॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इक्कीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०४)
वेणुगीत
पूर्णाः
पुलिन्द्य उरुगायपदाब्जराग
श्रीकुङ्कुमेन
दयितास्तनमण्डितेन ।
तद्दर्शनस्मररुजस्तृणरूषितेन
लिम्पन्त्य
आननकुचेषु जहुस्तदाधिम् ॥ १७ ॥
हन्तायमद्रिरबला
हरिदासवर्यो
यद्
रामकृष्णचरणस्परशप्रमोदः ।
मानं
तनोति सहगोगणयोस्तयोर्यत्
पानीयसूयवस
कन्दरकन्दमूलैः ॥ १८ ॥
गा
गोपकैरनुवनं नयतोरुदार
वेणुस्वनैः
कलपदैस्तनुभृत्सु सख्यः ।
अस्पन्दनं
गतिमतां पुलकस्तरुणां
निर्योगपाशकृत
लक्षणयोर्विचित्रम् ॥ १९ ॥
एवंविधा
भगवतो या वृन्दावनचारिणः ।
वर्णयन्त्यो
मिथो गोप्यः क्रीडास्तन्मयतां ययुः ॥ २० ॥
अरी
भटू ! हम तो वृन्दावनकी इन भीलनियोंको ही धन्य और कृतकृत्य मानती हैं। ऐसा क्यों
सखी ?
इसलिये कि इनके हृदयमें बड़ा प्रेम है। जब ये हमारे कृष्ण-प्यारेको
देखती हैं, तब इनके हृदयमें भी उनसे मिलनेकी तीव्र आकाङ्क्षा
जाग उठती है। इनके हृदयमें भी प्रेमकी व्याधि लग जाती है। उस समय ये क्या उपाय
करती हैं, यह भी सुन लो। हमारे प्रियतमकी प्रेयसी गोपियाँ
अपने वक्ष:स्थलोंपर जो केसर लगाती हैं, वह श्यामसुन्दरके
चरणोंमें लगी होती है और वे जब वृन्दावनके घास-पात पर चलते हैं, तब उनमें भी लग जाती है। ये सौभाग्यवती भीलनियाँ उन्हें उन तिनकोंपरसे
छुड़ाकर अपने स्तनों और मुखोंपर मल लेती हैं और इस प्रकार अपने हृदयकी प्रेम-
पीड़ा शान्त करती हैं ॥ १७ ॥ अरी गोपियो ! यह गिरिराज गोवद्र्धन तो भगवान्के
भक्तोंमें बहुत ही श्रेष्ठ है। धन्य हैं इसके भाग्य ! देखती नहीं हो, हमारे प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण और नयनाभिराम बलरामके चरणकमलोंका स्पर्श
प्राप्त करके यह कितना आनन्दित रहता है। इसके भाग्यकी सराहना कौन करे ? यह तो उन दोनोंका—ग्वालबालों और गौओंका बड़ा ही
सत्कार करता है। स्नान-पानके लिये झरनोंका जल देता है, गौओंके
लिये सुन्दर हरी-हरी घास प्रस्तुत करता है विश्राम करनेके लिये कन्दराएँ और खानेके
लिये कन्द मूल-फल देता है। वास्तवमें यह धन्य है ! ॥ १८ ॥ अरी सखी ! इन
साँवरे-गोरे किशोरोंकी तो गति ही निराली है। जब वे सिरपर नोवना (दुहते समय गायके
पैर बाँधनेकी रस्सी) लपेटकर और कंधोंपर फंदा (भागनेवाली गायोंको पकडऩेकी रस्सी)
रखकर गायोंको एक वनसे दूसरे वनमें हाँककर ले जाते हैं, साथमें
ग्वालबाल भी होते हैं और मधुर-मधुर संगीत गाते हुए बाँसुरीकी तान छेड़ते हैं,
उस समय मनुष्योंकी तो बात ही क्या, अन्य
शरीरधारियोंमें भी चलनेवाले चेतन पशु-पक्षी और जड नदी आदि तो स्थिर हो जाते हैं
तथा अचल-वृक्षोंको भी रोमाञ्च हो आता है। जादूभरी वंशीका और क्या चमत्कार सुनाऊँ ?
॥ १९ ॥
परीक्षित्
! वृन्दावनविहारी श्रीकृष्णकी ऐसी-ऐसी एक नहीं, अनेक लीलाएँ हैं।
गोपियाँ प्रतिदिन आपसमें उनका वर्णन करतीं और तन्मय हो जातीं। भगवान्की लीलाएँ
उनके हृदयमें स्फुरित होने लगतीं ॥ २० ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे एकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें