॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट११)
नामकरण-संस्कार
और बाललीला
श्रीराजोवाच
।
नन्दः
किमकरोद् ब्रह्मन् श्रेय एवं महोदयम् ।
यशोदा
च महाभागा पपौ यस्याः स्तनं हरिः ॥ ४६ ॥
पितरौ
नान्वविन्देतां कृष्णोदारार्भकेहितम् ।
गायन्त्यद्यापि
कवयो यल्लोकशमलापहम् ॥ ४७ ॥
श्रीशुक
उवाच ।
द्रोणो
वसूनां प्रवरो धरया भार्यया सह ।
करिष्यमाण
आदेशान् ब्रह्मणस्तमुवाच ह ॥ ४८ ॥
जातयोर्नौ
महादेवे भुवि विश्वेश्वरे हरौ ।
भक्तिः
स्यात्परमा लोके ययाञ्जो दुर्गतिं तरेत् ॥ ४९ ॥
अस्त्वित्युक्तः
स भगवान् व्रजे द्रोणो महायशाः ।
जज्ञे
नन्द इति ख्यातो यशोदा सा धराभवत् ॥ ५० ॥
ततो
भक्तिर्भगवति पुत्रीभूते जनार्दने ।
दम्पत्योर्नितरामासीत्
गोपगोपीषु भारत ॥ ५१ ॥
कृष्णो
ब्रह्मण आदेशं सत्यं कर्तुं व्रजे विभुः ।
सहरामो
वसंश्चक्रे तेषां प्रीतिं स्वलीलया ॥ ५२ ॥
राजा
परीक्षित्ने पूछा—भगवन् ! नन्दबाबा ने ऐसा कौन-सा बहुत बड़ा मङ्गलमय साधन किया था ? और परमभाग्यवती यशोदाजीने भी ऐसी कौन-सी तपस्या की थी जिसके कारण स्वयं
भगवान् ने अपने श्रीमुख से उनका स्तनपान किया ॥ ४६ ॥ भगवान् श्रीकृष्णकी वे
बाललीलाएँ, जो वे अपने ऐश्वर्य और महत्ता आदिको छिपाकर
ग्वालबालोंमें करते हैं, इतनी पवित्र हैं कि उनका
श्रवण-कीर्तन करनेवाले लोगोंके भी सारे पाप-ताप शान्त हो जाते हैं । त्रिकालदर्शी
ज्ञानी पुरुष आज भी उनका गान करते रहते हैं । वे ही लीलाएँ उनके जन्मदाता
माता-पिता देवकी- वसुदेवजीको तो देखनेतकको न मिलीं और नन्द-यशोदा उनका अपार सुख
लूट रहे हैं । इसका क्या कारण है ? ॥ ४७ ॥
श्रीशुकदेवजीने
कहा—परीक्षित् ! नन्दबाबा पूर्वजन्ममें एक श्रेष्ठ वसु थे । उनका नाम था
द्रोण और उनकी पत्नीका नाम था धरा । उन्होंने ब्रह्माजीके आदेशोंका पालन करनेकी
इच्छासे उनसे कहा— ॥ ४८ ॥ ‘भगवन् ! जब
हम पृथ्वीपर जन्म लें, तब जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्णमें
हमारी अनन्य प्रेममयी भक्ति हो—जिस भक्तिके द्वारा संसारमें
लोग अनायास ही दुर्गतियोंको पार कर जाते हैं’ ॥ ४९ ॥
ब्रह्माजीने कहा—‘ऐसा ही होगा ।’ वे ही
परमयशस्वी भगवन्मय द्रोण व्रजमें पैदा हुए और उनका नाम हुआ नन्द । और वे ही धरा इस
जन्ममें यशोदाके नामसे उनकी पत्नी हुर्ईं ॥ ५० ॥ परीक्षित् ! अब इस जन्ममें
जन्म-मृत्युके चक्रसे छुड़ानेवाले भगवान् उनके पुत्र हुए और समस्त गोप-गोपियोंकी
अपेक्षा इन पति-पत्नी नन्द और यशोदाजीका उनके प्रति अत्यन्त प्रेम हुआ ॥ ५१ ॥
ब्रह्माजीकी बात सत्य करनेके लिये भगवान् श्रीकृष्ण बलरामजी के साथ व्रजमें रहकर
समस्त व्रजवासियोंको अपनी बाल-लीलासे आनन्दित करने लगे ॥ ५२ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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