॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)
ब्रह्माजी
के द्वारा भगवान् की स्तुति
आत्मानमेवात्मतयाविजानतां
तेनैव
जातं निखिलं प्रपञ्चितम् ।
ज्ञानेन
भूयोऽपि च तत्प्रलीयते
रज्ज्वामहेर्भोगभवाभवौ
यथा ॥ २५ ॥
अज्ञानसंज्ञौ
भवबन्धमोक्षौ
द्वौ
नाम नान्यौ स्त ऋतज्ञभावात् ।
अजस्रचित्यात्मनि
केवले परे
विचार्यमाणे
तरणाविवाहनी ॥ २६ ॥
जो
पुरुष परमात्मा को आत्मा के रूपमें नहीं जानते, उन्हें उस अज्ञान के
कारण ही इस नामरूपात्मक निखिल प्रपञ्चकी उत्पत्तिका भ्रम हो जाता है । किन्तु
ज्ञान होते ही इसका आत्यन्तिक प्रलय हो जाता है । जैसे रस्सीमें भ्रमके कारण ही
साँपकी प्रतीति होती है और भ्रमके निवृत्त होते ही उसकी निवृत्ति हो जाती है ॥ २५
॥ संसार-सम्बन्धी बन्धन और उससे मोक्ष—ये दोनों ही नाम
अज्ञानसे कल्पित हैं । वास्तवमें ये अज्ञानके ही दो नाम हैं । ये सत्य और
ज्ञानस्वरूप परमात्मासे भिन्न अस्तित्व नहीं रखते । जैसे सूर्यमें दिन और रातका
भेद नहीं है, वैसे ही विचार करनेपर अखण्ड चित्स्वरूप केवल
शुद्ध आत्मतत्त्वमें न बन्धन है और न तो मोक्ष ॥ २६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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