॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट११)
ब्रह्माजी
के द्वारा भगवान् की स्तुति
त्वामात्मानं
परं मत्वा परमात्मानमेव च ।
आत्मा
पुनर्बहिर्मृग्य अहोऽज्ञजनताज्ञता ॥ २७ ॥
अन्तर्भवेऽनन्त
भवन्तमेव
ह्यतत्त्यजन्तो
मृगयन्ति सन्तः ।
असन्तमप्यन्त्यहिमन्तरेण
सन्तं
गुणं तं किमु यन्ति सन्तः ॥ २८ ॥
भगवन्
! कितने आश्चर्यकी बात है कि आप हैं अपने आत्मा, पर लोग आपको
पराया मानते हैं । और शरीर आदि हैं पराये, किन्तु उनको आत्मा
मान बैठते हैं और इसके बाद आपको कहीं अलग ढूँढऩे लगते हैं । भला, अज्ञानी जीवोंका यह कितना बड़ा अज्ञान है ॥ २७ ॥ हे अनन्त ! आप तो सबके
अन्त:करणमें ही विराजमान हैं। इसलिये संतलोग आपके अतिरिक्त जो कुछ प्रतीत हो रहा
है, उसका परित्याग करते हुए अपने भीतर ही आपको ढूँढ़ते हैं।
क्योंकि यद्यपि रस्सी में साँप नहीं है, फिर भी उस प्रतीयमान
साँपको मिथ्या निश्चय किये बिना भला, कोई सत्पुरुष सच्ची
रस्सीको कैसे जान सकता है ? ॥ २८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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