॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)
ब्रह्माजी
के द्वारा भगवान् की स्तुति
तच्चेज्जलस्थं
तव सज्जगद्वपुः
किं
मे न दृष्टं भगवंस्तदैव ।
किं
वा सुदृष्टं हृदि मे तदैव
किं
नो सपद्येव पुनर्व्यदर्शि ॥ १५ ॥
अत्रैव
मायाधमनावतारे
ह्यस्य
प्रपञ्चस्य बहिः स्फुटस्य ।
कृत्स्नस्य
चान्तर्जठरे जनन्या
मायात्वमेव
प्रकटीकृतं ते ॥ १६ ॥
यस्य
कुक्षाविदं सर्वं सात्मं भाति यथा तथा ।
तत्त्वय्यपीह
तत् सर्वं किमिदं मायया विना ॥ १७ ॥
अद्यैव
त्वदृतेऽस्य किं मम न ते
मायात्वमादर्शितम्
।
एकोऽसि
प्रथमं ततो व्रजसुहृद्
वत्साः
समस्ता अपि ।
तावन्तोऽसि
चतुर्भुजास्तदखिलैः
साकं
मयोपासिताः ।
तावन्त्येव
जगन्त्यभूस्तदमितं
ब्रह्माद्वयं
शिष्यते ॥ १८ ॥
भगवन्
! यदि आपका वह विराट् स्वरूप सचमुच उस समय जलमें ही था तो मैंने उसी समय उसे क्यों
नहीं देखा,
जब कि मैं कमलनालके मार्गसे उसे सौ वर्षतक जलमें ढूँढ़ता रहा ?
फिर मैंने जब तपस्या की, तब उसी समय मेरे
हृदयमें उसका दर्शन कैसे हो गया ? और फिर कुछ ही क्षणोंमें
वह पुन: क्यों नहीं दीखा, अन्तर्धान क्यों हो गया ? ॥ १५ ॥ मायाका नाश करनेवाले प्रभो ! दूरकी बात कौन करे—अभी इसी अवतारमें आपने इस बाहर दीखनेवाले जगत् को अपने पेटमें ही दिखला
दिया, जिसे देखकर माता यशोदा चकित हो गयी थीं । इससे यही तो
सिद्ध होता है कि यह सम्पूर्ण विश्व केवल आपकी माया-ही-माया है ॥ १६ ॥ जब आपके
सहित यह सम्पूर्ण विश्व जैसा बाहर दीखता है वैसा ही आपके उदरमें भी दीखा, तब क्या यह सब आपकी मायाके बिना ही आपमें प्रतीत हुआ ? अवश्य ही आपकी लीला है ॥ १७ ॥ उस दिनकी बात जाने दीजिये, आजकी ही लीजिये । क्या आज आपने मेरे सामने अपने अतिरिक्त सम्पूर्ण विश्वको
अपनी मायाका खेल नहीं दिखलाया है ? पहले आप अकेले थे । फिर
सम्पूर्ण ग्वालबाल, बछड़े और छड़ी-छीके भी आप ही हो गये ।
उसके बाद मैंने देखा कि आपके वे सब रूप चतुर्भुज हैं और मेरेसहित सब-के-सब तत्त्व
उनकी सेवा कर रहे हैं । आपने अलग-अलग उतने ही ब्रह्माण्डोंका रूप भी धारण कर लिया
था, परंतु अब आप केवल अपरिमित अद्वितीय ब्रह्मरूपसे ही शेष
रह गये हैं ॥ १८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें