॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)
नामकरण-संस्कार
और बाललीला
एतद्विचित्रं
सहजीवकाल
स्वभावकर्माशयलिङ्गभेदम्
।
सूनोस्तनौ
वीक्ष्य विदारितास्ये
व्रजं
सहात्मानमवाप शङ्काम् ॥ ३९ ॥
किं
स्वप्न एतदुत देवमाया
किं
वा मदीयो बत बुद्धिमोहः ।
अथो
अमुष्यैव ममार्भकस्य
यः
कश्चनौत्पत्तिक आत्मयोगः ॥ ४० ॥
अथो
यथावन्न वितर्कगोचरं
चेतोमनःकर्मवचोभिरञ्जसा
।
यदाश्रयं
येन यतः प्रतीयते
सुदुर्विभाव्यं
प्रणतास्मि तत्पदम् ॥ ४१ ॥
अहं
ममासौ पतिरेष मे सुतो
व्रजेश्वरस्याखिलवित्तपा
सती ।
गोप्यश्च
गोपाः सहगोधनाश्च मे
यन्माययेत्थं
कुमतिः स मे गतिः ॥ ४२ ॥
इत्थं
विदित तत्त्वायां गोपिकायां स ईश्वरः ।
वैष्णवीं
व्यतनोन्मायां पुत्रस्नेहमयीं विभुः ॥ ४३ ॥
सद्यो
नष्टस्मृतिर्गोपी साऽऽरोप्यारोहमात्मजम् ।
प्रवृद्धस्नेहकलिल
हृदयासीद् यथा पुरा ॥ ४४ ॥
त्रय्या
चोपनिषद्भिश्च साङ्ख्ययोगैश्च सात्वतैः ।
उपगीयमान
माहात्म्यं हरिं सामन्यतात्मजम् ॥ ४५ ॥
परीक्षित्
! जीव,
काल, स्वभाव, कर्म,
उनकी वासना और शरीर आदिके द्वारा विभिन्न रूपोंमें दीखनेवाला यह
सारा विचित्र संसार, सम्पूर्ण व्रज और अपने-आपको भी
यशोदाजीने श्रीकृष्णके नन्हें-से खुले हुए मुखमें देखा । वे बड़ी शङ्कामें पड़
गयीं ॥ ३९ ॥ वे सोचने लगीं कि ‘यह कोई स्वप्न है या भगवान् की
माया ? कहीं मेरी बुद्धि में ही तो कोई भ्रम नहीं हो गया है ?
सम्भव है, मेरे इस बालक में ही कोई जन्मजात
योगसिद्धि हो’ ॥ ४० ॥ ‘जो चित्त,
मन, कर्म और वाणीके द्वारा ठीक-ठीक तथा सुगमता
से अनुमान के विषय नहीं होते, यह सारा विश्व जिनके आश्रित है,
जो इसके प्रेरक हैं और जिनकी सत्तासे ही इसकी प्रतीति होती है,
जिनका स्वरूप सर्वथा अचिन्त्य है—उन प्रभुको
मैं प्रणाम करती हूँ ॥ ४१ ॥ यह मैं हूँ और ये मेरे पति तथा यह मेरा लडक़ा है,
साथ ही मैं व्रजराजकी समस्त सम्पत्तियोंकी स्वामिनी धर्मपत्नी हूँ;
ये गोपियाँ, गोप और गोधन मेरे अधीन हैं—जिनकी मायासे मुझे इस प्रकारकी कुमति घेरे हुए है, वे
भगवान् ही मेरे एकमात्र आश्रय हैं—मैं उन्हींकी शरणमें हूँ’
॥ ४२ ॥ जब इस प्रकार यशोदा माता श्रीकृष्ण का तत्त्व समझ गयीं,
तब सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापक प्रभु ने अपनी पुत्रस्नेहमयी वैष्णवी
योगमाया का उनके हृदय में संचार कर दिया ॥ ४३ ॥ यशोदाजी को तुरंत वह घटना भूल गयी ।
उन्होंने अपने दुलारे लाल को गोद में उठा लिया । जैसे पहले उनके हृदय में प्रेमका
समुद्र उमड़ता रहता था, वैसे ही फिर उमडऩे लगा ॥ ४४ ॥ सारे
वेद, उपनिषद्,सांख्य, योग और भक्तजन जिनके माहात्म्य का गीत गाते-गाते अघाते नहीं—उन्हीं भगवान् को यशोदा जी अपना पुत्र मानती थीं ॥ ४५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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