॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
कालिय
के कालियदह में आने की कथा तथा
भगवान्
का व्रजवासियों को दावानल से बचाना
कृष्णं
ह्रदाद् विनिष्क्रान्तं दिव्यस्रग् गन्धवाससम् ।
महामणिगणाकीर्णं
जाम्बूनदपरिष्कृतम् ॥ १३ ॥
उपलभ्योत्थिताः
सर्वे लब्धप्राणा इवासवः ।
प्रमोदनिभृतात्मानो
गोपाः प्रीत्याभिरेभिरे ॥ १४ ॥
यशोदा
रोहिणी नन्दो गोप्यो गोपाश्च कौरव ।
कृष्णं
समेत्य लब्धेहा आसन् लब्धमनोरथा ॥ १५ ॥
रामश्चाच्युतमालिङ्ग्य
जहासास्यानुभाववित् ।
नगो
गावो वृषा वत्सा लेभिरे परमां मुदम् ॥ १६ ॥
नन्दं
विप्राः समागत्य गुरवः सकलत्रकाः ।
ऊचुस्ते
कालियग्रस्तो दिष्ट्या मुक्तस्तवात्मजः ॥ १७ ॥
देहि
दानं द्विजातीनां कृष्णनिर्मुक्तिहेतवे ।
नन्दः
प्रीतमना राजन् गाः सुवर्णं तदादिशत् ॥ १८ ॥
यशोदापि
महाभागा नष्टलब्धप्रजा सती ।
परिष्वज्याङ्कमारोप्य
मुमोचाश्रुकलां मुहुः ॥ १९ ॥
तां
रात्रिं तत्र राजेन्द्र क्षुत्तृड्भ्यां श्रमकर्षिताः ।
ऊषुर्व्रयौकसो
गावः कालिन्द्या उपकूलतः ॥ २० ॥
तदा
शुचिवनोद्भूतो दावाग्निः सर्वतो व्रजम् ।
सुप्तं
निशीथ आवृत्य प्रदग्धुमुपचक्रमे ॥ २१ ॥
तत
उत्थाय सम्भ्रान्ता दह्यमाना व्रजौकसः ।
कृष्णं
ययुस्ते शरणं मायामनुजमीश्वरम् ॥ २२ ॥
कृष्ण
कृष्ण महाभाग हे रामामितविक्रम ।
एष
घोरतमो वह्निः तावकान् ग्रसते हि नः ॥ २३ ॥
सुदुस्तरान्नः
स्वान् पाहि कालाग्नेः सुहृदः प्रभो ।
न
शक्नुमः त्वच्चरणं संत्यक्तुं अकुतोभयम् ॥ २४ ॥
इत्थं
स्वजनवैक्लव्यं निरीक्ष्य जगदीश्वरः ।
तं
अग्निं अपिबत् तीव्रं अनंतोऽनन्त शक्तिधृक् ॥ २५ ॥
परीक्षित्
! इधर भगवान् श्रीकृष्ण दिव्य माला, गन्ध, वस्त्र, महामूल्य मणि और सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित
हो उस कुण्डसे बाहर निकले ॥ १३ ॥ उनको देखकर सब-के-सब व्रजवासी इस प्रकार उठ खड़े
हुए, जैसे प्राणोंको पाकर इन्द्रियाँ सचेत हो जाती हैं। सभी
गोपोंका हृदय आनन्दसे भर गया। वे बड़े प्रेम और प्रसन्नतासे अपने कन्हैयाको हृदयसे
लगाने लगे ॥ १४ ॥ परीक्षित् ! यशोदारानी, रोहिणीजी, नन्दबाबा, गोपी और गोप—सभी
श्रीकृष्णको पाकर सचेत हो गये। उनका मनोरथ सफल हो गया ॥ १५ ॥ बलरामजी तो भगवान्का
प्रभाव जानते ही थे। वे श्रीकृष्णको हृदयसे लगाकर हँसने लगे। पर्वत, वृक्ष, गाय, बैल, बछड़े—सब-के-सब आनन्दमग्र हो गये ॥ १६ ॥ गोपोंके
कुलगुरु ब्राह्मणोंने अपनी पत्नियोंके साथ नन्दबाबाके पास आकर कहा—‘नन्दजी ! तुम्हारे बालकको कालिय नागने पकड़ लिया था। सो छूटकर आ गया। यह
बड़े सौभाग्यकी बात है ! ॥ १७ ॥ श्रीकृष्णके मृत्युके मुखसे लौट आनेके उपलक्ष्यमें
तुम ब्राह्मणोंको दान करो।’ परीक्षित् ! ब्राह्मणोंकी बात
सुनकर नन्दबाबाको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने बहुत-सा सोना और गौएँ ब्राह्मणोंको
दान दीं ॥ १८ ॥ परमसौभाग्यवती देवी यशोदाने भी कालके गालसे बचे हुए अपने लालको
गोदमें लेकर हृदयसे चिपका लिया। उनकी आँखोंसे आनन्दके आँसुओंकी बूँदें बार-बार
टपकी पड़ती थीं ॥ १९ ॥
राजेन्द्र!
व्रजवासी और गौएँ सब बहुत ही थक गये थे। ऊपरसे भूख-प्यास भी लग रही थी। इसलिये उस
रात वे व्रजमें नहीं गये,
वहीं यमुनाजीके तटपर सो रहे ॥ २० ॥ गर्मीके दिन थे, उधरका वन सूख गया था। आधी रातके समय उसमें आग लग गयी। उस आगने सोये हुए
व्रजवासियोंको चारों ओरसे घेर लिया और वह उन्हें जलाने लगी ॥ २१ ॥ आगकी आँच लगनेपर
व्रजवासी घबड़ाकर उठ खड़े हुए और लीला-मनुष्य भगवान् श्रीकृष्णकी शरणमें गये ॥ २२
॥ उन्होंने कहा—‘प्यारे श्रीकृष्ण ! श्यामसुन्दर !
महाभाग्यवान् बलराम ! तुम दोनोंका बल-विक्रम अनन्त है। देखो, देखो, भयङ्कर आग तुम्हारे सगे-सम्बन्धी हम स्वजनोंको
जलाना ही चाहती है ॥ २३ ॥ तुममें सब सामर्थ्य है। हम तुम्हारे सुहृद् हैं, इसलिये इस प्रलयकी अपार आग से हमें बचाओ। प्रभो ! हम मृत्युसे नहीं डरते,
परंतु तुम्हारे अकुतोभय चरणकमल छोडऩे में हम असमर्थ हैं ॥ २४ ॥
भगवान् अनन्त हैं; वे अनन्त शक्तियोंको धारण करते हैं,
उन जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्णने जब देखा कि मेरे स्वजन इस प्रकार
व्याकुल हो रहे हैं तब वे उस भयङ्कर आग को पी गये [*] ॥ २५ ॥
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अग्नि-पान
१.
मैं सबका दाह दूर करनेके लिये ही अवतीर्ण हुआ हूँ। इसलिये यह दाह दूर करना भी मेरा
कर्तव्य है।
२.
रामावतारमें श्रीजानकीजी को सुरक्षित रखकर अग्नि ने मेरा उपकार किया था। अब उसको
अपने मुखमें स्थापित करके उसका सत्कार करना कर्तव्य है।
३.
कार्यका कारण में लय होता है। भगवान् के मुख से अग्नि प्रकट हुआ—मुखाद् अग्निरजायत। इसलिये भगवान् ने उसे मुखमें ही स्थापित किया।
४.
मुख के द्वारा अग्नि शान्त करके यह भाव प्रकट किया कि भव-दावाग्नि को शान्त
करनेमें भगवान् के मुख-स्थानीय ब्राह्मण ही समर्थ हैं।
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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