॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
ब्रह्माजी
के द्वारा भगवान् की स्तुति
पश्येश
मेऽनार्यमनन्त आद्ये
परात्मनि
त्वय्यपि मायिमायिनि ।
मायां
वितत्येक्षितुमात्मवैभवं
ह्यहं
कियानैच्छमिवार्चिरग्नौ ॥ ९ ॥
अतः
क्षमस्वाच्युत मे रजोभुवो
ह्यजानतस्त्वत्
पृथगीशमानिनः ।
अजावलेपान्धतमोऽन्धचक्षुष
एषोऽनुकम्प्यो
मयि नाथवानिति ॥ १० ॥
क्वाहं
तमोमहदहंखचराग्निवार्भू ।
संवेष्टिताण्डघटसप्तवितस्तिकायः
।
क्वेदृग्विधाविगणिताण्डपराणुचर्या
।
वाताध्वरोमविवरस्य
च ते महित्वम् ॥ ११ ॥
उत्क्षेपणं
गर्भगतस्य पादयोः
किं
कल्पते मातुरधोक्षजागसे ।
किमस्तिनास्तिव्यपदेशभूषितं
तवास्ति
कुक्षेः कियदप्यनन्तः ॥ १२ ॥
प्रभो
! मेरी कुटिलता तो देखिये । आप अनन्त आदि पुरुष परमात्मा हैं और मेरे-जैसे
बड़े-बड़े मायावी भी आपकी मायाके चक्रमें हैं । फिर भी मैंने आपपर अपनी माया
फैलाकर अपना ऐश्वर्य देखना चाहा ! प्रभो ! मैं आपके सामने हूँ ही क्या । क्या आगके
सामने चिनगारीकी भी कुछ गिनती है ? ॥ ९ ॥ भगवन् ! मैं
रजोगुणसे उत्पन्न हुआ हूँ । आपके स्वरूपको मैं ठीक-ठीक नहीं जानता । इसीसे अपनेको
आपसे अलग संसारका स्वामी माने बैठा था । मैं अजन्मा जगत्कर्ता हूँ—इस मायाकृत मोह के घने अन्धकार से मैं अन्धा हो रहा था । इसलिये आप यह
समझकर कि ‘यह मेरे ही अधीन है—मेरा
भृत्य है, इसपर कृपा करनी चाहिये’, मेरा
अपराध क्षमा कीजिये ॥ १० ॥ मेरे स्वामी ! प्रकृति, महत्तत्त्व,
अहंकार, आकाश, वायु,
अग्नि, जल और पृथ्वीरूप आवरणोंसे घिरा हुआ यह
ब्रह्माण्ड ही मेरा शरीर है । और आपके एक-एक रोमके छिद्रमें ऐसे-ऐसे अगणित
ब्रह्माण्ड उसी प्रकार उड़ते-पड़ते रहते हैं, जैसे झरोखेकी
जाली में से आनेवाली सूर्यकी किरणों में रज के छोटे-छोटे परमाणु उड़ते हुए दिखायी
पड़ते हैं । कहाँ अपने परिमाणसे साढ़े तीन हाथके शरीरवाला अत्यन्त क्षुद्र मैं,
और कहाँ आपकी अनन्त महिमा ॥ ११ ॥
वृत्तियों
की पकड़ में न आनेवाले परमात्मन् ! जब बच्चा माताके पेटमें रहता है, तब अज्ञानवश अपने हाथ-पैर पीटता है; परंतु क्या माता
उसे अपराध समझती है या उसके लिये वह कोई अपराध होता है ? ‘है’
और ‘नहीं है’—इन
शब्दोंसे कही जानेवाली कोई भी वस्तु ऐसी है क्या, जो आपकी
कोखके भीतर न हो ? ॥ १२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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