॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इक्कीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
वेणुगीत
श्रीशुक
उवाच ।
इत्थं
शरत् स्वच्छजलं पद्माकरसुगन्धिना ।
न्यविशद्
वायुना वातं स गोगोपालकोऽच्युतः ॥ १ ॥
कुसुमितवनराजिशुष्मिभृङ्ग
द्विजकुलघुष्टसरःसरिन्महीध्रम्
।
मधुपतिरवगाह्य
चारयन् गाः
सहपशुपालबलश्चुकूज
वेणुम् ॥ २ ॥
तद्
व्रजस्त्रिय आश्रुत्य वेणुगीतं स्मरोदयम् ।
काश्चित्
परोक्षं कृष्णस्य स्वसखीभ्योऽन्ववर्णयन् ॥ ३ ॥
तद्
वर्णयितुमारब्धाः स्मरन्त्यः कृष्णचेष्टितम् ।
नाशकन्
स्मरवेगेन विक्षिप्तमनसो नृप ॥ ४ ॥
बर्हापीडं
नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकारं ।
बिभ्रद्
वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम् ।
रन्ध्रान्
वेणोरधरसुधयापूरयन् गोपवृन्दैः ।
वृन्दारण्यं
स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्तिः ॥ ५ ॥
इति
वेणुरवं राजन् सर्वभूतमनोहरम् ।
श्रुत्वा
व्रजस्त्रियः सर्वा वर्णयन्त्योऽभिरेभिरे ॥ ६ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! शरद् ऋतुके कारण वह वन बड़ा सुन्दर हो रहा था। जल निर्मल था
और जलाशयोंमें खिले हुए कमलोंकी सुगन्धसे सनकर वायु मन्द-मन्द चल रही थी। भगवान्
श्रीकृष्ण ने गौओं और ग्वालबालोंके साथ उस वनमें प्रवेश किया ॥ १ ॥ सुन्दर-सुन्दर
पुष्पोंसे परिपूर्ण हरी-हरी वृक्ष-पंक्तियोंमें मतवाले भौंरे स्थान-स्थानपर
गुनगुना रहे थे और तरह- तरहके पक्षी झुंड-के-झुंड अलग-अलग कलरव कर रहे थे, जिससे उस वनके सरोवर, नदियाँ और पर्वत—सब-के-सब गूँजते रहते थे। मधुपति श्रीकृष्णने बलरामजी और ग्वालबालोंके साथ
उसके भीतर घुसकर गौओंको चराते हुए अपनी बाँसुरीपर बड़ी मधुर तान छेड़ी ॥ २ ॥
श्रीकृष्णकी वह वंशीध्वनि भगवान् के प्रति प्रेमभावको, उनके
मिलनकी आकाङ्क्षाको जगानेवाली थी। (उसे सुनकर गोपियोंका हृदय प्रेमसे परिपूर्ण हो
गया) वे एकान्तमें अपनी सखियोंसे उनके रूप, गुण और
वंशीध्वनिके प्रभावका वर्णन करने लगीं ॥ ३ ॥ व्रजकी गोपियोंने वंशीध्वनिका माधुर्य
आपसमें वर्णन करना चाहा तो अवश्य; परंतु वंशीका स्मरण होते
ही उन्हें श्रीकृष्णकी मधुर चेष्टाओंकी, प्रेमपूर्ण चितवन,
भौंहोंके इशारे और मधुर मुसकान आदिकी याद हो आयी। उनकी भगवान्से
मिलनेकी आकाङ्क्षा और भी बढ़ गयी। उनका मन हाथसे निकल गया। वे मन-ही-मन वहाँ पहुँच
गयीं, जहाँ श्रीकृष्ण थे। अब उनकी वाणी बोले कैसे ? वे उसके वर्णनमें असमर्थ हो गयीं ॥ ४ ॥ (वे मन-ही-मन देखने लगीं कि)
श्रीकृष्ण ग्वालबालोंके साथ वृन्दावनमें प्रवेश कर रहे हैं। उनके सिरपर मयूरपिच्छ
है और कानोंपर कनेरके पीले-पीले पुष्प; शरीरपर सुनहला
पीताम्बर और गलेमें पाँच प्रकारके सुगन्धित पुष्पोंकी बनी वैजयन्ती माला है।
रंगमञ्चपर अभिनय करते हुए श्रेष्ठ नटका-सा क्या ही सुन्दर वेष है। बाँसुरीके
छिद्रोंको वे अपने अधरामृतसे भर रहे हैं। उनके पीछे-पीछे ग्वालबाल उनकी लोकपावन
कीर्तिका गान कर रहे हैं। इस प्रकार वैकुण्ठसे भी श्रेष्ठ वह वृन्दावनधाम उनके
चरणचिह्नोंसे और भी रमणीय बन गया है ॥ ५ ॥ परीक्षित् ! यह वंशीध्वनि जड, चेतन—समस्त भूतोंका मन चुरा लेती है। गोपियोंने उसे
सुना और सुनकर उसका वर्णन करने लगीं। वर्णन करते-करते वे तन्मय हो गयीं और
श्रीकृष्णको पाकर आलिङ्गन करने लगीं ॥ ६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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