॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
चीरहरण
श्रीशुक
उवाच -
हेमन्ते
प्रथमे मासि नन्दव्रजकुमारिकाः ।
चेरुर्हविष्यं
भुञ्जानाः कात्यायन्यर्चनव्रतम् ॥ १ ॥
आप्लुत्याम्भसि
कालिन्द्या जलान्ते चोदितेऽरुणे ।
कृत्वा
प्रतिकृतिं देवीं आनर्चुः नृप सैकतीम् ॥ २ ॥
गन्धैर्माल्यैः
सुरभिभिः बलिभिर्धूपदीपकैः ।
उच्चावचैश्चोपहारैः
प्रवालफल तण्डुलैः ॥ ३ ॥
कात्यायनि
महामाये महायोगिन्यधीश्वरि ।
नन्दगोपसुतं
देवि पतिं मे कुरु ते नमः ।
इति
मन्त्रं जपन्त्यस्ताः पूजां चक्रुः कुमारिकाः ॥ ४ ॥
एवं
मासं व्रतं चेरुः कुमार्यः कृष्णचेतसः ।
भद्रकालीं
समानर्चुः भूयान्नन्दसुतः पतिः ॥ ५ ॥
ऊषस्युत्थाय
गोत्रैः स्वैरन्योन्या बद्धबाहवः ।
कृष्णं
उच्चैर्जगुर्यान्त्यः कालिन्द्यां स्नातुमन्वहम् ॥ ६ ॥
नद्याः
कदाचिदागत्य तीरे निक्षिप्य पूर्ववत् ।
वासांसि
कृष्णं गायन्त्यो विजह्रुः सलिले मुदा ॥ ७ ॥
भगवान्
तदभिप्रेत्य कृष्णो योगेश्वरेश्वरः ।
वयस्यैरावृतस्तत्र
गतस्तत्कर्मसिद्धये ॥ ८ ॥
तासां
वासांस्युपादाय नीपमारुह्य सत्वरः ।
हसद्भिः
प्रहसन् बालैः परिहासमुवाच ह ॥ ९ ॥
अत्रागत्याबलाः
कामं स्वं स्वं वासः प्रगृह्यताम् ।
सत्यं
ब्रवाणि नो नर्म यद्यूयं व्रतकर्शिताः ॥ १० ॥
न
मयोदितपूर्वं वा अनृतं तदिमे विदुः ।
एकैकशः
प्रतीच्छध्वं सहैवेति सुमध्यमाः ॥ ११ ॥
तस्य
तत् क्ष्वेलितं दृष्ट्वा गोप्यः प्रेमपरिप्लुताः ।
व्रीडिताः
प्रेक्ष्य चान्योन्यं जातहासा न निर्ययुः ॥ १२ ॥
एवं
ब्रुवति गोविन्दे नर्मणाऽऽक्षिप्तचेतसः ।
आकण्ठमग्नाः
शीतोदे वेपमानास्तमब्रुवन् ॥ १३ ॥
मानयं
भोः कृथास्त्वां तु नन्दगोपसुतं प्रियम् ।
जानीमोऽङ्ग
व्रजश्लाघ्यं देहि वासांसि वेपिताः ॥ १४ ॥
श्यामसुन्दर
ते दास्यः करवाम तवोदितम् ।
देहि
वासांसि धर्मज्ञ नो चेद् राज्ञे ब्रुवाम हे ॥ १५ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! अब हेमन्त ऋतु आयी। उसके पहले ही महीनेमें अर्थात्
मार्गशीर्षमें नन्दबाबाके व्रजकी कुमारियाँ कात्यायनी देवीकी पूजा और व्रत करने
लगीं। वे केवल हविष्यान्न ही खाती थीं ॥ १ ॥ राजन् ! वे कुमारी कन्याएँ पूर्व
दिशाका क्षितिज लाल होते-होते यमुनाजलमें स्नान कर लेतीं और तटपर ही देवीकी
बालुकामयी मूर्ति बनाकर सुगन्धित चन्दन, फूलोंके हार,
भाँति-भाँतिके नैवेद्य, धूप-दीप, छोटी-बड़ी भेंटकी सामग्री, पल्लव, फल और चावल आदिसे उनकी पूजा करतीं ॥ २-३ ॥ साथ ही ‘हे
कात्यायनी ! हे महामाये ! हे महायोगिनी ! हे सबकी एकमात्र स्वामिनी ! आप नन्दनन्दन
श्रीकृष्णको हमारा पति बना दीजिये। देवि ! हम आपके चरणोंमें नमस्कार करती हैं।’—इस मन्त्रका जप करती हुए वे कुमारियाँ देवीकी आराधना करतीं ॥ ४ ॥ इस
प्रकार उन कुमारियोंने, जिनका मन श्रीकृष्णपर निछावर हो चुका
था, इस संकल्पके साथ एक महीनेतक भद्रकालीकी भलीभाँति पूजा की
कि ‘नन्दनन्दन श्यामसुन्दर ही हमारे पति हों’ ॥ ५ ॥ वे प्रतिदिन उषाकालमें ही नाम ले-लेकर एक-दूसरी सखीको पुकार लेतीं
और परस्पर हाथ-में-हाथ डालकर ऊँचे स्वरसे भगवान् श्रीकृष्णकी लीला तथा नामोंका
गान करती हुई यमुनाजलमें स्नान करनेके लिये जातीं ॥ ६ ॥
एक
दिन सब कुमारियोंने प्रतिदिनकी भाँति यमुनाजीके तटपर जाकर अपने-अपने वस्त्र उतार
दिये और भगवान् श्रीकृष्णके गुणोंका गान करती हुई बड़े आनन्दसे जल-क्रीडा करने
लगीं ॥ ७ ॥ परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण सनकादि योगियों और शङ्कर आदि योगेश्वरोंके
भी ईश्वर हैं। उनसे गोपियोंकी अभिलाषा छिपी न रही। वे उनका अभिप्राय जानकर अपने
सखा ग्वालबालोंके साथ उन कुमारियोंकी साधना सफल करनेके लिये यमुना तटपर गये ॥ ८ ॥
उन्होंने अकेले ही उन गोपियोंके सारे वस्त्र उठा लिये और बड़ी फुर्तीसे वे एक
कदम्बके वृक्षपर चढ़ गये। साथी ग्वाल- बाल ठठा-ठठाकर हँसने लगे और स्वयं श्रीकृष्ण
भी हँसते हुए गोपियोंसे हँसीकी बात कहने लगे ॥ ९ ॥ ‘अरी कुमारियो
! तुम यहाँ आकर इच्छा हो तो अपने-अपने वस्त्र ले जाओ। मैं तुमलोगोंसे सच-सच कहता
हूँ। हँसी बिलकुल नहीं करता। तुमलोग व्रत करते-करते दुबली हो गयी हो ॥ १० ॥ ये
मेरे सखा ग्वालबाल जानते हैं कि मैंने कभी कोई झूठी बात नहीं कही है। सुन्दरियो !
तुम्हारी इच्छा हो तो अलग-अलग आकर अपने-अपने वस्त्र ले लो, या
सब एक साथ ही आओ। मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है’ ॥ ११ ॥
भगवान्
की यह हँसी-मसखरी देखकर गोपियोंका हृदय प्रेमसे सराबोर हो गया। वे तनिक सकुचाकर एक
दूसरीकी ओर देखने और मुसकराने लगीं। जलसे बाहर नहीं निकलीं ॥ १२ ॥ जब भगवान्ने
हँसी-हँसीमें यह बात कही,
तब उनके विनोदसे कुमारियोंका चित्त और भी उनकी ओर ङ्क्षखच गया। वे
ठंढे पानीमें कण्ठतक डूबी हुई थीं और उनका शरीर थर-थर काँप रहा था। उहेंने
श्रीकृष्णसे कहा— ॥ १३ ॥ ‘प्यारे
श्रीकृष्ण ! तुम ऐसी अनीति मत करो । हम जानती हैं कि तुम नन्दबाबा के लाड़ले लाल
हो। हमारे प्यारे हो। सारे व्रजवासी तुम्हारी सराहना करते रहते हैं । देखो,
हम जाड़े के मारे ठिठुर रही हैं। तुम हमें हमारे वस्त्र दे दो ॥ १४
॥ प्यारे श्यामसुन्दर ! हम तुम्हारी दासी हैं। तुम जो कुछ कहोगे, उसे हम करनेको तैयार हैं। तुम तो धर्म का मर्म भलीभाँति जानते हो। हमें
कष्ट मत दो। हमारे वस्त्र हमें दे दो; नहीं तो हम जाकर
नन्दबाबा से कह देंगी’ ॥ १५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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