॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)
ब्रह्माजी
के द्वारा भगवान् की स्तुति
जगत्त्रयान्तोदधिसम्प्लवोदे
नारायणस्योदरनाभिनालात्
।
विनिर्गतोऽजस्त्विति
वाङ् न वै मृषा
किं
त्वीश्वर त्वन्न विनिर्गतोऽस्मि ॥ १३ ॥
नारायणस्त्वं
न हि सर्वदेहिनां
आत्मास्यधीशाखिललोकसाक्षी
।
नारायणोऽङ्गं
नरभूजलायनात्
तच्चापि
सत्यं न तवैव माया ॥ १४ ॥
श्रुतियाँ
कहती हैं कि जिस समय तीनों लोक प्रलयकालीन जल में लीन थे, उस समय उस जल में स्थित श्रीनारायणके नाभिकमल से ब्रह्माका जन्म हुआ । उनका
यह कहना किसी प्रकार असत्य नहीं हो सकता । तब आप ही बतलाइये, प्रभो ! क्या मैं आपका पुत्र नहीं हूँ ? ॥ १३ ॥
प्रभो ! आप समस्त जीवोंके आत्मा हैं । इसलिये आप नारायण (नार—जीव और अयन— आश्रय) हैं । आप समस्त जगत् के और जीवों के अधीश्वर हैं, इसलिये
आप नारायण (नार—जीव और अयन—प्रवर्तक)
हैं । आप समस्त लोकोंके साक्षी हैं, इसलिये भी नारायण (नार—जीव और अयन—जाननेवाला) हैं । नर से उत्पन्न होनेवाले
जलमें निवास करनेके कारण जिन्हें नारायण (नार—जल और अयन—निवासस्थान) कहा जाता है, वे भी आपके एक अंश ही हैं
। वह अंशरूपसे दीखना भी सत्य नहीं है, आपकी माया ही है ॥ १४
॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें