॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)
ब्रह्माजी
के द्वारा भगवान् की स्तुति
एकस्त्वमात्मा
पुरुषः पुराणः
सत्यः
स्वयंज्योतिरनन्त आद्यः ।
नित्योऽक्षरोऽजस्रसुखो
निरञ्जनः
पूर्णाद्वयो
मुक्त उपाधितोऽमृतः ॥ २३ ॥
एवंविधं
त्वां सकलात्मनामपि
स्वात्मानमात्मात्मतया
विचक्षते ।
गुर्वर्कलब्धोपनिषत्
सुचक्षुषा
ये
ते तरन्तीव भवानृताम्बुधिम् ॥ २४ ॥
प्रभो
! आप ही एकमात्र सत्य हैं । क्योंकि आप सबके आत्मा जो हैं । आप पुराणपुरुष होनेके
कारण समस्त जन्मादि विकारोंसे रहित हैं । आप स्वयंप्रकाश हैं; इसलिये देश, काल और वस्तु—जो
परप्रकाश हैं—किसी प्रकार आपको सीमित नहीं कर सकते । आप उनके
भी आदि प्रकाशक हैं । आप अविनाशी होनेके कारण नित्य हैं । आपका आनन्द अखण्डित है ।
आपमें न तो किसी प्रकारका मल है और न अभाव । आप पूर्ण, एक
हैं । समस्त उपाधियोंसे मुक्त होनेके कारण आप अमृतस्वरूप हैं ॥ २३ ॥ आपका यह ऐसा
स्वरूप समस्त जीवोंका ही अपना स्वरूप है । जो गुरुरूप सूर्यसे तत्त्वज्ञानरूप
दिव्य दृष्टि प्राप्त करके उससे आपको अपने स्वरूपके रूपमें साक्षात्कार कर लेते
हैं, वे इस झूठे संसार-सागरको मानो पार कर जाते हैं ।
(संसार-सागरके झूठा होनेके कारण इससे पार जाना भी अविचार-दशाकी दृष्टिसे ही है) ॥ २४
॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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