॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
गौओं
और गोपों को दावानल से बचाना
श्रीशुक
उवाच ।
क्रीडासक्तेषु
गोपेषु तद्गावो दूरचारिणीः ।
स्वैरं
चरन्त्यो विविशुः तृणलोभेन गह्वरम् ॥ १ ॥
अजा
गावो महिष्यश्च निर्विशन्त्यो वनाद् वनम् ।
ईषीकाटवीं
निर्विविशुः क्रन्दन्त्यो दावतर्षिताः ॥ २ ॥
तेऽपश्यन्तः
पशून् गोपाः कृष्णरामादयस्तदा ।
जातानुतापा
न विदुः विचिन्वन्तो गवां गतिम् ॥ ३ ॥
तृणैस्तत्खुरदच्छिन्नैः
गोष्पदैः अंकितैर्गवाम् ।
मार्गं
अन्वगमन् सर्वे नष्टाजीव्या विचेतसः ॥ ४ ॥
मुञ्जाटव्यां
भ्रष्टमार्गं क्रन्दमानं स्वगोधनम् ।
सम्प्राप्य
तृषिताः श्रान्ताः ततस्ते संन्यवर्तयन् ॥ ५ ॥
ता
आहूता भगवता मेघगम्भीरया गिरा ।
स्वनाम्नां
निनदं श्रुत्वा प्रतिनेदुः प्रहर्षिताः ॥ ६ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! उस समय जब ग्वालबाल खेल-कूदमें लग गये, तब उनकी गौएँ बेरोक-टोक चरती हुई बहुत दूर निकल गयीं और हरी-हरी घास के
लोभ से एक गहन वनमें घुस गयीं ॥ १ ॥ उनकी बकरियाँ, गायें और
भैंसें एक वनसे दूसरे वनमें होती हुई आगे बढ़ गयीं तथा गर्मीके तापसे व्याकुल हो
गयीं। वे बेसुध-सी होकर अन्तमें डकराती हुई मुञ्जाटवी (सरकंडोंके वन)में घुस गयीं
॥ २ ॥ जब श्रीकृष्ण, बलराम आदि ग्वालबालों ने देखा कि हमारे
पशुओंका तो कहीं पता-ठिकाना ही नहीं है, तब उन्हें अपने
खेल-कूदपर बड़ा पछतावा हुआ और वे बहुत कुछ खोज-बीन करनेपर भी अपनी गौओं का पता न
लगा सके ॥ ३ ॥ गौएँ ही तो व्रजवासियों की जीविका का साधन थीं। उनके न मिलनेसे वे
अचेत-से हो रहे थे। अब वे गौओंके खुर और दाँतोंसे कटी हुई घास तथा पृथ्वीपर बने
हुए खुरोंके चिह्नोंसे उनका पता लगाते हुए आगे बढ़े ॥ ४ ॥ अन्तमें उन्होंने देखा
कि उनकी गौएँ मुञ्जाटवी में रास्ता भूलकर डकरा रही हैं। उन्हें पाकर वे लौटानेकी
चेष्टा करने लगे। उस समय वे एकदम थक गये थे और उन्हें प्यास भी बड़े जोरसे लगी हुई
थी। इससे वे व्याकुल हो रहे थे ॥ ५ ॥ उनकी यह दशा देखकर भगवान् श्रीकृष्ण अपनी
मेघ के समान गम्भीर वाणीसे नाम ले-लेकर गौओं को पुकारने लगे। गौएँ अपने नामकी
ध्वनि सुनकर बहुत हर्षित हुर्ईं। वे भी उत्तर में हुंकारने और रँभाने लगीं ॥ ६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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