बुधवार, 1 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

चीरहरण

 

श्रीशुक उवाच -

हेमन्ते प्रथमे मासि नन्दव्रजकुमारिकाः ।

चेरुर्हविष्यं भुञ्जानाः कात्यायन्यर्चनव्रतम् ॥ १ ॥

आप्लुत्याम्भसि कालिन्द्या जलान्ते चोदितेऽरुणे ।

कृत्वा प्रतिकृतिं देवीं आनर्चुः नृप सैकतीम् ॥ २ ॥

गन्धैर्माल्यैः सुरभिभिः बलिभिर्धूपदीपकैः ।

उच्चावचैश्चोपहारैः प्रवालफल तण्डुलैः ॥ ३ ॥

कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि ।

नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः ।

इति मन्त्रं जपन्त्यस्ताः पूजां चक्रुः कुमारिकाः ॥ ४ ॥

एवं मासं व्रतं चेरुः कुमार्यः कृष्णचेतसः ।

भद्रकालीं समानर्चुः भूयान्नन्दसुतः पतिः ॥ ५ ॥

ऊषस्युत्थाय गोत्रैः स्वैरन्योन्या बद्धबाहवः ।

कृष्णं उच्चैर्जगुर्यान्त्यः कालिन्द्यां स्नातुमन्वहम् ॥ ६ ॥

नद्याः कदाचिदागत्य तीरे निक्षिप्य पूर्ववत् ।

वासांसि कृष्णं गायन्त्यो विजह्रुः सलिले मुदा ॥ ७ ॥

भगवान् तदभिप्रेत्य कृष्णो योगेश्वरेश्वरः ।

वयस्यैरावृतस्तत्र गतस्तत्कर्मसिद्धये ॥ ८ ॥

तासां वासांस्युपादाय नीपमारुह्य सत्वरः ।

हसद्‌भिः प्रहसन् बालैः परिहासमुवाच ह ॥ ९ ॥

अत्रागत्याबलाः कामं स्वं स्वं वासः प्रगृह्यताम् ।

सत्यं ब्रवाणि नो नर्म यद्यूयं व्रतकर्शिताः ॥ १० ॥

न मयोदितपूर्वं वा अनृतं तदिमे विदुः ।

एकैकशः प्रतीच्छध्वं सहैवेति सुमध्यमाः ॥ ११ ॥

तस्य तत् क्ष्वेलितं दृष्ट्वा गोप्यः प्रेमपरिप्लुताः ।

व्रीडिताः प्रेक्ष्य चान्योन्यं जातहासा न निर्ययुः ॥ १२ ॥

एवं ब्रुवति गोविन्दे नर्मणाऽऽक्षिप्तचेतसः ।

आकण्ठमग्नाः शीतोदे वेपमानास्तमब्रुवन् ॥ १३ ॥

मानयं भोः कृथास्त्वां तु नन्दगोपसुतं प्रियम् ।

जानीमोऽङ्‌ग व्रजश्लाघ्यं देहि वासांसि वेपिताः ॥ १४ ॥

श्यामसुन्दर ते दास्यः करवाम तवोदितम् ।

देहि वासांसि धर्मज्ञ नो चेद् राज्ञे ब्रुवाम हे ॥ १५ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अब हेमन्त ऋतु आयी। उसके पहले ही महीनेमें अर्थात् मार्गशीर्षमें नन्दबाबाके व्रजकी कुमारियाँ कात्यायनी देवीकी पूजा और व्रत करने लगीं। वे केवल हविष्यान्न ही खाती थीं ॥ १ ॥ राजन् ! वे कुमारी कन्याएँ पूर्व दिशाका क्षितिज लाल होते-होते यमुनाजलमें स्नान कर लेतीं और तटपर ही देवीकी बालुकामयी मूर्ति बनाकर सुगन्धित चन्दन, फूलोंके हार, भाँति-भाँतिके नैवेद्य, धूप-दीप, छोटी-बड़ी भेंटकी सामग्री, पल्लव, फल और चावल आदिसे उनकी पूजा करतीं ॥ २-३ ॥ साथ ही हे कात्यायनी ! हे महामाये ! हे महायोगिनी ! हे सबकी एकमात्र स्वामिनी ! आप नन्दनन्दन श्रीकृष्णको हमारा पति बना दीजिये। देवि ! हम आपके चरणोंमें नमस्कार करती हैं।’—इस मन्त्रका जप करती हुए वे कुमारियाँ देवीकी आराधना करतीं ॥ ४ ॥ इस प्रकार उन कुमारियोंने, जिनका मन श्रीकृष्णपर निछावर हो चुका था, इस संकल्पके साथ एक महीनेतक भद्रकालीकी भलीभाँति पूजा की कि नन्दनन्दन श्यामसुन्दर ही हमारे पति हों॥ ५ ॥ वे प्रतिदिन उषाकालमें ही नाम ले-लेकर एक-दूसरी सखीको पुकार लेतीं और परस्पर हाथ-में-हाथ डालकर ऊँचे स्वरसे भगवान्‌ श्रीकृष्णकी लीला तथा नामोंका गान करती हुई यमुनाजलमें स्नान करनेके लिये जातीं ॥ ६ ॥

 

एक दिन सब कुमारियोंने प्रतिदिनकी भाँति यमुनाजीके तटपर जाकर अपने-अपने वस्त्र उतार दिये और भगवान्‌ श्रीकृष्णके गुणोंका गान करती हुई बड़े आनन्दसे जल-क्रीडा करने लगीं ॥ ७ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण सनकादि योगियों और शङ्कर आदि योगेश्वरोंके भी ईश्वर हैं। उनसे गोपियोंकी अभिलाषा छिपी न रही। वे उनका अभिप्राय जानकर अपने सखा ग्वालबालोंके साथ उन कुमारियोंकी साधना सफल करनेके लिये यमुना तटपर गये ॥ ८ ॥ उन्होंने अकेले ही उन गोपियोंके सारे वस्त्र उठा लिये और बड़ी फुर्तीसे वे एक कदम्बके वृक्षपर चढ़ गये। साथी ग्वाल- बाल ठठा-ठठाकर हँसने लगे और स्वयं श्रीकृष्ण भी हँसते हुए गोपियोंसे हँसीकी बात कहने लगे ॥ ९ ॥ अरी कुमारियो ! तुम यहाँ आकर इच्छा हो तो अपने-अपने वस्त्र ले जाओ। मैं तुमलोगोंसे सच-सच कहता हूँ। हँसी बिलकुल नहीं करता। तुमलोग व्रत करते-करते दुबली हो गयी हो ॥ १० ॥ ये मेरे सखा ग्वालबाल जानते हैं कि मैंने कभी कोई झूठी बात नहीं कही है। सुन्दरियो ! तुम्हारी इच्छा हो तो अलग-अलग आकर अपने-अपने वस्त्र ले लो, या सब एक साथ ही आओ। मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है॥ ११ ॥

 

भगवान्‌ की यह हँसी-मसखरी देखकर गोपियोंका हृदय प्रेमसे सराबोर हो गया। वे तनिक सकुचाकर एक दूसरीकी ओर देखने और मुसकराने लगीं। जलसे बाहर नहीं निकलीं ॥ १२ ॥ जब भगवान्‌ने हँसी-हँसीमें यह बात कही, तब उनके विनोदसे कुमारियोंका चित्त और भी उनकी ओर ङ्क्षखच गया। वे ठंढे पानीमें कण्ठतक डूबी हुई थीं और उनका शरीर थर-थर काँप रहा था। उहेंने श्रीकृष्णसे कहा॥ १३ ॥ प्यारे श्रीकृष्ण ! तुम ऐसी अनीति मत करो । हम जानती हैं कि तुम नन्दबाबा के लाड़ले लाल हो। हमारे प्यारे हो। सारे व्रजवासी तुम्हारी सराहना करते रहते हैं । देखो, हम जाड़े के मारे ठिठुर रही हैं। तुम हमें हमारे वस्त्र दे दो ॥ १४ ॥ प्यारे श्यामसुन्दर ! हम तुम्हारी दासी हैं। तुम जो कुछ कहोगे, उसे हम करनेको तैयार हैं। तुम तो धर्म का मर्म भलीभाँति जानते हो। हमें कष्ट मत दो। हमारे वस्त्र हमें दे दो; नहीं तो हम जाकर नन्दबाबा से कह देंगी॥ १५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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