॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
कालिय
पर कृपा
अथ
व्रजे महोत्पाताः त्रिविधा ह्यतिदारुणाः ।
उत्पेतुर्भुवि
दिव्यात्मन् यासन्नभयशंसिनः ॥ १२ ॥
तानालक्ष्य
भयोद्विग्ना गोपा नन्दपुरोगमाः ।
विना
रामेण गाः कृष्णं ज्ञात्वा चारयितुं गतम् ॥ १३ ॥
तैर्दुर्निमित्तैर्निधनं
मत्वा प्राप्तमतद् विदः ।
तत्
प्राणास्तन्मनस्कास्ते दुःखशोकभयातुराः ॥ १४ ॥
आबालवृद्धवनिताः
सर्वेऽङ्ग पशुवृत्तयः ।
निर्जग्मुर्गोकुलाद्
दीनाः कृष्णदर्शनलालसाः ॥ १५ ॥
तांस्तथा
कातरान् वीक्ष्य भगवान् माधवो बलः ।
प्रहस्य
किञ्चिन्नोवाच प्रभावज्ञोऽनुजस्य सः ॥ ॥
तेऽन्वेषमाणा
दयितं कृष्णं सूचितया पदैः ।
भगवत्
लक्षणैर्जग्मुः पदव्या यमुनातटम् ॥ १७ ॥
ते
तत्र तत्राब्जयवाङ्कुशाशनि
ध्वजोपपन्नानि
पदानि विश्पतेः ।
मार्गे
गवामन्यपदान्तरान्तरे
निरीक्षमाणा
ययुरङ्ग सत्वराः ॥ १८ ॥
अन्तर्ह्रदे
भुजगभोगपरीतमारात् ।
कृष्णं
निरीहमुपलभ्य जलाशयान्ते ।
गोपांश्च
मूढधिषणान् परितः पशूंश्च
संक्रन्दतः
परमकश्मलमापुरार्ताः ॥ १९ ॥
गोप्योऽनुरक्तमनसो
भगवत्यनन्ते ।
तत्सौहृदस्मितविलोकगिरः
स्मरन्त्यः ।
ग्रस्तेऽहिना
प्रियतमे भृशदुःखतप्ताः
शून्यं
प्रियव्यतिहृतं ददृशुस्त्रिलोकम् ॥ २० ॥
ताः
कृष्णमातरमपत्यमनुप्रविष्टां
तुल्यव्यथाः
समनुगृह्य शुचः स्रवन्त्यः ।
तास्ता
व्रजप्रियकथाः कथयन्त्य आसन्
कृष्णाननेऽर्पितदृशो
मृतकप्रतीकाः ॥ २१ ॥
कृष्णप्राणान्
निर्विशतो नन्दादीन् वीक्ष्य तं ह्रदम् ।
प्रत्यषेधत्
स भगवान् रामः कृष्णानुभाववित् ॥ २२ ॥
इधर
व्रजमें पृथ्वी,
आकाश और शरीरोंमें बड़े भयङ्कर-भयङ्कर तीनों प्रकारके उत्पात उठ
खड़े हुए, जो इस बातकी सूचना दे रहे थे कि बहुत ही शीघ्र कोई
अशुभ घटना घटनेवाली है ॥ १२ ॥ नन्दबाबा आदि गोपोंने पहले तो उन अपशकुनोंको देखा और
पीछेसे यह जाना कि आज श्रीकृष्ण बिना बलरामके ही गाय चराने चले गये। वे भयसे
व्याकुल हो गये ॥ १३ ॥ वे भगवान्का प्रभाव नहीं जानते थे। इसीलिये उन अपशकुनोंको
देखकर उनके मनमें यह बात आयी कि आज तो श्रीकृष्णकी मृत्यु ही हो गयी होगी। वे उसी
क्षण दु:ख, शोक और भयसे आतुर हो गये। क्यों न हों, श्रीकृष्ण ही उनके प्राण, मन और सर्वस्व जो थे ॥ १४
॥ प्रिय परीक्षित् ! व्रजके बालक, वृद्ध और स्त्रियोंका
स्वभाव गायों-जैसा ही वात्सल्यपूर्ण था। वे मनमें ऐसी बात आते ही अत्यन्त दीन हो
गये और अपने प्यारे कन्हैयाको देखनेकी उत्कट लालसासे घरद्वार छोडक़र निकल पड़े ॥ १५
॥ बलरामजी स्वयं भगवान् के स्वरूप और सर्वशक्तिमान् हैं। उन्होंने जब
व्रजवासियोंको इतना कातर और इतना आतुर देखा, तब उन्हें हँसी
आ गयी। परंतु वे कुछ बोले नहीं, चुप ही रहे। क्योंकि वे अपने
छोटे भाई श्रीकृष्णका प्रभाव भलीभाँति जानते थे ॥ १६ ॥ व्रजवासी अपने प्यारे
श्रीकृष्णको ढूँढऩे लगे। कोई अधिक कठिनाई न हुई; क्योंकि
मार्गमें उन्हें भगवान्के चरणचिह्न मिलते जाते थे। जौ, कमल,
अङ्कुश आदिसे युक्त होनेके कारण उन्हें पहचान होती जाती थी। इस
प्रकार वे यमुना-तटकी ओर जाने लगे ॥ १७ ॥
परीक्षित्
! मार्ग में गौओं और दूसरों के चरणचिह्नों के बीच-बीच में भगवान् के चरणचिह्न भी
दीख जाते थे। उनमें कमल,
जौ, अङ्कुश, वज्र और
ध्वजा के चिह्न बहुत ही स्पष्ट थे। उन्हें देखते हुए वे बहुत शीघ्रतासे चले ॥ १८ ॥
उन्होंने दूर से ही देखा कि कालियदह में कालिय नागके शरीरसे बँधे हुए श्रीकृष्ण
चेष्टाहीन हो रहे हैं। कुण्डके किनारे पर ग्वालबाल अचेत हुए पड़े हैं और गौएँ,
बैल, बछड़े आदि बड़े आर्तस्वर से डकरा रहे हैं।
यह सब देखकर वे सब गोप अत्यन्त व्याकुल और अन्तमें मूर्च्छित हो गये ॥ १९ ॥
गोपियोंका मन अनन्त गुणगणनिलय भगवान् श्रीकृष्ण के प्रेमके रंगमें रँगा हुआ था।
वे तो नित्य-निरन्तर भगवान् के सौहार्द, उनकी मधुर मुसकान,
प्रेमभरी चितवन तथा मीठी वाणीका ही स्मरण करती रहती थीं। जब
उन्होंने देखा कि हमारे प्रियतम श्यामसुन्दर को काले साँपने जकड़ रखा है, तब तो उनके हृदयमें बड़ा ही दु:ख और बड़ी ही जलन हुई। अपने प्राणवल्लभ
जीवनसर्वस्वके बिना उन्हें तीनों लोक सूने दीखने लगे ॥ २० ॥ माता यशोदा तो अपने
लाड़ले लालके पीछे कालियदहमें कूदने ही जा रही थीं; परंतु
गोपियोंने उन्हें पकड़ लिया। उनके हृदयमें भी वैसी ही पीड़ा थी। उनकी आँखोंसे भी
आँसुओंकी झड़ी लगी हुई थी। सबकी आँखें श्रीकृष्ण के मुखकमलपर लगी थीं। जिनके शरीर में
चेतना थी, वे व्रजमोहन श्रीकृष्ण की पूतना-वध आदि की
प्यारी-प्यारी ऐश्वर्यकी लीलाएँ कह-कहकर यशोदाजी को धीरज बँधाने लगीं। किन्तु
अधिकांश तो मुर्देकी तरह पड़ ही गयी थीं ॥ २१ ॥ परीक्षित् ! नन्दबाबा आदिके
जीवन-प्राण तो श्रीकृष्ण ही थे। वे श्रीकृष्णके लिये कालियदह में घुसने लगे। यह
देखकर श्रीकृष्णका प्रभाव जाननेवाले भगवान् बलरामजी ने किन्हींको समझा-बुझाकर,
किन्हींको बलपूर्वक और किन्हींको उनके हृदयों में प्रेरणा करके रोक
दिया ॥ २२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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