बुधवार, 24 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

 

कालिय पर कृपा

 

श्रीशुक उवाच ।

इत्याकर्ण्य वचः प्राह भगवान् कार्यमानुषः ।

नात्र स्थेयं त्वया सर्प समुद्रं याहि मा चिरम् ।

स्वज्ञात्यपत्यदाराढ्यो गोनृभिर्भुज्यतां नदी ॥ ६० ॥

य एतत् संस्मरेन् मर्त्यः तुभ्यं मदनुशासनम् ।

कीर्तयन् उभयोः सन्ध्योः न युष्मद् भयमाप्नुयात् ॥ ६१ ॥

योऽस्मिन् स्नात्वा मदाक्रीडे देवादीन् तर्पयेज्जलैः ।

उपोष्य मां स्मरन्नर्चेत् सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ६२ ॥

द्वीपं रमणकं हित्वा ह्रदमेतमुपाश्रितः ।

यद् भयात्स सुपर्णस्त्वां नाद्यान्मत्पाद लाञ्छितम् ॥ ६३ ॥

 

श्रीऋषिरुवाच ।

एवमुक्तो भगवता कृष्णेनाद्‌भुतकर्मणा ।

तं पूजयामास मुदा नागपत्‍न्यश्च सादरम् ॥ ६४ ॥

दिव्याम्बरस्रङ्‌ मणिभिः परार्ध्यैरपि भूषणैः ।

दिव्यगन्धानुलेपैश्च महत्योत्पलमालया ॥ ६५ ॥

पूजयित्वा जगन्नाथं प्रसाद्य गरुडध्वजम् ।

ततः प्रीतोऽभ्यनुज्ञातः परिक्रम्याभिवन्द्य तम् ॥ ६६ ॥

सकलत्रसुहृत्पुत्रो द्वीपमब्धेर्जगाम ह ।

तदैव सामृतजला यमुना निर्विषाभवत् ।

अनुग्रहाद् भगवतः क्रीडामानुषरूपिणः ॥ ६७ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंकालियनाग की बात सुनकर लीला-मनुष्य भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—‘सर्प ! अब तुझे यहाँ नहीं रहना चाहिये। तू अपने जातिभाई, पुत्र और स्त्रियोंके साथ शीघ्र ही यहाँसे समुद्रमें चला जा। अब गौएँ और मनुष्य यमुना-जलका उपभोग करें ॥ ६० ॥ जो मनुष्य दोनों समय तुझको दी हुई मेरी इस आज्ञाका स्मरण तथा कीर्तन करे, उसे साँपोंसे कभी भय न हो ॥ ६१ ॥ मैंने इस कालियदहमें क्रीड़ा की है। इसलिये जो पुरुष इसमें स्नान करके जलसे देवता और पितरोंका तर्पण करेगा, एवं उपवास करके मेरा स्मरण करता हुआ मेरी पूजा करेगावह सब पापोंसे मुक्त हो जायगा ॥ ६२ ॥ मैं जानता हूँ कि तू गरुडके भयसे रमणक द्वीप छोडक़र इस दहमें आ बसा था। अब तेरा शरीर मेरे चरणचिह्नोंसे अङ्कित हो गया है। इसलिये जा, अब गरुड तुझे खायेंगे नहीं ॥ ६३ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंभगवान्‌ श्रीकृष्णकी एक-एक लीला अद्भुत है। उनकी ऐसी आज्ञा पाकर कालिय नाग और उसकी पत्नियोंने आनन्दसे भरकर बड़े आदरसे उनकी पूजा की ॥ ६४ ॥ उन्होंने दिव्य वस्त्र, पुष्पमाला, मणि, बहुमूल्य आभूषण, दिव्य गन्ध, चन्दन और अति उत्तम कमलोंकी मालासे जगत्के स्वामी गरुडध्वज भगवान्‌ श्रीकृष्णका पूजन करके उन्हें प्रसन्न किया। इसके बाद बड़े प्रेम और आनन्दसे उनकी परिक्रमा की, वन्दना की और उनसे अनुमति ली। तब अपनी पत्नियों, पुत्रों और बन्धु-बान्धवोंके साथ रमणक द्वीपकी, जो समुद्रमें सर्पोंके रहनेका एक स्थान है, यात्रा की। लीला-मनुष्य भगवान्‌ श्रीकृष्णकी कृपासे यमुनाजीका जल केवल विषहीन ही नहीं, बल्कि उसी समय अमृतके समान मधुर हो गया ॥ ६५६७ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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