॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)
ब्रह्माजी
के द्वारा भगवान् की स्तुति
एषां
तु भाग्यमहिमाच्युत तावदास्ताम् ।
एकादशैव
हि वयं बत भूरिभागाः ।
एतद्धृषीकचषकैरसकृत्
पिबामः
शर्वादयोऽङ्घ्र्युदजमध्वमृतासवं
ते ॥ ३३ ॥
तद्भूरिभाग्यमिह
जन्म किमप्यटव्यां ।
यद्गोकुलेऽपि
कतमाङ्घ्रिरजोऽभिषेकम् ।
यज्जीवितं
तु निखिलं भगवान् मुकुन्दः
त्वद्यापि
यत्पदरजः श्रुतिमृग्यमेव ॥ ३४ ॥
हे
अच्युत ! इन व्रजवासियों के सौभाग्य की महिमा तो अलग रही—मन आदि ग्यारह इन्द्रियों के अधिष्ठातृ-देवता के रूपमें रहनेवाले महादेव
आदि हमलोग बड़े ही भाग्यवान् हैं। क्योंकि इन व्रजवासियों की मन आदि ग्यारह
इन्द्रियोंको प्याले बनाकर हम आपके चरणकमलोंका अमृतसे भी मीठा, मदिरासे भी मादक मधुर मकरन्दरस पान करते रहते हैं। जब उसका एक-एक
इन्द्रियसे पान करके हम धन्य-धन्य हो रहे हैं, तब समस्त
इन्द्रियोंसे उसका सेवन करनेवाले व्रजवासियों की तो बात ही क्या है ॥ ३३ ॥ प्रभो !
इस व्रजभूमिके किसी वनमें और विशेष करके गोकुलमें किसी भी योनिमें जन्म हो जाय,
यही हमारे लिये बड़े सौभाग्यकी बात होगी। क्योंकि यहाँ जन्म हो
जानेपर आपके किसी-न-किसी प्रेमीके चरणोंकी धूलि अपने ऊपर पड़ ही जायगी। प्रभो !
आपके प्रेमी व्रजवासियोंका सम्पूर्ण जीवन आपका ही जीवन है। आप ही उनके जीवनके
एकमात्र सर्वस्व हैं। इसलिये उनके चरणोंकी धूलि मिलना आपके ही चरणोंकी धूलि मिलना
है और आपके चरणोंकी धूलिको तो श्रुतियाँ भी अनादि कालसे अबतक ढूँढ़ ही रही हैं ॥
३४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें