॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
प्रलम्बासुर-उद्धार
पशूंश्चारयतोर्गोपैस्तद्वने
रामकृष्णयोः
गोपरूपी
प्रलम्बोऽगादसुरस्तज्जिहीर्षया ॥ १७ ॥
तं
विद्वानपि दाशार्हो भगवान्सर्वदर्शनः
अन्वमोदत
तत्सख्यं वधं तस्य विचिन्तयन् ॥ १८ ॥
तत्रोपाहूय
गोपालान्कृष्णः प्राह विहारवित्
हे
गोपा विहरिष्यामो द्वन्द्वीभूय यथायथम् ॥ १९ ॥
तत्र
चक्रुः परिवृढौ गोपा रामजनार्दनौ
कृष्णसङ्घट्टिनः
केचिदासन्रामस्य चापरे ॥ २० ॥
आचेरुर्विविधाः
क्रीडा वाह्यवाहकलक्षणाः
यत्रारोहन्ति
जेतारो वहन्ति च पराजिताः ॥ २१ ॥
वहन्तो
वाह्यमानाश्च चारयन्तश्च गोधनम्
भाण्डीरकं
नाम वटं जग्मुः कृष्णपुरोगमाः ॥ २२ ॥
रामसङ्घट्टिनो
यर्हि श्रीदामवृषभादयः
क्रीडायां
जयिनस्तांस्तानूहुः कृष्णादयो नृप ॥ २३ ॥
उवाह
कृष्णो भगवान्श्रीदामानं पराजितः
वृषभं
भद्रसेनस्तु प्रलम्बो रोहिणीसुतम् ॥ २४ ॥
अविषह्यं
मन्यमानः कृष्णं दानवपुङ्गवः
वहन्
द्रुततरं प्रागादवरोहणतः परम् ॥ २५ ॥
तमुद्वहन्धरणिधरेन्द्र
गौरवं
महासुरो
विगतरयो निजं वपुः
स
आस्थितः पुरटपरिच्छदो बभौ
तडिद्द्युमानुडुपतिवाडिवाम्बुदः
॥ २६ ॥
निरीक्ष्य
तद्वपुरलमम्बरे चरत्-
प्रदीप्तदृग्भ्रुकुटितटोग्रदंष्ट्रकम्
ज्वलच्छिखं
कटककिरीटकुण्डल-
त्विषाद्भुतं
हलधर ईषदत्रसत् ॥ २७ ॥
अथागतस्मृतिरभयो
रिपुं बलो
विहाय
सार्थमिव हरन्तमात्मनः
रुषाहनच्छिरसि
दृढेन मुष्टिना
सुराधिपो
गिरिमिव वज्ररंहसा ॥ २८ ॥
स
आहतः सपदि विशीर्णमस्तको
मुखाद्वमन्रुधिरमपस्मृतोऽसुरः
महारवं
व्यसुरपतत्समीरयन्-
गिरिर्यथा
मघवत आयुधाहतः ॥ २९ ॥
दृष्ट्वा
प्रलम्बं निहतं बलेन बलशालिना
गोपाः
सुविस्मिता आसन्साधु साध्विति वादिनः ॥ ३० ॥
आशिषोऽभिगृणन्तस्तं
प्रशशंसुस्तदर्हणम्
प्रेत्यागतमिवालिङ्ग्य
प्रेमविह्वलचेतसः ॥ ३१ ॥
पापे
प्रलम्बे निहते देवाः परमनिर्वृताः
अभ्यवर्षन्बलं
माल्यैः शशंसुः साधु साध्विति ॥ ३२ ॥
एक
दिन जब बलराम और श्रीकृष्ण ग्वालबालों के साथ उस वनमें गौएँ चरा रहे थे, तब ग्वाल के वेष में प्रलम्ब नाम का एक असुर आया। उसकी इच्छा थी कि मैं
श्रीकृष्ण और बलराम को हर ले जाऊँ ॥ १७ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण सर्वज्ञ हैं। वे उसे
देखते ही पहचान गये। फिर भी उन्होंने उसका मित्रता का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
वे मन-ही-मन यह सोच रहे थे कि किस युक्ति से इसका वध करना चाहिये ॥ १८ ॥
ग्वालबालों में सबसे बड़े खिलाड़ी, खेलोंके आचार्य श्रीकृष्ण
ही थे। उन्होंने सब ग्वालबालोंको बुलाकर कहा—मेरे प्यारे
मित्रो ! आज हमलोग अपनेको उचित रीतिसे दो दलोंमें बाँट लें और फिर आनन्दसे खेलें ॥
१९ ॥ उस खेलमें ग्वालबालोंने बलराम और श्रीकृष्णको नायक बनाया। कुछ श्रीकृष्णके
साथी बन गये और कुछ बलरामके ॥ २० ॥ फिर उन लोगोंने तरह-तरहसे ऐसे बहुत-से खेल खेले,
जिनमें एक दलके लोग दूसरे दलके लोगोंको अपनी पीठपर चढ़ाकर एक
निॢदष्ट स्थानपर ले जाते थे। जीतनेवाला दल चढ़ता था और हारनेवाला दल ढोता था ॥ २१
॥ इस प्रकार एक-दूसरेकी पीठपर चढ़ते-चढ़ाते श्रीकृष्ण आदि ग्वालबाल गौएँ चराते हुए
भाण्डीर नामक वटके पास पहुँच गये ॥ २२ ॥
परीक्षित्
! एक बार बलरामजीके दल वाले श्रीदामा, वृषभ आदि
ग्वालबालों ने खेलमें बाजी मार ली। तब श्रीकृष्ण आदि उन्हें अपनी पीठपर चढ़ाकर
ढोने लगे ॥ २३ ॥ हारे हुए श्रीकृष्णने श्रीदामाको अपनी पीठपर चढ़ाया, भद्रसेनने वृषभको और प्रलम्बने बलरामजीको ॥ २४ ॥ दानवपुङ्गव प्रलम्बने
देखा कि श्रीकृष्ण तो बड़े बलवान् हैं, उन्हें मैं नहीं हरा
सकूँगा। अत: वह उन्हींके पक्षमें हो गया और बलरामजीको लेकर फुर्तीसे भाग चला,
और पीठपरसे उतारनेके लिये जो स्थान नियत था, उससे
आगे निकल गया ॥ २५ ॥ बलरामजी बड़े भारी पर्वतके समान बोझवाले थे। उनको लेकर
प्रलम्बासुर दूरतक न जा सका, उसकी चाल रुक गयी। तब उसने अपना
स्वाभाविक दैत्यरूप धारण कर लिया। उसके काले शरीरपर सोनेके गहने चमक रहे थे और
गौरसुन्दर बलरामजीको धारण करनेके कारण उसकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो बिजलीसे युक्त काला बादल चन्द्रमाको धारण किये हुए हो ॥ २६ ॥ उसकी
आँखें आगकी तरह धधक रही थीं और दाढ़ें भौंहोंतक पहुँची हुई बड़ी भयावनी थीं। उसके
लाल-लाल बाल इस तरह बिखर रहे थे, मानो आगकी लपटें उठ रही
हों। उसके हाथ और पाँवोंमें कड़े, सिरपर मुकुट और कानोंमें
कुण्डल थे। उनकी कान्तिसे वह बड़ा अद्भुत लग रहा था, उस
भयानक दैत्यको बड़े वेगसे आकाशमें जाते देख पहले तो बलरामजी कुछ घबड़ा-से गये ॥ २७
॥ परंतु दूसरे ही क्षणमें अपने स्वरूपकी याद आते ही उनका भय जाता रहा। बलरामजीने
देखा कि जैसे चोर किसीका धन चुराकर ले जाय, वैसे ही यह शत्रु
मुझे चुराकर आकाश-मार्गसे लिये जा रहा है। उस समय जैसे इन्द्रने पर्वतोंपर वज्र
चलाया था, वैसे ही उन्होंने क्रोध करके उसके सिरपर एक घूँसा
कसकर जमाया ॥ २८ ॥ घूँसा लगना था कि उसका सिर चूर-चूर हो गया। वह मुँहसे खून उगलने
लगा, चेतना जाती रही और बड़ा भयङ्कर शब्द करता हुआ इन्द्रके
द्वारा वज्रसे मारे हुए पर्वतके समान वह उसी समय प्राणहीन होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा
॥ २९ ॥
बलरामजी
परम बलशाली थे। जब ग्वालबालोंने देखा कि उन्होंने प्रलम्बासुरको मार डाला, तब उनके आश्चर्यकी सीमा न रही। वे बार-बार ‘वाह-वाह’
करने लगे ॥ ३० ॥ ग्वालबालों का चित्त प्रेमसे विह्वल हो गया। वे
उनके लिये शुभ कामनाओंकी वर्षा करने लगे और मानो मरकर लौट आये हों, इस भावसे आलिङ्गन करके प्रशंसा करने लगे। वस्तुत: बलरामजी इसके योग्य ही
थे ॥ ३१ ॥ प्रलम्बासुर मूर्तिमान् पाप था। उसकी मृत्युसे देवताओंको बड़ा सुख मिला।
वे बलरामजी पर फूल बरसाने लगे और ‘बहुत अच्छा किया’,
‘बहुत अच्छा किया’ इस प्रकार कहकर उनकी
प्रशंसा करने लगे ॥ ३२ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे
प्रलम्बवधो
नामाष्टादशोऽध्यायः ॥१८ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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