॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इक्कीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
वेणुगीत
श्रीगोप्य
ऊचुः ।
अक्षण्वतां
फलमिदं न परं विदामः
सख्यः
पशूननु विवेशयतोर्वयस्यैः ।
वक्त्रं
व्रजेशसुतयोरनवेणुजुष्टं
यैर्वा
निपीतमनुरक्त-कटाक्षमोक्षम् ॥ ७ ॥
चूतप्रवालबर्हस्तबक्
उत्पलाब्ज
मालानुपृक्तपरिधान
विचित्रवेशौ ।
मध्ये
विरेजतुरलं पशुपालगोष्ठ्यां
रङ्गे
यथा नटवरौ क्व च गायमानौ ॥ ८ ॥
गोप्यः
किमाचरदयं कुशलं स्म वेणुः
दामोदराधरसुधामपि
गोपिकानाम् ।
भुङ्क्ते
स्वयं यदवशिष्टरसं ह्रदिन्यो
हृष्यत्त्वचोऽश्रु
मुमुचुस्तरवो यथाऽऽर्याः ॥ ९ ॥
वृन्दावनं
सखि भुवो वितनोति कीर्तिं
यद्
देवकीसुतपदाम्बु जलब्धलक्ष्मि ।
गोविन्दवेणुमनु
मत्तमयूरनृत्यं
प्रेक्ष्याद्रिसान्ववरतान्यसमस्तसत्त्वम्
॥ १० ॥
धन्याः
स्म मूढमतयोऽपि हरिण्य एता
या
नन्दनन्दनमुपात्त विचित्रवेशम् ।
आकर्ण्य
वेणुरणितं सहकृष्णसाराः
पूजां
दधुर्विरचितां प्रणयावलोकैः ॥ ११ ॥
गोपियाँ
आपसमें बातचीत करने लगीं—अरी सखी ! हमने तो आँखवालोंके जीवनकी और उनकी आँखोंकी बस, यही—इतनी ही सफलता समझी है; और
तो हमें कुछ मालूम ही नहीं है। वह कौन-सा लाभ है ? वह यही है
कि जब श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण और गौरसुन्दर बलराम ग्वाल- बालोंके साथ गायोंको
हाँककर वनमें ले जा रहे हों या लौटाकर व्रजमें ला रहे हों, उन्होंने
अपने अधरोंपर मुरली धर रखी हो और प्रेमभरी तिरछी चितवनसे हमारी ओर देख रहे हों,
उस समय हम उनकी मुख-माधुरीका पान करती रहें ॥ ७ ॥ अरी सखी ! जब वे
आमकी नयी कोंपलें, मोरोंके पंख, फूलोंके
गुच्छे, रंग-बिरंगे कमल और कुमुदकी मालाएँ धारण कर लेते हैं,
श्रीकृष्णके साँवरे शरीरपर पीताम्बर और बलरामके गोरे शरीरपर
नीलाम्बर फहराने लगता है, तब उनका वेष बड़ा ही विचित्र बन
जाता है। ग्वालबालोंकी गोष्ठीमें वे दोनों बीचोबीच बैठ जाते हैं और मधुर संगीतकी
तान छेड़ देते हैं। मेरी प्यारी सखी ! उस समय ऐसा जान पड़ता है मानो दो चतुर नट
रंग-मञ्चपर अभिनय कर रहे हों। मैं क्या बताऊँ कि उस समय उनकी कितनी शोभा होती है ॥
८ ॥ अरी गोपियो ! यह वेणु पुरुष जातिका होनेपर भी पूर्वजन्ममें न जाने ऐसा कौन-सा
साधन-भजन कर चुका है कि हम गोपियोंकी अपनी सम्पत्ति—दामोदरके
अधरोंकी सुधा स्वयं ही इस प्रकार पिये जा रहा है कि हमलोगोंके लिये थोड़ा-सा भी रस
शेष नहीं रहेगा। इस वेणुको अपने रससे सींचने- वाली ह्रदिनियाँ आज कमलोंके मिस
रोमाञ्चित हो रही हैं और अपने वंशमें भगवत्प्रेमी सन्तानोंको देखकर श्रेष्ठ
पुरुषोंके समान वृक्ष भी इसके साथ अपना सम्बन्ध जोडक़र आँखोंसे आनन्दाश्रु बहा रहे
हैं ॥ ९ ॥
अरी
सखी ! यह वृन्दावन वैकुण्ठलोकतक पृथ्वीकी कीर्तिका विस्तार कर रहा है। क्योंकि
यशोदानन्दन श्रीकृष्णके चरणकमलोंके चिह्नोंसे यह चिह्नित हो रहा है ! सखि ! जब
श्रीकृष्ण अपनी मुनिजनमोहिनी मुरली बजाते हैं, तब मोर मतवाले होकर
उसकी तालपर नाचने लगते हैं। यह देखकर पर्वतकी चोटियोंपर विचरनेवाले सभी पशु-पक्षी
चुपचाप—शान्त होकर खड़े रह जाते हैं। अरी सखी ! जब
प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण विचित्र वेष धारण करके बाँसुरी बजाते हैं, तब मूढ़ बुद्धिवाली ये हरिनियाँ भी वंशीकी तान सुनकर अपने पति कृष्णसार
मृगोंके साथ नन्दनन्दनके पास चली आती हैं और अपनी प्रेमभरी बड़ी-बड़ी आँखोंसे
उन्हें निरखने लगती हैं। निरखती क्या हैं, अपनी कमलके समान
बड़ी-बड़ी आँखें श्रीकृष्णके चरणोंपर निछावर कर देती हैं और श्रीकृष्णकी प्रेमभरी
चितवनके द्वारा किया हुआ अपना सत्कार स्वीकार करती हैं।’ वास्तवमें
उनका जीवन धन्य है ! (हम वृन्दावनकी गोपी होनेपर भी इस प्रकार उनपर अपनेको निछावर
नहीं कर पातीं, हमारे घरवाले कुढऩे लगते हैं। कितनी विडम्बना
है !) ॥ १०-११ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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