॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)
ब्रह्माजी
के द्वारा भगवान् की स्तुति
अथापि
ते देव पदाम्बुजद्वय
प्रसादलेशानुगृहीत
एव हि ।
जानाति
तत्त्वं भगवन् महिम्नो
न
चान्य एकोऽपि चिरं विचिन्वन् ॥ २९ ॥
तदस्तु
मे नाथ स भूरिभागो
भवेऽत्र
वान्यत्र तु वा तिरश्चाम् ।
येनाहमेकोऽपि
भवज्जनानां
भूत्वा
निषेवे तव पादपल्लवम् ॥ ३० ॥
अहोऽतिधन्या
व्रजगोरमण्यः
स्तन्यामृतं
पीतमतीव ते मुदा ।
यासां
विभो वत्सतरात्मजात्मना
यत्तृप्तयेऽद्यापि
न चालमध्वराः ॥ ३१ ॥
अहो
भाग्यमहो भाग्यं नन्दगोपव्रजौकसाम् ।
यन्मित्रं
परमानन्दं पूर्णं ब्रह्म सनातनम् ॥ ३२ ॥
अपने
भक्तजनों के हृदयमें स्वयं स्फुरित होनेवाले भगवन् ! आपके ज्ञानका स्वरूप और महिमा
ऐसी ही है,
उससे अज्ञानकल्पित जगत् का नाश हो जाता है। फिर भी जो पुरुष आपके
युगल चरणकमलोंका तनिक-सा भी कृपा-प्रसाद प्राप्त कर लेता है, उससे अनुगृहीत हो जाता है—वही आपकी सच्चिदानन्दमयी
महिमाका तत्त्व जान सकता है। दूसरा कोई भी ज्ञान-वैराग्यादि साधनरूप अपने
प्रयत्नसे बहुत कालतक कितना भी अनुसन्धान करता रहे, वह आपकी
महिमाका यथार्थ ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता ॥ २९ ॥ इसलिये भगवन् ! मुझे इस जन्ममें,
दूसरे जन्ममें अथवा किसी पशु-पक्षी आदिके जन्ममें भी ऐसा सौभाग्य
प्राप्त हो कि मैं आपके दासोंमेंसे कोई एक दास हो जाऊँ और फिर आपके चरणकमलोंकी
सेवा करूँ ॥ ३० ॥ मेरे स्वामी ! जगत्के बड़े-बड़े यज्ञ सृष्टिके प्रारम्भसे लेकर
अबतक आपको पूर्णत: तृप्त न कर सके। परंतु आपने व्रजकी गायों और ग्वालिनोंके बछड़े
एवं बालक बनकर उनके स्तनोंका अमृत-सा दूध बड़े उमंगसे पिया है। वास्तवमें उन्हीं.का
जीवन सफल है, वे ही अत्यन्त धन्य हैं ॥ ३१ ॥ अहो, नन्द आदि व्रजवासी गोपों के धन्य भाग्य हैं। वास्तव में उनका अहोभाग्य है।
क्योंकि परमानन्दस्वरूप सनातन परिपूर्ण ब्रह्म आप उनके अपने सगे-सम्बन्धी और
सुहृद् हैं ॥ ३२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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