मंगलवार, 23 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

 

कालिय पर कृपा

 

नमस्तुभ्यं भगवते पुरुषाय महात्मने ।

भूतावासाय भूताय पराय परमात्मने ॥ ३९ ॥

ज्ञानविज्ञाननिधये ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये ।

अगुणायाविकाराय नमस्तेऽप्राकृताय च ॥ ४० ॥

कालाय कालनाभाय कालावयवसाक्षिणे ।

विश्वाय तदुपद्रष्ट्रे तत्कर्त्रे विश्वहेतवे ॥ ४१ ॥

भूतमात्रेन्द्रियप्राण मनोबुद्ध्याशयात्मने ।

त्रिगुणेनाभिमानेन गूढस्वात्मानुभूतये ॥ ४२ ॥

नमोऽनन्ताय सूक्ष्माय कूटस्थाय विपश्चिते ।

नानावादानुरोधाय वाच्यवाचक शक्तये ॥ ४३ ॥

नमः प्रमाणमूलाय कवये शास्त्रयोनये ।

प्रवृत्ताय निवृत्ताय निगमाय नमो नमः ॥ ४४ ॥

नमः कृष्णाय रामाय वसुदेवसुताय च ।

प्रद्युम्नायानिरुद्धाय सात्वतां पतये नमः ॥ ४५ ॥

नमो गुणप्रदीपाय गुणात्मच्छादनाय च ।

गुणवृत्त्युपलक्ष्याय गुणद्रष्टे स्वसंविदे ॥ ४६ ॥

अव्याकृतविहाराय सर्वव्याकृतसिद्धये ।

हृषीकेश नमस्तेऽस्तु मुनये मौनशीलिने ॥ ४७ ॥

परावरगतिज्ञाय सर्वाध्यक्षाय ते नमः ।

अविश्वाय च विश्वाय तद्द्रष्टेऽस्य च हेतवे ॥ ४८ ॥

 

प्रभो ! हम आपको प्रणाम करती हैं। आप अनन्त एवं अचिन्त्य ऐश्वर्यके नित्य निधि हैं। आप सबके अन्त:करणोंमें विराजमान होनेपर भी अनन्त हैं। आप समस्त प्राणियों और पदार्थोंके आश्रय तथा सब पदार्थोंके रूपमें भी विद्यमान हैं। आप प्रकृतिसे परे स्वयं परमात्मा हैं ॥ ३९ ॥ आप सब प्रकारके ज्ञान और अनुभवोंके खजाने हैं। आपकी महिमा और शक्ति अनन्त है। आपका स्वरूप अप्राकृतदिव्य चिन्मय है, प्राकृतिक गुणों एवं विकारोंका आप कभी स्पर्श ही नहीं करते। आप ही ब्रह्म हैं, हम आपको नमस्कार कर रही हैं ॥ ४० ॥ आप प्रकृतिमें क्षोभ उत्पन्न करनेवाले काल हैं, कालशक्तिके आश्रय हैं और कालके क्षण-कल्प आदि समस्त अवयवोंके साक्षी हैं। आप विश्वरूप होते हुए भी उससे अलग रहकर उसके द्रष्टा हैं। आप उसके बनानेवाले निमित्तकारण तो हैं ही, उसके रूपमें बननेवाले उपादानकारण भी हैं ॥ ४१ ॥ प्रभो ! पञ्चभूत, उनकी तन्मात्राएँ, इन्द्रियाँ, प्राण, मन, बुद्धि और इन सबका खजाना चित्तये सब आप ही हैं। तीनों गुण और उनके कार्योंमें होनेवाले अभिमानके द्वारा आपने अपने साक्षात्कारको छिपा रखा है ॥ ४२ ॥ आप देश, काल और वस्तुओंकी सीमासे बाहर-अनन्त हैं। सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म और कार्य-कारणोंके समस्त विकारोंमें भी एकरस, विकाररहित और सर्वज्ञ हैं। ईश्वर हैं कि नहीं हैं, सर्वज्ञ हैं कि अल्पज्ञ इत्यादि अनेक मतभेदोंके अनुसार आप उन-उन मतवादियोंको उन्हीं-उन्हीं रूपोंमें दर्शन देते हैं। समस्त शब्दोंके अर्थके रूपमें तो आप हैं ही, शब्दोंके रूपमें भी हैं तथा उन दोनोंका सम्बन्ध जोडऩेवाली शक्ति भी आप ही हैं। हम आपको नमस्कार करती हैं ॥ ४३ ॥ प्रत्यक्ष अनुमान आदि जितने भी प्रमाण हैं, उनको प्रमाणित करनेवाले मूल आप ही हैं। समस्त शास्त्र आपसे ही निकले हैं और आपका ज्ञान स्वत:सिद्ध है। आप ही मनको लगानेकी विधिके रूपमें और उसको सब कहींसे हटा लेनेकी आज्ञाके रूपमें प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्तिमार्ग हैं। इन दोनोंके मूल वेद भी स्वयं आप ही हैं। हम आपको बार-बार नमस्कार करती हैं ॥ ४४ ॥ आप शुद्धसत्त्वमय वसुदेवके पुत्र वासुदेव, सङ्कर्षण एवं प्रद्युम्र और अनिरुद्ध भी हैं। इस प्रकार चतुव्र्यूहके रूपमें आप भक्तों तथा यादवोंके स्वामी हैं। श्रीकृष्ण ! हम आपको नमस्कार करती हैं ॥ ४५ ॥ आप अन्त:करण और उसकी वृत्तियोंके प्रकाशक हैं और उन्हींके द्वारा अपने-आपको ढक रखते हैं। उन अन्त:करण और वृत्तियोंके द्वारा ही आपके स्वरूपका कुछ-कुछ संकेत भी मिलता है। आप उन गुणों और उनकी वृत्तियोंके साक्षी तथा स्वयंप्रकाश हैं। हम आपको नमस्कार करती हैं ॥ ४६ ॥ आप मूलप्रकृतिमें नित्य विहार करते रहते हैं। समस्त स्थूल और सूक्ष्म जगत्की सिद्धि आपसे ही होती है। हृषीकेश ! आप मननशील आत्माराम हैं। मौन ही आपका स्वभाव है। आपको हमारा नमस्कार है ॥ ४७ ॥ आप स्थूल, सूक्ष्म समस्त गतियोंके जाननेवाले तथा सबके साक्षी हैं। आप नामरूपात्मक विश्व- प्रपञ्चके निषेधकी अवधि तथा उसके अधिष्ठान होनेके कारण विश्वरूप भी हैं। आप विश्व के अध्यास तथा अपवाद के साक्षी हैं एवं अज्ञान के द्वारा उसकी सत्यत्वभ्रान्ति एवं स्वरूपज्ञान के द्वारा उसकी आत्यन्तिक निवृत्ति के भी कारण हैं । आपको हमारा नमस्कार है ॥४८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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