मंगलवार, 23 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

 

कालिय पर कृपा

 

नागपत्‍न्य ऊचुः ।

न्याय्यो हि दण्डः कृतकिल्बिषेऽस्मिन्

तवावतारः खलनिग्रहाय ।

रिपोः सुतानामपि तुल्यदृष्टेः

धत्से दमं फलमेवानुशंसन् ॥ ३३ ॥

अनुग्रहोऽयं भवतः कृतो हि नो

दण्डोऽसतां ते खलु कल्मषापहः ।

यद् दन्दशूकत्वममुष्य देहिनः

क्रोधोऽपि तेऽनुग्रह एव सम्मतः ॥ ३४ ॥

तपः सुतप्तं किमनेन पूर्वं

निरस्तमानेन च मानदेन ।

धर्मोऽथ वा सर्वजनानुकम्पया

यतो भवांस्तुष्यति सर्वजीवः ॥ ३५ ॥

कस्यानुभावोऽस्य न देव विद्महे

तवाङ्‌घ्रिरेणु स्पर्शाधिकारः ।

यद्वाञ्छया श्रीर्ललनाचरत्तपो

विहाय कामान् सुचिरं धृतव्रता ॥ ३६ ॥

न नाकपृष्ठं न च सार्वभौमं

न पारमेष्ठ्यं न रसाधिपत्यम् ।

न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा

वाञ्छन्ति यत्पादरजःप्रपन्नाः ॥ ३७ ॥

तदेष नाथाप दुरापमन्यैः

तमोजनिः क्रोधवशोऽप्यहीशः ।

संसारचक्रे भ्रमतः शरीरिणो

यदिच्छतः स्याद् विभवः समक्षः ॥ ३८ ॥

 

नागपत्नियों ने कहाप्रभो ! आपका यह अवतार ही दुष्टोंको दण्ड देनेके लिये हुआ है। इसलिये इस अपराधीको दण्ड देना सर्वथा उचित है। आपकी दृष्टिमें शत्रु और पुत्रका कोई भेदभाव नहीं है। इसलिये आप जो किसीको दण्ड देते हैं, वह उसके पापोंका प्रायश्चित्त कराने और उसका परम कल्याण करनेके लिये ही ॥ ३३ ॥ आपने हमलोगोंपर यह बड़ा ही अनुग्रह किया। यह तो आपका कृपा-प्रसाद ही है। क्योंकि आप जो दुष्टोंको दण्ड देते हैं, उससे उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। इस सर्पके अपराधी होनेमें तो कोई सन्देह ही नहीं है। यदि यह अपराधी न होता, तो इसे सर्पकी योनि ही क्यों मिलती ? इसलिये हम सच्चे हृदयसे आपके इस क्रोधको भी आपका अनुग्रह ही समझती हैं ॥ ३४ ॥ अवश्य ही पूर्वजन्ममें इसने स्वयं मानरहित होकर और दूसरोंका सम्मान करते हुए कोई बहुत बड़ी तपस्या की है। अथवा सब जीवोंपर दया करते हुए इसने कोई बहुत बड़ा धर्म किया है। तभी तो आप इसके ऊपर सन्तुष्ट हुए हैं। क्योंकि सर्व-जीवस्वरूप आपकी प्रसन्नताका यही उपाय है ॥ ३५ ॥ भगवन् ! हम नहीं समझ पातीं कि यह इसकी किस साधनाका फल है, जो यह आपके चरणकमलोंकी धूलका स्पर्श पानेका अधिकारी हुआ है। आपके चरणोंकी रज इतनी दुर्लभ है कि उसके लिये आपकी अद्र्धाङ्गिनी लक्ष्मीजीको भी बहुत दिनोंतक समस्त भोगोंका त्याग करके नियमोंका पालन करते हुए तपस्या करनी पड़ी थी ॥ ३६ ॥ प्रभो ! जो आपके चरणोंकी धूलकी शरण ले लेते हैं, वे भक्तजन स्वर्गका राज्य या पृथ्वीकी बादशाही नहीं चाहते। न वे रसातलका ही राज्य चाहते और न तो ब्रह्माका पद ही लेना चाहते हैं। उन्हें अणिमादि योग- सिद्धियोंकी भी चाह नहीं होती। यहाँतक कि वे जन्म-मृत्युसे छुड़ानेवाले कैवल्य-मोक्षकी भी इच्छा नहीं करते ॥ ३७ ॥ स्वामी ! यह नागराज तमोगुणी योनि में उत्पन्न हुआ है और अत्यन्त क्रोधी है । फिर भी इसे आपकी वह परम पवित्र चरणरज प्राप्त हुई, जो दूसरों के लिये सर्वथा दुर्लभ है; तथा जिसको प्राप्त करने की इच्छामात्र से ही संसारचक्र में पड़े हुए जीव को संसार के वैभव-सम्पत्तिकी तो बात ही क्यामोक्ष की भी प्राप्ति हो जाती है ॥ ३८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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