गुरुवार, 25 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

कालिय के कालियदह में आने की कथा तथा

भगवान्‌ का व्रजवासियों को दावानल से बचाना

 

श्रीराजोवाच ।

नागालयं रमणकं कस्मात् तत्याज कालियः ।

कृतं किं वा सुपर्णस्य तेनैकेनासमञ्जसम् ॥ १ ॥

 

श्रीशुक उवाच ।

उपहार्यैः सर्पजनैः मासि मासीह यो बलिः ।

वानस्पत्यो महाबाहो नागानां प्राङ्‌निरूपितः ॥ २ ॥

स्वं स्वं भागं प्रयच्छन्ति नागाः पर्वणि पर्वणि ।

गोपीथायात्मनः सर्वे सुपर्णाय महात्मने ॥ ३ ॥

विषवीर्य मदाविष्टः काद्रवेयस्तु कालियः ।

कदर्थीकृत्य गरुडं स्वयं तं बुभुजे बलिम् ॥ ४ ॥

तच्छ्रुत्वा कुपितो राजन् भगवान् भगवत्प्रियः ।

विजिघांसुर्महावेगः कालियं समुपाद्रवत् ॥ ५ ॥

तमापतन्तं तरसा विषायुधः

प्रत्यभ्ययाद् उच्छ्रितनैकमस्तकः ।

दद्‌भिः सुपर्णं व्यदशद् ददायुधः

कराल जिह्रोच्छ्वसितोग्र लोचनः ॥ ६ ॥

तं तार्क्ष्यपुत्रः स निरस्य मन्युमान्

प्रचण्डवेगो मधुसूदनासनः ।

पक्षेण सव्येन हिरण्यरोचिषा

जघान कद्रुसुतमुग्रविक्रमः ॥ ७ ॥

सुपर्णपक्षाभिहतः कालियोऽतीव विह्वलः ।

ह्रदं विवेश कालिन्द्याः तदगम्यं दुरासदम् ॥ ८ ॥

तत्रैकदा जलचरं गरुडो भक्ष्यमीप्सितम् ।

निवारितः सौभरिणा प्रसह्य क्षुधितोऽहरत् ॥ ९ ॥

मीनान् सुदुःखितान् दृष्ट्वा दीनान् मीनपतौ हते ।

कृपया सौभरिः प्राह तत्रत्यक्षेममाचरन् ॥ १० ॥

अत्र प्रविश्य गरुडो यदि मत्स्यान् स खादति ।

सद्यः प्राणैर्वियुज्येत सत्यमेतद् ब्रवीम्यहम् ॥ ११ ॥

तं कालियः परं वेद नान्यः कश्चन लेलिहः ।

अवात्सीद् गरुडाद् भीतः कृष्णेन च विवासितः ॥ १२ ॥

 

राजा परीक्षित्‌ने पूछाभगवन् ! कालिय नागने नागोंके निवासस्थान रमणक द्वीपको क्यों छोड़ा था ? और उस अकेले ने ही गरुडजीका कौन-सा अपराध किया था ? ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! पूर्वकाल में गरुडजी को उपहारस्वरूप प्राप्त होनेवाले सर्पों ने यह नियम कर लिया था कि प्रत्येक मास में निर्दिष्ट वृक्षके नीचे गरुडको एक सर्प की भेंट दी जाय ॥ २ ॥ इस नियम के अनुसार प्रत्येक अमावस्या को सारे सर्प अपनी रक्षाके लिये महात्मा गरुडजी को अपना-अपना भाग देते रहते थे [*] ॥ ३ ॥ उन सर्पोंमें कद्रू का पुत्र कालिय नाग अपने विष और बलके घमंडसे मतवाला हो रहा था। उसने गरुडका तिरस्कार करके स्वयं तो बलि देना दूर रहादूसरे साँप जो गरुडको बलि देते, उसे भी खा लेता ॥ ४ ॥ परीक्षित्‌ ! यह सुनकर भगवान्‌के प्यारे पार्षद शक्तिशाली गरुडको बड़ा क्रोध आया। इसलिये उन्होंने कालिय नागको मार डालनेके विचारसे बड़े वेगसे उसपर आक्रमण किया ॥ ५ ॥ विषधर कालिय नागने जब देखा कि गरुड बड़े वेगसे मुझपर आक्रमण करने आ रहे हैं, तब वह अपने एक सौ एक फण फैलाकर डसनेके लिये उनपर टूट पड़ा। उसके पास शस्त्र थे केवल दाँत, इसलिये उसने दाँतोंसे गरुडको डस लिया। उस समय वह अपनी भयावनी जीभें लपलपा रहा था, उसकी साँस लंबी चल रही थी और आँखें बड़ी डरावनी जान पड़ती थीं ॥ ६ ॥ तार्क्ष्यनन्दन गरुड जी विष्णुभगवान्‌ के वाहन हैं और उनका वेग तथा पराक्रम भी अतुलनीय है। कालिय नाग की यह ढिठाई देखकर उनका क्रोध और भी बढ़ गया तथा उन्होंने उसे अपने शरीरसे झटककर फेंक दिया एवं अपने सुनहले बायें पंखसे कालिय नागपर बड़े जोरसे प्रहार किया ॥ ७ ॥ उनके पंखकी चोटसे कालिय नाग घायल हो गया। वह घबड़ाकर वहाँसे भगा और यमुनाजीके इस कुण्डमें चला आया। यमुनाजीका यह कुण्ड गरुडके लिये अगम्य था। साथ ही वह इतना गहरा था कि उसमें दूसरे लोग भी नहीं जा सकते थे ॥ ८ ॥ इसी स्थानपर एक दिन क्षुधातुर गरुडने तपस्वी सौभरि के मना करनेपर भी अपने अभीष्ट भक्ष्य मत्स्य को बलपूर्वक पकडक़र खा लिया ॥ ९ ॥ अपने मुखिया मस्त्यराज के मारे जानेके कारण मछलियों को बड़ा कष्ट हुआ। वे अत्यन्त दीन और व्याकुल हो गयीं। उनकी यह दशा देखकर महर्षि सौभरिको बड़ी दया आयी। उन्होंने उस कुण्डमें रहनेवाले सब जीवोंकी भलाई के लिये गरुडको यह शाप दे दिया ॥ १० ॥ यदि गरुड फिर कभी इस कुण्डमें घुसकर मछलियोंको खायेंगे, तो उसी क्षण प्राणोंसे हाथ धो बैठेंगे। मैं यह सत्य-सत्य कहता हूँ॥ ११ ॥ परीक्षित्‌ ! महर्षि सौभरि के इस शापकी बात कालिय नाग के सिवा और कोई साँप नहीं जानता था। इसलिये वह गरुडके भयसे वहाँ रहने लगा था और अब भगवान्‌ श्रीकृष्णने उसे निर्भय करके वहाँसे रमणक द्वीप में भेज दिया ॥ १२ ॥

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[*] यह कथा इस प्रकार हैगरुडजीकी माता विनता और सर्पोंकी माता कद्रूमें परस्पर वैर था। माताका वैर स्मरण कर गरुडजी जो सर्प मिलता उसीको खा जाते। इससे व्याकुल होकर सब सर्प ब्रह्माजीकी शरणमें गये। तब ब्रह्माजीने यह नियम कर दिया कि प्रत्येक अमावस्याको प्रत्येक सर्पपरिवार बारी-बारीसे गरुडजीको एक सर्पकी बलि दिया करे।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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