बुधवार, 24 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

 

कालिय पर कृपा

 

त्वं ह्यस्य जन्मस्थितिसंयमान् प्रभो

गुणैरनीहोऽकृत कालशक्तिधृक् ।

तत्तत् स्वभावान् प्रतिबोधयन् सतः

समीक्षयामोघविहार ईहसे ॥ ४९ ॥

तस्यैव तेऽमूस्तनवस्त्रिलोक्यां

शान्ता अशान्ता उत मूढयोनयः ।

शान्ताः प्रियास्ते ह्यधुनावितुं सतां

स्थातुश्च ते धर्मपरीप्सयेहतः ॥ ५० ॥

अपराधः सकृद् भर्त्रा सोढव्यः स्वप्रजाकृतः ।

क्षन्तुमर्हसि शान्तात्मम् मूढस्य त्वामजानतः ॥ ५१ ॥

अनुगृह्णीष्व भगवन् प्राणांस्त्यजति पन्नगः ।

स्त्रीणां नः साधुशोच्यानां पतिः प्राणः प्रदीयताम् ॥ ५२ ॥

विधेहि ते किङ्‌करीणां अनुष्ठेयं तवाज्ञया ।

यच्छ्रद्धयानुतिष्ठन् वै मुच्यते सर्वतो भयात् ॥ ५३ ॥

 

प्रभो ! यद्यपि कर्तापन न होनेके कारण आप कोई भी कर्म नहीं करते, निष्क्रिय हैंतथापि अनादि कालशक्तिको स्वीकार करके प्रकृतिके गुणोंके द्वारा आप इस विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयकी लीला करते हैं। क्योंकि आपकी लीलाएँ अमोघ हैं। आप सत्यसङ्कल्प हैं। इसलिये जीवोंके संस्काररूपसे छिपे हुए स्वभावोंको अपनी दृष्टिसे जाग्रत् कर देते हैं ॥ ४९ ॥ त्रिलोकीमें तीन प्रकारकी योनियाँ हैंसत्त्वगुणप्रधान शान्त, रजोगुणप्रधान अशान्त और तमोगुणप्रधान मूढ़। वे सब-की-सब आपकी लीलामूर्तियाँ हैं। फिर भी इस समय आपको सत्त्वगुणप्रधान शान्तजन ही विशेष प्रिय हैं। क्योंकि आपका यह अवतार और ये लीलाएँ साधुजनोंकी रक्षा तथा धर्मकी रक्षा एवं विस्तारके लिये ही हैं ॥ ५० ॥ शान्तात्मन् ! स्वामीको एक बार अपनी प्रजाका अपराध सह लेना चाहिये। यह मूढ़ है, आपको पहचानता नहीं है, इसलिये इसे क्षमा कर दीजिये ॥ ५१ ॥ भगवन् ! कृपा कीजिये; अब यह सर्प मरने ही वाला है। साधुपुरुष सदासे ही हम अबलाओंपर दया करते आये हैं। अत: आप हमें हमारे प्राणस्वरूप पतिदेवको दे दीजिये ॥ ५२ ॥ हम आपकी दासी हैं। हमें आप आज्ञा दीजिये, आपकी क्या सेवा करें ? क्योंकि जो श्रद्धाके साथ आपकी आज्ञाओंका पालनआपकी सेवा करता है, वह सब प्रकारके भयोंसे छुटकारा पा जाता है ॥ ५३ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌के चरणोंकी ठोकरोंसे कालिय नागके फण छिन्न-भिन्न हो गये थे। वह बेसुध हो रहा था। जब नागपत्नियोंने इस प्रकार भगवान्‌की स्तुति की, तब उन्होंने दया करके उसे छोड़ दिया ॥ ५४ ॥ धीरे-धीरे कालियनागकी इन्द्रियों और प्राणोंमें कुछ-कुछ चेतना आ गयी। वह बड़ी कठिनतासे श्वास लेने लगा और थोड़ी देरके बाद बड़ी दीनतासे हाथ जोडक़र भगवान्‌ श्रीकृष्णसे इस प्रकार बोला ॥ ५५ ॥

 

[कालिय नागने कहा—]नाथ ! हम जन्मसे ही दुष्ट, तमोगुणी और बहुत दिनोंके बाद भी बदला लेनेवालेबड़े क्रोधी जीव हैं। जीवोंके लिये अपना स्वभाव छोड़ देना बहुत कठिन है। इसीके कारण संसारके लोग नाना प्रकारके दुराग्रहोंमें फँस जाते हैं ॥ ५६ ॥ विश्वविधाता ! आपने ही गुणोंके भेदसे इस जगत्  में नाना प्रकारके स्वभाव, वीर्य, बल, योनि, बीज, चित्त और आकृतियोंका निर्माण किया है ॥ ५७ ॥ भगवन् ! आपकी ही सृष्टिमें हम सर्प भी हैं। हम जन्मसे ही बड़े क्रोधी होते हैं। हम इस मायाके चक्करमें स्वयं मोहित हो रहे हैं। फिर अपने प्रयत्नसे इस दुस्त्यज मायाका त्याग कैसे करें ॥ ५८ ॥ आप सर्वज्ञ और सम्पूर्ण जगत्के स्वामी हैं। आप ही हमारे स्वभाव और इस मायाके कारण हैं। अब आप अपनी इच्छासेजैसा ठीक समझेंकृपा कीजिये या दण्ड दीजिये ॥ ५९ ॥

 

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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