॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इक्कीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०३)
वेणुगीत
कृष्णं
निरीक्ष्य वनितोत्सवरूपशीलं
श्रुत्वा
च तत्क्वणितवेणु विविक्तगीतम् ।
देव्यो
विमानगतयः स्मरनुन्नसारा
भ्रश्यत्
प्रसूनकबरा मुमुहुर्विनीव्यः ॥ १२ ॥
गावश्च
कृष्णमुखनिर्गतवेणुगीत
पीयूषमुत्तभितकर्णपुटैः
पिबन्त्यः ।
शावाः
स्नुतस्तनपयःकवलाः स्म तस्थुः
गोविन्दमात्मनि
दृशाश्रुकलाः स्पृशन्त्यः ॥ १३ ॥
प्रायो
बताम्ब विहगा मुनयो वनेऽस्मिन्
कृष्णेक्षितं
तदुदितं कलवेणुगीतम् ।
आरुह्य
ये द्रुमभुजान् रुचिरप्रवालान्
श्रृण्वत्यमीलितदृशो
विगतान्यवाचः ॥ १४ ॥
नद्यस्तदा
तदुपधार्य मुकुन्दगीतम्
आवर्तलक्षित
मनोभवभग्नवेगाः ।
आलिङ्गनस्थगितमूर्मिभुजैर्मुरारेः
गृह्णन्ति
पादयुगलं कमलोपहाराः ॥ १५ ॥
दृष्ट्वाऽऽतपे
व्रजपशून् सह रामगोपैः
सञ्चारयन्तमनु
वेणुमुदीरयन्तम् ।
प्रेमप्रवृद्ध
उदितः कुसुमावलीभिः
सख्युर्व्यधात्
स्ववपुषाम्बुद आतपत्रम् ॥ १६ ॥
अरी
सखी ! हरिनियों की तो बात ही क्या है—स्वर्ग की देवियाँ
जब युवतियों को आनन्दित करनेवाले सौन्दर्य और शीलके खजाने श्रीकृष्णको देखती हैं
और बाँसुरीपर उनके द्वारा गाया हुआ मधुर संगीत सुनती हैं, तब
उनके चित्र- विचित्र आलाप सुनकर वे अपने विमान पर ही सुध-बुध खो बैठती हैं—मूर्च्छित हो जाती हैं। यह कैसे मालूम हुआ सखी ? सुनो
तो, जब उनके हृदयमें श्रीकृष्णसे मिलने की तीव्र आकाङ्क्षा
जग जाती है तब वे अपना धीरज खो बैठती हैं, बेहोश हो जाती हैं;
उन्हें इस बातका भी पता नहीं चलता कि उनकी चोटियोंमें गुँथे हुए फूल
पृथ्वीपर गिर रहे हैं। यहाँतक कि उन्हें अपनी साड़ी का भी पता नहीं रहता, वह कमर से खिसककर जमीनपर गिर जाती है ॥ १२ ॥ अरी सखी ! तुम देवियोंकी बात
क्या कह रही हो, इन गौओंको नहीं देखती ? जब हमारे कृष्ण-प्यारे अपने मुखसे बाँसुरीमें स्वर भरते हैं और गौएँ उनका
मधुर संगीत सुनती हैं, तब ये अपने दोनों कानोंके दोने सँभाल
लेती हैं—खड़े कर लेती हैं और मानो उनसे अमृत पी रही हों,
इस प्रकार उस संगीतका रस लेने लगती हैं ? ऐसा
क्यों होता है सखी ? अपने नेत्रोंके द्वारसे श्यामसुन्दरको
हृदयमें ले जाकर वे उन्हें वहीं विराजमान कर देती हैं और मन-ही-मन उनका आलिङ्गन
करती हैं। देखती नहीं हो, उनके नेत्रोंसे आनन्दके आँसू छलकने
लगते हैं ! और उनके बछड़े, बछड़ोंकी तो दशा ही निराली हो
जाती है। यद्यपि गायोंके थनोंसे अपने-आप दूध झरता रहता है, वे
जब दूध पीते-पीते अचानक ही वंशीध्वनि सुनते हैं, तब मुँहमें
लिया हुआ दूधका घूँट न उगल पाते हैं और न निगल पाते हैं। उनके हृदयमें भी होता है
भगवान् का संस्पर्श और नेत्रोंमें छलकते होते हैं आनन्दके आँसू। वे
ज्यों-के-त्यों ठिठके रह जाते हैं ॥ १३ ॥ अरी सखी ! गौएँ और बछड़े तो हमारी घरकी
वस्तु हैं। उनकी बात तो जाने ही दो। वृन्दावनके पक्षियोंको तुम नहीं देखती हो !
उन्हें पक्षी कहना ही भूल है ! सच पूछो तो उनमेंसे अधिकांश बड़े-बड़े ऋषि-मुनि
हैं। वे वृन्दावनके सुन्दर-सुन्दर वृक्षोंकी नयी और मनोहर कोंपलोंवाली डालियोंपर
चुपचाप बैठ जाते हैं और आँखें बंद नहीं करते, निॢनमेष
नयनोंसे श्रीकृष्णकी रूप-माधुरी तथा प्यारभरी चितवन देख-देखकर निहाल होते रहते हैं,
तथा कानोंसे अन्य सब प्रकारके शब्दोंको छोडक़र केवल उन्हींकी मोहनी
वाणी और वंशीका त्रिभुवनमोहन संगीत सुनते रहते हैं। मेरी प्यारी सखी ! उनका जीवन
कितना धन्य है ! ॥ १४ ॥
अरी
सखी ! देवता,
गौओं और पक्षियोंकी बात क्यों करती हो ? वे तो
चेतन हैं। इन जड नदियोंको नहीं देखतीं ? इनमें जो भँवर दीख
रहे हैं, उनसे इनके हृदयमें श्यामसुन्दरसे मिलनेकी तीव्र
आकाङ्क्षाका पता चलता है ? उसके वेगसे ही तो इनका प्रवाह रुक
गया है। इन्होंने भी प्रेमस्वरूप श्रीकृष्णकी वंशीध्वनि सुन ली है। देखो, देखो ! ये अपनी तरङ्गोंके हाथोंसे उनके चरण पकडक़र कमलके फूलोंका उपहार
चढ़ा रही हैं और उनका आलिङ्गन कर रही हैं; मानो उनके चरणोंपर
अपना हृदय ही निछावर कर रही हैं ॥ १५ ॥ अरी सखी ! ये नदियाँ तो हमारी पृथ्वीकी,
हमारे वृन्दावनकी वस्तुएँ हैं; तनिक इन
बादलोंको भी देखो ! जब वे देखते हैं कि व्रजराजकुमार श्रीकृष्ण और बलरामजी
ग्वालबालोंके साथ धूपमें गौएँ चरा रहे हैं और साथ-साथ बाँसुरी भी बजाते जा रहे हैं,
तब उनके हृदयमें प्रेम उमड़ आता है। वे उनके ऊपर मँडऱाने लगते हैं
और वे श्यामघन अपने सखा घनश्यामके ऊपर अपने शरीरको ही छाता बनाकर तान देते हैं।
इतना ही नहीं सखी ! वे जब उनपर नन्हीं-नन्हीं फुहियोंकी वर्षा करने लगते हैं,
तब ऐसा जान पड़ता है कि वे उनके ऊपर सुन्दर-सुन्दर श्वेत कुसुम चढ़ा
रहे हैं। नहीं सखी, उनके बहाने वे तो अपना जीवन ही निछावर कर
देते हैं ! ॥ १६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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