सोमवार, 22 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

कालिय पर कृपा

 

इत्थं स्वगोकुलमनन्यगतिं निरीक्ष्य

सस्त्रीकुमारमतिदुःखितमात्महेतोः ।

आज्ञाय मर्त्यपदवीमनुवर्तमानः

स्थित्वा मुहूर्तमुदतिष्ठदुरङ्‌गबन्धात् ॥ २३ ॥

तत्प्रथ्यमानवपुषा व्यथितात्मभोगः

त्यक्त्वोन्नमय्य कुपितः स्वफणान्भुजङ्‌गः ।

तस्थौ श्वसन् श्वसनरन्ध्रविषाम्बरीष

स्तब्धेक्षणोल्मुकमुखो हरिमीक्षमाणः ॥ २४ ॥

तं जिह्वया द्विशिखया परिलेलिहानं

द्वे सृक्किणी ह्यतिकरालविषाग्निदृष्टिम् ।

क्रीडन्नमुं परिससार यथा खगेन्द्रो

बभ्राम सोऽप्यवसरं प्रसमीक्षमाणः ॥ २५ ॥

एवं परिभ्रमहतौजसमुन्नतांसम्

आनम्य तत्पृथुशिरःस्वधिरूढ आद्यः ।

तन्मूर्धरत्‍ननिकरस्पर्शातिताम्र

पादाम्बुजोऽखिलकलादिगुरुर्ननर्त ॥ २६ ॥

तं नर्तुमुद्यतमवेक्ष्य तदा तदीय

गन्धर्वसिद्धमुनिचारणदेववध्वः ।

प्रीत्या मृदङ्‌गपणवानकवाद्यगीत

पुष्पोपहारनुतिभिः सहसोपसेदुः ॥ २७ ॥

यद् यद् शिरो न नमतेऽङ्‌ग शतैकशीर्ष्णः

तत्तन्ममर्द खरदण्डधरोऽङ्‌घ्रिपातैः ।

क्षीणायुषो भ्रमत उल्बणमास्यतोऽसृङ्‌

नस्तो वमन् परमकश्मलमाप नागः ॥ २८ ॥

तस्याक्षिभिर्गरलमुद्वमतः शिरःसु

यद् यत् समुन्नमति निःश्वसतो रुषोच्चैः ।

नृत्यन् पदानुनमयन् दमयां बभूव

पुष्पैः प्रपूजित इवेह पुमान्पुराणः ॥ २९ ॥

तच्चित्रताण्डवविरुग्णफणातपत्रो

रक्तं मुखैरुरु वमन् नृप भग्नगात्रः ।

स्मृत्वा चराचरगुरुं पुरुषं पुराणं

नारायणं तमरणं मनसा जगाम ॥ ३० ॥

कृष्णस्य गर्भजगतोऽतिभरावसन्नं

पार्ष्णिप्रहारपरिरुग्णफणातपत्रम् ।

दृष्ट्वाहिमाद्यमुपसेदुरमुष्य पत्‍न्य

आर्ताः श्लथद्वसन भूषणकेशबन्धाः ॥ ३१ ॥

तास्तं सुविग्नमनसोऽथ पुरस्कृतार्भाः

कायं निधाय भुवि भूतपतिं प्रणेमुः ।

साध्व्यः कृताञ्जलिपुटाः शमलस्य भर्तुः

मोक्षेप्सवः शरणदं शरणं प्रपन्नाः ॥ ३२ ॥

 

परीक्षित्‌ ! यह साँपके शरीरसे बँध जाना तो श्रीकृष्णकी मनुष्यों-जैसी एक लीला थी। जब उन्होंने देखा कि व्रजके सभी लोग स्त्री और बच्चोंके साथ मेरे लिये इस प्रकार अत्यन्त दुखी हो रहे हैं और सचमुच मेरे सिवा इनका कोई दूसरा सहारा भी नहीं है, तब वे एक मुहूर्त तक सर्पके बन्धनमें रहकर बाहर निकल आये ॥ २३ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने उस समय अपना शरीर फुलाकर खूब मोटा कर लिया। इससे साँपका शरीर टूटने लगा। वह अपना नागपाश छोडक़र अलग खड़ा हो गया और क्रोधसे आग बबूला हो अपने फण ऊँचा करके फुफकारें मारने लगा। घात मिलते ही श्रीकृष्णपर चोट करनेके लिये वह उनकी ओर टकटकी लगाकर देखने लगा। उस समय उसके नथुनोंसे विषकी फुहारें निकल रही थीं। उसकी आँखें स्थिर थीं और इतनी लाल-लाल हो रही थीं, मानो भट्टी पर तपाया हुआ खपड़ा हो। उसके मुँहसे आगकी लपटें निकल रही थीं ॥ २४ ॥ उस समय कालिय नाग अपनी दुहरी जीभ लपलपाकर अपने होठोंके दोनों किनारोंको चाट रहा था और अपनी कराल आँखोंसे विषकी ज्वाला उगलता जा रहा था। अपने वाहन गरुडक़े समान भगवान्‌ श्रीकृष्ण उसके साथ खेलते हुए पैंतरा बदलने लगे और वह साँप भी उनपर चोट करनेका दाँव देखता हुआ पैंतरा बदलने लगा ॥ २५ ॥ इस प्रकार पैंतरा बदलते-बदलते उसका बल क्षीण हो गया। तब भगवान्‌ श्रीकृष्णने उसके बड़े-बड़े सिरोंको तनिक दबा दिया और उछलकर उनपर सवार हो गये। कालिय नागके मस्तकोंपर बहुत-सी लाल-लाल मणियाँ थीं। उनके स्पर्शसे भगवान्‌के सुकुमार तलुओंकी लालिमा और भी बढ़ गयी। नृत्य-गान आदि समस्त कलाओंके आदि प्रवर्तक भगवान्‌ श्रीकृष्ण उसके सिरोंपर कलापूर्ण नृत्य करने लगे ॥ २६ ॥ भगवान्‌के प्यारे भक्त, गन्धर्व, सिद्ध, देवता, चारण और देवाङ्गनाओंने जब देखा कि भगवान्‌ नृत्य करना चाहते हैं, तब वे बड़े प्रेमसे मृदङ्ग, ढोल, नगारे आदि बाजे बजाते हुए, सुन्दर-सुन्दर गीत गाते हुए, पुष्पोंकी वर्षा करते हुए और अपनेको निछावर करते हुए भेंट ले-लेकर उसी समय भगवान्‌के पास आ पहुँचे ॥ २७ ॥ परीक्षित्‌ ! कालिय नागके एक सौ एक सिर थे। वह अपने जिस सिरको नहीं झुकाता था, उसीको प्रचण्ड दण्डधारी भगवान्‌ अपने पैंरोंकी चोटसे कुचल डालते। इससे कालियनागकी जीवनशक्ति क्षीण हो चली, वह मुँह और नथुनोंसे खून उगलने लगा। अन्तमें चक्कर काटते-काटते वह बेहोश हो गया ॥ २८ ॥ तनिक भी चेत होता तो वह अपनी आँखोंसे विष उगलने लगता और क्रोधके मारे जोर-जोरसे फुफकारें मारने लगता। इस प्रकार वह अपने सिरोंमेंसे जिस सिरको ऊपर उठाता, उसीको नाचते हुए भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने चरणोंकी ठोकरसे झुकाकर रौंद डालते। उस समय पुराण-पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंपर जो खूनकी बूँदें पड़ती थीं, उनसे ऐसा मालूम होता, मानो रक्त-पुष्पोंसे उनकी पूजा की जा रही हो ॥ २९ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ के इस अद्भुत ताण्डव- नृत्यसे कालियके फणरूप छत्ते छिन्न-भिन्न हो गये। उसका एक-एक अंग चूर-चूर हो गया और मुँहसे खूनकी उलटी होने लगी। अब उसे सारे जगत् के आदि शिक्षक पुराणपुरुष भगवान्‌ नारायणकी स्मृति हुई। वह मन-ही-मन भगवान्‌ की शरणमें गया ॥ ३० ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णके उदरमें सम्पूर्ण विश्व है। इसलिये उनके भारी बोझसे कालिय नाग के शरीर की एक-एक गाँठ ढीली पड़ गयी। उनकी एडिय़ोंकी चोटसे उसके छत्रके समान फण छिन्न-भिन्न हो गये। अपने पतिकी यह दशा देखकर उसकी पत्नियाँ भगवान्‌की शरणमें आयीं। वे अत्यन्त आतुर हो रही थीं। भयके मारे उनके वस्त्राभूषण अस्त-व्यस्त हो रहे थे और केशकी चोटियाँ भी बिखर रही थीं ॥ ३१ ॥ उस समय उन साध्वी नागपत्नियोंके चित्तमें बड़ी घबराहट थी। अपने बालकोंको आगे करके वे पृथ्वीपर लोट गयीं और हाथ जोडक़र उन्होंने समस्त प्राणियोंके एकमात्र स्वामी भगवान्‌ श्रीकृष्णको प्रणाम कयिा। भगवान्‌ श्रीकृष्णको शरणागत-वत्सल जानकर अपने अपराधी पतिको छुड़ानेकी इच्छासे उन्होंने उनकी शरण ग्रहण की ॥ ३२ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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