स्तनोंमेंसे पुत्र-स्नेहकी अधिकतासे दूध चूता जा रहा था और वे काँप
भी रहे थे । नेती खींचते रहनेसे बाँहें कुछ थक गयी थीं । हाथोंके कंगन और कानोंके
कर्णफूल हिल रहे थे । मुँहपर पसीनेकी बूँदें झलक रही थीं । चोटीमें गुँथे हुए
मालतीके सुन्दर पुष्प गिरते जा रहे थे । सुन्दर भौंहोंवाली यशोदा इस प्रकार दही मथ
रही थीं[3] ॥ ३ ॥
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[1]
इस प्रसङ्गमें ‘एक समय’ का तात्पर्य है कार्तिक मास । पुराणों में
इसे ‘दामोदरमास’ कहते हैं । इन्द्र-याग
के अवसरपर दासियों का दूसरे कामों में लग जाना स्वाभाविक है । ‘नियुक्तासु’—इस पद से ध्वनित होता है कि यशोदा माताने
जान-बूझकर दासियों को दूसरे काम में लगा दिया । ‘यशोदा’—नाम उल्लेख करने का अभिप्राय यह है कि अपने विशुद्ध वात्सल्यप्रेमके
व्यवहारसे षडैश्वर्यशाली भगवान् को भी प्रेमाधीनता, भक्तवश्यता
के कारण अपने भक्तोंके हाथों बँध जानेका ‘यश’ यही देती हैं । गोपराज नन्द के वात्सल्य-प्रेमके आकर्षण से
सच्चिदानन्द-परमानन्दस्वरूप श्रीभगवान् नन्दनन्दनरूपसे जगत्में अवतीर्ण होकर
जगत्के लोगोंको आनन्द प्रदान करते हैं । जगत् को इस अप्राकृत परमानन्दका रसास्वादन
करानेमें नन्दबाबा ही कारण हैं । उन नन्दकी गृहिणी होनेसे इन्हें ‘नन्दगेहिनी’ कहा गया है । साथ ही ‘नन्द-गेहिनी’ और ‘स्वयं’—ये दो पद इस बातके सूचक हैं कि दधि-मन्थनकर्म उनके योग्य नहीं है । फिर भी
पुत्र-स्नेहकी अधिकतासे यह सोचकर कि मेरे लालाको मेरे हाथका माखन ही भाता है,
वे स्वयं ही दधि मथ रही हैं ।
[2]
इस श्लोकमें भक्तके स्वरूपका निरूपण है । शरीरसे दधि-मन्थनरूप सेवाकर्म हो रहा है, हृदयमें स्मरणकी धारा सतत प्रवाहित हो रही है, वाणीमें
बाल-चरित्रका संगीत । भक्तके तन, मन, वचन—सब अपने प्यारेकी सेवामें संलग्र हैं । स्नेह अमूर्त पदार्थ है; वह सेवाके रूपमें ही व्यक्त होता है । स्नेहके ही विलासविशेष हैं—नृत्य और संगीत । यशोदा मैयाके जीवनमें इस समय राग और भोग दोनों ही प्रकट
हैं ।
[3]
कमरमें रेशमी लहँगा डोरीसे कसकर बँधा हुआ है अर्थात् जीवनमें आलस्य, प्रमाद, असावधानी नहीं है । सेवाकर्ममें पूरी
तत्परता है । रेशमी लहँगा इसीलिये पहने हैं कि किसी प्रकारकी अपवित्रता रह गयी तो
मेरे कन्हैयाको कुछ हो जायगा ।
माताके
हृदयका रस स्नेह—दूध स्तनके मुँह आ लगा है, चुचुआ रहा है, बाहर झाँक रहा है । श्यामसुन्दर आवें, उनकी दृष्टि
पहले मुझपर पड़े और वे पहले माखन न खाकर मुझे ही पीवें—यही
उसकी लालसा है ।
स्तनके
काँपनेका अर्थ यह है कि उसे डर भी है कि कहीं मुझे नहीं पिया तो !
कङ्कण
और कुण्डल नाच-नाचकर मैयाको बधाई दे रहे हैं । यशोदा मैयाके हाथोंके कङ्कण इसलिये
झंकार ध्वनि कर रहे हैं कि वे आज उन हाथोंमें रहकर धन्य हो रहे हैं कि जो हाथ
भगवान्की सेवामें लगे हैं । और कुण्डल यशोदा मैया के मुखसे लीला-गान सुनकर
परमानन्दसे हिलते हुए कानोंकी सफलताकी सूचना दे रहे हैं । हाथ वही धन्य हैं, जो भगवान् की सेवा करें और कान वे धन्य हैं, जिनमें
भगवान्के लीला गुण-गानकी सुधाधारा प्रवेश करती रहे । मुँहपर स्वेद और मालतीके
पुष्पोंके नीचे गिरनेका ध्यान माताको नहीं है । वह सृंगार और शरीर भूल चुकी हैं ।
अथवा मालती के पुष्प स्वयं ही चोटियों से छूटकर चरणोंमें गिर रहे हैं कि ऐसी
वात्सल्यमयी मा के चरणों में ही रहना सौभाग्य है, हम सिरपर
रहने के अधिकारी नहीं ।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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